नागार्जुन की कविता में व्यंग्य की प्रधानता है

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नागार्जुन की कविता में व्यंग्य की प्रधानता है


नागार्जुन की कविता में व्यंग्य की प्रधानता है। वे अपने समकालीन समाज की विसंगतियों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, सामाजिक अन्याय और मानवीय कमजोरियों पर तीखे व्यंग्य के लिए जाने जाते हैं। उनकी कविता में व्यंग्य का प्रयोग केवल मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए भी किया जाता है।

नागार्जुन के काव्य रचनाओं में "युगधारा', 'सतरंगे पंखों वाली', 'प्यासी पथराई आँखें', और 'भस्माँकुर' नागार्जुन की प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त 'शपथ', 'प्रेत का बयान' 'खून के शोले', चना जोर गरम' आदि लघु काव्य पुस्तिकाएँ हैं। इनमें से 'सतरंगे पंखों वाली', प्यासी पथराई आँखें, और 'भस्मांकुर' ही प्रकाशित रूप में उपलब्ध है। नागार्जुन का प्रचुर काव्य - साहित्य अभी व्यवस्थित रूप में प्रकाशित होने को पड़ा है। हिन्दी के दुर्भाग्य से मर्मभेदी व्यंग्यों, कवि के सिन्ध- प्रवास की मार्मिक अनुभूतियों से युक्त "बादलों को घिरते देखा " काव्य-संग्रह, भिक्षुओं' 'युगधारा', पाषाणी आदि का पुनः प्रकाशन न हो सका। 'प्रेत का बयान' और 'चना जोर गरम' 'लघु काव्य-पुस्तिकाएँ सामाजिक जीवन एवं राजनीतिक जीवन के विकृत रूप पर करारे सटीक व्यंग्य हैं। नागार्जुन के लिखे गीतों में सद्यता और अनुभूति के रंगहीन भाव चित्र हैं। 'फूले कदंब डाली-डाली में कंदुक सम झूले कदम्ब-कदम्ब'- जैसे गीत बड़े सुन्दर बन पड़े हैं।
 
नागार्जुन की काव्य की विशेषताओं का उद्घाटन और विश्लेषण भावपक्ष एवं कलापक्ष को दृष्टि में रखकर निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है-

मानव और मानव अनुभूतियों का काव्य

नागार्जुन के काव्य विषय मानवीय जीवन और यह अनन्त रूपात्मक वस्तु-जगत् ही है। वे किसी रहस्य गीत नहीं गाते। उनकी कविता में उनके द्वारा अनुभवित गंध, रूप, रस, शब्द स्पर्श आदि सभी कुछ इसी पृथ्वी के हैं-

बहुत दिनों के बाद 
अब की मैंने जी भरकर भोगे 
गंध, रूप, रस, शब्द, स्पर्श साथ-साथ इस भू पर ।।

नागार्जुन का काव्य मानवीय अनुभूतियों का काव्य है। उससे मानवजीवन के समस्त सुख-दुख, आशा-आकांक्षा, सुन्दरता - असुंदरता आदि प्रतिबिम्ब हैं। उनकी अभिव्यक्ति पैनी है, संवेदनाएँ जीवन्त हैं। यही कारण है कि उनका काव्य मानव की गहराइयों में प्रवेश कर जाता है।
 
नागार्जुन की कविता यथार्थ जीवन का प्रतिबिम्ब है। यही कारण है कि उसमें जीवन के अमृत और विष दोनों ही मिलेंगे। उनका काव्य यथार्थ में मानव को मानवता की निश्चित मंजिल पर पहुँचा सकने में समर्थ है। नागार्जुन की सारी कविता, मानव-जीवन, देश धरती तथा मनुष्य के लिए समर्पित है। अर्थात् वे सच्चे अर्थों में मानव-जीवन और पृथ्वी की कविता हैं- 

देवि ! तुम्हारी वसुन्धरा का वित्ता- दित्ता रत्नाकर है, 
जनयुग का यह रिक्त-हस्त कवि, देव । 
तुम्हारे लिये, आज निज शीश झुकाता है।

प्रखर सामाजिकता 

नागार्जुन की कविता प्रखर सामाजिकता से भरपूर है। मनुष्य समाज में रहकर ही अपना कुशल और कल्याण कर सकता है। अकेले ही सौ वर्ष सकुशल जीना किस प्रकार हो सकता है ? वे तो अधिकाधिक का योगक्षेम और अधिकाधिक का शुभ-लाभ सोचते हैं :

"अधिकाधिक योग-क्षेम, अधिकाधिक शुभ-लाभ अधिकाधिक चेतना 
कर लूँ संचित लघुतम परिधि में असीम रहे व्यक्तिगत हर्ष उत्कर्ष 
अकेले ही सकुशल जी लूँ सौ वर्ष 
यह कैसे होगा, यह क्यों कर होगा ।"
 
नागार्जुन ने अपने काव्य में जिस सामाजिकता को वाणी दी है, वह प्रगतिशील है। वह जीवन को प्रगति पथ पर बढ़ने को प्रेरित करती है। अपनी इस प्रगतिशीलता के कारण ही नागार्जुन शोषित-पीड़ित मनुष्यता का पक्ष लेते हैं और परिवर्तन के द्वारा सुन्दर समाज - रचना की माँग करते हैं। वे अव्यवस्था, विषमता, दुख-दैन्य, शोषण, हिंसा युद्ध, अत्याचार, अन्याय का विरोध करते हुए मंगलमय भविष्य की अभिलाषा करते हैं :

"कैसा लगेगा तुम्हें ? 
जंगली सुअर यदि ऊधम मचाएँ 
तहस-नहस कर डालें फसलें 
देखकर परिवर्तित उत्कृष्ट सुरभि वाली दूधिया बाले 
देखकर भू लुंठित कुचल कनक मंजरिया 
टूक-टूक यदि हो हृदय लोक-लक्ष्मी का 
कैसा लगेगा तुम्हें।
 

लोक समाज केन्द्रित जन काव्य

नागार्जुन की कविता मनुष्य, समाज और लोक-केन्द्रित जनता की कविता है। उनकी कविता के नायक सामान्य जन हैं। प्राइमरी के स्कूल के मास्टर का निम्न शब्द चित्र द्रष्टष्य है

“घुन खास शहतीरों पर की बारह खड़ी विधाता बाँचे।
 फटी भीत है, छत चूती है, आले पर बिसतुइया नाचे । 
लगा-लगा बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट में पाँच तमाचे। 
इस तरह से दुखी मास्टर गढ़ता है आदम के साँचे ।।”
 

बहुरंगी भाव छवियाँ

नागार्जुन की कविता में व्यंग्य की प्रधानता है
नागार्जुन की कविता में जो बहुरंगी सौन्दर्य-चित्र और बहुरंगी भाव-छवियाँ मिलती हैं उनसे हिन्दी कविता अब तक अछूती रही। नागार्जुन किसी परम्परागत बँधी- बँधाई लीक पर नहीं चले। उनकी कविता मुक्त प्रकृति की कविता है। नागार्जुन की कविताओं के समान अन्य किसी की कविता में सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति नहीं मिलेगी। नागार्जुन ने भारत के जन आन्दोलनों के साथ-साथ अफ्रीका, कोरिया, वियतनाम आदि देशों के प्रति भी अपनी कविता में आत्मीयता प्रकट की है। उन्होंने हिन्दी जगत् को सौन्दर्य तथा प्रकृति की अछूती भाव-छवियों से परिचित कराया। इस प्रकार नागार्जुन की कविता का प्रसार व्यक्ति से लेकर समाज और राष्ट्रीय रूप से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय तथा सम्पूर्ण मानवता एवं प्रकृति तक हो गया है। भाव-छवियों तथा सौन्दर्य-चित्रों के निम्न उदाहरण द्रष्टव्य हैं- 

"सिकुड़ गई रग-रग, झुलझ गया अंग । 
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार 
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार 
अचानक उमगी डालों की संधि में छरहरी टहनी 
पौर-पौर में गसे थे टेसूँ 
वह तुम थीं।"
 
यहाँ कचनार मनुष्य की वृद्धावस्था का प्रतीक है। उसको समस्त सौन्दर्य तथा सरसता मुँह बिराने लगी है। इस अपेक्षित जीवन को सहधर्मिणी की एके मीठी बात और तरल स्पर्श सरस बना देता है। काव्य में इस प्रकार की अभिव्यक्ति सर्वथा अछूती रही। निम्न उदाहरण के सटीक एवं मौलिक व्यंग्य सामने आता है। कविता का शीर्षक 'वे' और 'तुम' हैं। 'वे' श्रमजीवी व्यक्ति और 'तुम' आत्म-केन्द्रित व्यक्तिवादी, तथाकथित आधुनिक कवि का प्रतीक है -
 
"वे लोहा पीट रहे हैं, तुम मन को पीट रहे हो, 
वे पत्थर जोड़ रहे हैं, तुम सपने जोड़ रहे हो। 
उनकी घुटन ठहाकों में घुलती है। 
और तुम्हारी घुटन उनींदी घड़ियों में चुरती है।
वे हुलसित हैं, अपनी ही फसलों में डूब गये हैं, 
तुम हुलसित हो, चितकबरी चाँदनियों में खोए हो ।
उनको दुख है, नए आम में मंजरियों को पाला मार गया है। 
तुमको दुख है, काव्य-संकलन दीमक चाट गया है।" 

'बादल को घिरते देखा' कविता से एक उदाहरण और लीजिए। नभ-चुम्बी कैलाश-शिखर पर भीषण जाड़ों में झंझानिल से प्रताड़ित महा-मेघ का लड़ना भिड़ना सर्वथा अछूती अनुभूति है-
 
"मैंने तो भीषण जाड़ों में, 
नभ-चुम्बी कैलाश- शीर्ष पर, 
महामेघ को झंझानिल से गरज- गरज भिड़ते देखा है, बादल को घिरते देखा है।"

बहुरंगी काव्य शिल्प

नागार्जुन ने मुक्तक और आख्यानात्मक दोनों ही प्रकार की कविताएँ लिखी हैं। उन्होंने जहाँ छोटी-से-छोटी कविताएँ लिखीं, वहाँ हजार पंक्तियों तक की भी उनकी कविताएँ हैं। उनकी काव्याभिव्यक्ति छन्दबद्ध और मुक्त छन्द दोनों ही रूप में सफल बन पड़ी है। कवित्त, सवैया और बरवै छन्दों से लेकर आधुनिक छन्द उनके काव्य में मिलते हैं। 'भस्मांकुर' बरवै छन्द में लिखा गया खण्ड-काव्य है। नागार्जुन के मुक्त छन्दों में सुन्दर लय और प्रवाह मिलता है ।
 
नागार्जुन के काव्य का कलापक्ष बहुत समृद्ध है। 'सरलता और सादगी' उनके कवित्व की विशेषता है। उनके काव्य में अलंकारों का घटातोप नहीं मिलेगा।
 

भाषा

नागार्जुन की भाषा बहुरंगी है। उनके काव्य में एक ओर जहाँ जन- भाषा मिलती है, वहाँ दूसरी ओर पंडितों की भाषा भी देखी जा सकती है। उन्होंने जो कविताएँ संस्कृत की क्लासिकल शैली में लिखीं, उनकी भाषा समासगर्भित है। सामान्यतः उन्होंने अपनी कविताओं में सरल और सादी भाषा का ही प्रयोग किया है।
 
अद्भुत व्यंजना के कारण ही नागार्जुन व्यंग्य-शिल्प बन सके। वे भाषा के कुशल शिल्पी हैं। उनका शब्द-भण्डार व्यापक है। प्रत्येक क्षेत्र से उन्होंने शब्दों को चुना है, सैकड़ों नये शब्द उन्होंने गढ़े हैं। नागार्जुन के वाक्य विन्यास पर संस्कृत-कविता की छाप दिखाई पड़ती है। लोक-जीवन के कुशल चितेरे होने के कारण उनकी भाषा भी लोक-जीवन की बहुरंगी भाषा है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि नागार्जुन का काव्य भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से समृद्ध है। उनकी कविता तरुणों की नई पीढ़ी के प्रति समर्पित कविता है। उन्होंने अपनी-कविता में मंगलमय भविष्य का स्वप्न देखा है। नागार्जुन का काव्य मानवीय और मानवीय अनुभूतियों का काव्य है। अतः वह पाठक के हृदय पर गाँसी के तीर के समान सीधी चोट करता है। वह रूढ़ियों एवं पाखण्डों के कंटकों को हटाकर जीवन-पथ साफ करती है। मानव-जीवन का इतना विस्तृत विवेचन और विश्लेषण दूसरे आधुनिक कवियों में वहुत कम मिलेगा। प्रमुख सामाजिकता और गहरा सौन्दर्यबोध उनके काव्य में प्रणधारा बनकर प्रवाहित हुआ है।नागार्जुन के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें अब तक अछूती भाव- छवियों को अभिव्यक्ति मिली है। 

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