लौकी का डिजिटल मेकओवर

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लौकी का डिजिटल मेकओवर गाँव की बेल से यूट्यूब के शेल्फ तक अभी प्राइम विडियो पर वेब सीरीज पंचायत' सीजन का तीसरा भाग खत्म किया। 'पंचायत' की लौकी अब भ

लौकी का डिजिटल मेकओवर : गाँव की बेल से यूट्यूब के शेल्फ तक


भी प्राइम विडियो पर वेब सीरीज  'पंचायत' सीजन का तीसरा भाग खत्म किया। 'पंचायत' की लौकी अब भी गेस्ट अपीयरेंस में अपनी पहचान हमारे दिलों में बनाए हुई है। सच मानो तो लौकी उस ठेठ आंचलिक परंपरा की एक जीवंत मुस्कान लिए हमारे दिलों में छाई हुई है। गाँव छोड़े यूँ तो तीन  दशक से अधिक हो गए , यहाँ शहर में  भी पापा ने एक छोटा सा फार्म हाउस खून-पसीने से तैयार किया हुआ है। वहाँ पापा द्वारा उगाई गयी लौकी, अदरक, टमाटर, नींबू, बैंगन जब भी घर आते हैं, उनकी बनी सब्जियाँ , हमारे गाँव के स्वाद की याद ताज़ा कर देती हैं। सच पूछो तो मॉडर्न ज़माने की किचन गाँव के मिटटी के चूल्हे, फूंकनी,सलबटटा ,पतीले की होड़ नहीं कर सकता! वहा करछुली से लगाई गयी जीरे हींग की छोंक आज कल की कैसी भी दाल तडके को फ़ैल कर दे. आज के इस फास्ट फ़ूड युग में लौकी जिस प्रकार से अपनी फूटी किस्मत पर रोई है, ऐसा कोई और सब्जी नहीं रोई होगी । लौकी की सब्जी देख कर बच्चे नाक् मुह सिकोड़ते हैं , पतियों की बात तो छोड़ ही दीजिए। उनके भाग्य में तो दो ही विकल्प हैं—खाओ या मत खाओ।
लौकी का डिजिटल मेकओवर : गाँव की बेल से यूट्यूब के शेल्फ तक

जब से जिओ बंधुओं ने डाटा की अपार बरसात कर दी है, इसका फायदा उठाते हुए , फूड व्लॉगर्स और रसोइयों की नई पौध ने यूटूब पर लौकी की हजारों रेसिपीज बना डालीं। लौकी के कोफ्ते, लौकी का पनीर, लौकी का परांठा, लौकी का हलुवा और न जाने क्या-क्या! लेकिन वो स्वाद कहीं गाँव की धूल में ही दब गया, क्योंकि अब गाँव में भी धुल को डामर की पक्की सड़कों से दबा दिया गया है । अब गाँवों से शहर में ब्याही बेटियां भी अपनी माँ से सीखी गयी रसोई की परम्पराओं को निभाने में हिचकिचा रही हैं, कहीं समाज पड़ोसी और घर के ही बच्चे उन्हें दकियानूसी करार नहीं दे दें ।

इसलिए आधुनिक रसोई से जूसर-मिक्सर की खर्र-खर्र की आवाज और मॉड्यूलर किचन की चमकदार पेंट पॉलिश की खुशबू ज्यादा आती है, खाने की कम।गाँव के कच्चे मकान की छान पर लटकी हुई कद्दू और लौकी की बेल, वाकई गाँव में उगाई  शब्जिया जो हमेशा रिश्ते-नातों, व्यवहार में आदान-प्रदान का विषय रही हैं। अभी भी आपने बुजुर्गों के मुंह से सुना होगा कि किसी रिश्तेदार से सुख या दुख में मिलने जाओ तो सब्जी लेकर जाना जरूरी है।

यूं तो आधुनिक युग में भी परमपराओं को निभाया जा रहा है लेकिन सब्जियों की जगह, केमिकल से सने फल-फ्रूट, कृत्रिम दूध से बनी स्वादहीन मिठाइयों ने ले ली है, और अब तो सब्जी के नाम पर कुछ मीठा हो जाए की तर्ज पर कैडबरी चॉकलेट के पैकेट भी । आप पैसा खर्च करके वह सोंधी मिट्टी की सुगंध कहां ला पाओगे, जो आपके घर के आंगन में उगाई हुई लौकी दे सकती है।
 
जब भी कोई ऐसा सीजन या मूवी देखता हूँ जो हमें वापस अपनी जड़ों की ओर ले आता है, तो उस निर्देशक की हिम्मत और सोच को धन्यवाद देता हूँ जिसने आज के इस अश्लील मसालेदार गाली-गलौज भरे कंटेंट को छोड़कर कोई शुद्ध देसी भाव से भरपूर कुछ बनाया है ! यह वाकई दिलों की गहराई में बसी उन यादों के तारों को झंकृत करता है। दिल तो फिर बोलेगा ही, वाह भाई वाह!
 
गाँव में सब्जी के लिए अलग से किसी बजट की जरूरत नहीं थी। दलिया , राबड़ी, खीच ,पापड़ा,सालन, कढ़ी ,छाछ, मठा खाने के मैंन कोर्स में होते थे ! गर्मियों में तो आम का पाना , सत्तू वाह क्या कहने !नमक लहसुन और दो पितकाली डालकर पिसी हुई चटनी और आधुनिक डेजर्ट के नाम पर कस्टर्ड ,आइस क्रीम से मुकाबला करता देसी गुड़, बतासे या घी बुरे का जो स्वाद था पूछो मत । कारण था, खिलाने वाले की बोली की मिठास जो उसमें स्वाद घोल देती थी। 

गाँव से लोग शहर की ओर भागने लगे, बेटियों को भी शिक्षित दामाद की चाह में शहर को ब्याहा गया। वे संस्कार जो आंचलिक ग्रामीण में मिले, उन्हें गाँव तक ही छोड़कर जाना मजबूरी हो गई। आजकल जहां गृहिणी की सबसे बड़ी समस्या होती है कि सब्जी में क्या बनाऊं,गाँवों में  इस समस्या से कहीं दूर-दूर तक वास्ता नहीं था। दाल की मंगोड़ी, पापड़, चटनी, अचार, मूंग की दाल की बड़ी, ये सब मेनू का नियमित हिस्सा होता था । वहीं सुबह के नाश्ते में बाजरे की रोटी पर लोनी घी, मक्खन का मजा, और साथ में छाछ राबड़ी का भरा हुआ कटोरा जो लंच, डिनर और ब्रेकफास्ट तीनों में ले सकते थे । सच पूछो तो आजकल बच्चे जितने खाने में चूज़ी हो गए हैं, हमारे ज़माने में तो कभी पूछा ही नहीं जाता था कि आज सब्जी में क्या बनाएं। जो भी बनता था, उसे चट कर जाते और हाँ थाली साफ करना ज़रूरी था। मजाल थी कि अन्न का एक कण भी बच जाए, डांट पड़ती थी कि अन्न देवता नाराज हो जायेंगे ,पाप लगेगा । नमक का कण भी गिर जाता तो मम्मी कहती थीं कि रात में सोते वक्त चींटियां खींचकर ले जाएंगी।
 
गांव की वो सोंधी मिट्टी की खुशबू, वो हरियाली, वो अपनापन और वो सादगी, इन सब की यादें आज भी मन को शांति और संतोष देती हैं। यही सब बातें हैं जो हमें हमारी जड़ों की ओर खींचती हैं और हमें याद दिलाती हैं कि असली खुशी और सुकून हमारे गांव, हमारे लोगों और हमारे संस्कारों में बसी हुई है।

हालांकि जिस तरह फैशन वापस आ जाता है, उसी तरह लौकी ने भी अपनी किस्मत यूट्यूब पर चमका ली है। आधुनिक किचन की चमक-दमक के बीच भले ही गाँव की धूल धुंधली पड़ गई हो, पर लौकी की यदा कदा ही दिखती इन विशुद्ध आंचलिक परिवेश की कहानी कहती हुई वेब सीरीज  में गेस्ट अपीयरेंस हमेशा दिल को छू जाती है। आखिरकार, चाहे वो रसोई हो या रिश्ते, 'पुरानी यादें और परंपराएं' कभी फैशन से बाहर नहीं जातीं, बस उन्हें एक नया पैकेज चाहिए होता है।



- डॉ मुकेश 'असीमित'
दूरभाष नंबर 9785007828
मेल आई डी -thefocusunlimited€@gmail.com
पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ
लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
शीघ्र ही मेरी पहली पुस्तक "नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक" प्रकाशित होने जा रही है।

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