तीखे हुए गर्मी के तेवर | व्यंग्य रचना

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तीखे हुए गर्मी के तेवर व्यंग्य रचना गर्मी वो चीज है जो हर किसी को नंगा करने को मजबूर है. अफसरों की खाली योजनाओं की पोल, चुनावी वादों की पोल सभी तो !

गर्मी के तेवर


र्मी वो चीज है जो हर किसी को नंगा करने को मजबूर है. अफसरों की खाली योजनाओं की पोल, चुनावी वादों की पोल सभी तो ! वैसे इस गर्मी का सूरज अकेला ही जिम्मेदार नहीं, चुनाव की गर्मी भी लोगों के सर चढ़कर बोल रही है. चुनावी नौ तपा तो 2 महीने पहले ही शुरू हो गया था . लगता नहीं 4 जून को भी रिजल्ट की बौछार इसे ठंडी कर पाएगी .क्योंकि फिर गठबंधन की धमाचौकड़ी की गर्मी भी शुरू हो सकती है.”

अभी अभी व्हात्सप्प पर कहीं और से सरकाया हुआ (फॉर वार्डेड)  एक सन्देश पढ़ा, की ‘नौ तपा’ बुरा नहीं है, और ‘नौ तपे’ के फायदों की एक लिस्ट प्रेषित थी, एक सुकून देने वाला सन्देश, सुनकर लगा कि पसीने से तरबतर शरीर में कही किसी ने शीतल फूंक मार दी हो. मैंने सोचा शायद इस सन्देश को अगर ११ लोगों को फॉरवर्ड करूँ तो सूरज नानाजी प्रसन्न हो जाए और अपनी गर्मी की मार को थोडा कम कर दें.वैसे गर्मी कुछ नहीं है मन का वहम है ! ऐसे ही जैसे एक नेताजी ने कहा था की ‘गरीबी कुछ नहीं है मन का वहम है!’ इसी वहम के चलते वही नेताजी एक आम सभा में भाषण के दौरान अपने ऊपर बिसलेरी का ठंडा पानी डाल रहे थे,. गर्मी में दिमाग वैसे भी बौरा जाता है.पीछे से चुनाव की गर्मी और आगे तपता सूरज,आदमी खुद भूल जता है की उसने क्या बोला क्या नहीं!
 
गर्मी अपने प्रचंड स्वरूप में लोगों को अपने रौद्र रूप का दर्शन करा रही है. नाना सूरज भी अपनी तीक्ष्ण किरणों की बौछार से तन मन दोनों को पसीने-पसीने कर रहा है.जितना तेवर गर्मी  दिखा रही है उतनी तो बहु अपनी सास को,कामवाली मालकिन को या भावी देवर को भी नहीं दिखाती है .
 
जनता और धरा दोनों ही त्राहि त्राहि कर रहे है .कही पर भी बरसात रुपी कृपा बरसने के असार नहीं दिख रहे हैं . अरे कोई उस बाबा को पकड़ो जो हरी चटनी या लाल चटनी में लिपटे समोसे खिलाकर अटकी हुई कृपा को हरी बत्ती दिखा दे.
 
बिजली विभाग तत्परता से लगा हुआ है. कहीं ट्रांसफार्मरों के गर्म मिजाज पर ठंडा पानी डालते हुए, कहीं बिजली के टूटे तारों को जोड़ने में व्यस्त है. रोज मकान के सामने से दमकल बिभाग की गाडी सांय सांय करती हुई निकलती है. सुनकर दिल धक्क सा बैठ जाता है ,आज फिर कहाँ आग लगी है? वैसे आग भी आज कल स्वचालित मोड़ पर आ गयी है,आग लगानी नहीं पड़ती अपने आप ही लग रही है . तेल, चूल्हा और गैस सब्सिडी की जरूरत नहीं है . बिना चूल्हे ,केरोसिन और गैस के ही रेत में पापड़, रोटी सेकी जा रही हैं, ऑमलेट पक रहा है. बिजली विभाग भी साम्यवाद लाने पर तुला है. अमीर और गरीब का कोई भेद नहीं मानकर बिजली कटौती करके अमीरों के हाथ में भी बीजनी पकड़ा दी है. 

तीखे हुए गर्मी के तेवर | व्यंग्य रचना
वोल्टेज देखो तो गरीब के घर की दाल रोटी के राशन की तरह कम होता जा रहा है. शाम आते आते तो वोल्टेज ऐसे हांफने लगते है जैसे कोई आई सी यु में भर्ती मरीज है ,जिसका वेंटीलेटर सपोर्ट निकाल कर उसे मरणासन्न अवस्था में छोड़ दिया हो. जहां मोबाइल ने घरों में दूरियां बनायी है, वहीं गर्मी ने परिवार वालों को सबको एक रूम में इकठा कर दिया है .क्यों की वोल्टेज इतने ही है की घर का एक ए सी चल जाए बहुत है. कमरे को भी फ्रिज की तरह दरवाजा बंद करके रखना पड़ता है . एक मिनट भी दरवाजा खोला नहीं की कूलिंग ऐसे गायब होती है जैसे गधे के सर से सींग. अब लू के थपेड़े भी क्या करें !उन्हें भी ठंडक चाहिए, बस इसी फिराक में कमरे में घुसकर अपनी छाती ठंडा करना चाहती है.
 
चुनावी रंगत की चटखाऊ और भडकाऊ ख़बरों से थोड़ी सी निजात मिली की गर्मी की तीखी झुलसी हुई खबरों ने अखबार में झंडे गाड दिए . संस्थाएं भी इस गर्मी में लोगों को शरबत और ठंडा पानी पिला-पिला कर खुद डीहाईड्रेसन से पीड़ित हो गयी है . मगर गर्मी एक क्षण के लिए भी कम होने का नाम नहीं ले रही है. स्कूल में बच्चों की छुट्टियां तो हो गईं, लेकिन मास्टरों को अब परिन्डे बाँधने को और हीट वेव से बचाव की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कड़ी धूप में दौड़ाया जा रहा है.

हीट वेव से बचाव के लिए सरकारी महकमा भी अपने उच्च अधिकारियों और योजना बनाए वाले बुद्धिजीवियों को हडका रहा है.इसी मंशा के पालन के लिए सभी सरकारी एसी हालों में सेमिनार और कार्यशालाएं आयोजित हो रही है, योजनाएं बन रही है.

जल संकट की स्थिति ऐसी है कि सारा जल नदियों, नालों और कुओं से सिमटकर प्लास्टिक बंद बोतलों में आ गया है. प्याऊ के कुछ अवशेष अभी भी शहरों में दिख रहे हैं. लेकिन प्याऊ की दीवारें सिर्फ और सिर्फ संस्थाओं के बड़े-बड़े बैनर पोस्टर लगाने के काम आ रही हैं ,और अंदर उन्हें सार्वजनिक पेशाव घर बना दिया गया है.

सोशल मीडिया पर गर्मी से बचाव के व्हाट्सएप ज्ञान की बाढ़ सी आ गई है. लोग भला  क्या करें, इस ज्ञान की बाढ़ में ही डूबकी लगाकर अपनी गर्मी की तपिश को कम कर रहे है. पढ़े लिखे लोग अपने ज्ञान की भट्टी से तपा तपाया ज्ञान पेल कर इस गर्मी को और बढ़ा रहे हैं. ओज़ोन की परत की हर साल बढ़ती छेद की नाप बतायी जा रही है. आदमी हमेशा से अपने कुकर्मों को ढाँपता आया है. इसे और के माथे मढ़कर अपने आपको बरी कर लेता है. गर्मी है क्योंकि ओज़ोन की परत में छेद है,गर्मी है क्यूँकी ग्लोबल वार्मिंग है. ये जो पेड़ की छाँव, कच्चे मकानों की सुहानी शाम, हरा भरा छायादार आँगन भूलकर हम इन शानो शौकत की झूठी इमारतों में कैद हो गए हैं .कृत्रिम एसी की हवा खुद लेकर बदले में हानिकारक कार्बन उत्सर्जन बढ़ा रहे हैं. इसकी जिम्मेदारी तो सरकार की है न . सरकार ने ही तो अच्छे दिन का वादा किया था .अब वो ही जाकर ओज़ोन की परत की सिलाई करेगी .

ये सूरज की पीली तप्त रश्मियों के प्रहार से कनपटी पर टपकती पसीने की बूंदें अहसास दिला रही हैं उस मजदूर की मेहनत का, जिसके मेहनताने से तुमने दिन में घड़ी भर सुस्ताते हुए एक बीड़ी का बंडल फूंकने और एक कट चाय पीने के पैसे काट लिए हैं. बाकी के रूपए उसकी तरफ इस अंदाज में फेंके हैं कि ‘लो तुम्हारा पसीना सूखने से पहले तुम्हारी मजदूरी दे दी है.’

गर्मियों में ना ,सूरज भी शक्की मिजाज बीवी की तरह हमेशा सर के ऊपर ही बैठा रहता है. सुबह होती ही नहीं है, सीधे दोपहर हो रही है.मॉर्निंग वॉक का नाम भी बदलकर समर वॉक रख देना चाहिए. दिन ऐसे लंबे होते जा रहे हैं जैसे गरीबों की वेदनाएँ, खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे !

जितनी सुख सुविधाएं, लग्जरी से लैस हुई, उतनी निर्भरता बढ़ती चली गई है.गाँव के दिन याद हैं, बिजली सिर्फ और सिर्फ खेतों को सप्लाई होती थी. गाँव में बिजली देते ही नहीं थे .क्योंकि गाँव में लोग जानते ही नहीं थे कि बिजली का बिल भी आता है, कोई मीटर जैसी चीज भी लगती है. लंगर डालने का काम गाँव में बचपन से ही सिखा दिया जाता था. और कोई भूला भटका बिजली बिभाग का अधिकारी जिसकी नयी नयी नौकरी लगी हो , अगर गाँव में बिजली चोरी पकड़ने के लिए आ भी जाता था तो गाँव वाले उसका स्वागत अच्छा-खासा लात घूसों से करके उसे विदा करते थे. हार कर बिजली विभाग ने लाइट देना बंद कर दिया था. शमा को रहम खाकर लाइट देते थे, वो भी इतने वोल्टेज की सिर्फ  एक 100 वॉट का बल्ब आँगन में जला सको, इसके साथ पंखा चला दिया तो पंखे की जैसे शामत आ जाती थी  .बेचारा ऐसे घूमता जैसे कोल्हू में लगा बैल, साथ ही अपनी गर्दन भी ऐसे ही घुमाता.जैसे कह रहा हो , ' मेरे से नहीं होगा भाई, तुम देख लो.'ऐसे में सबसे बढ़िया काम होता था ,दो बाल्टी पानी लेकर छत पर 6 बजे छिड़काव कर देते, 8 बजे तक छत ठंडी हो जाती थी. दिन में तो सोने के अभ्यस्त ऐसे थे कि एक हाथ में बीजनी घूमती रहती थी, दूसरे हाथ से मक्खियाँ चेहरे से हटाते रहते थे और ये दोनों काम के साथ नाक-मुँह से खर्राटे भी ले लेते थे.

गर्मी वो चीज है जो हर किसी को नंगा करने को मजबूर है. अफसरों की खाली योजनाओं की पोल, चुनावी वादों की पोल सभी तो ! वैसे इस गर्मी का सूरज अकेला ही जिम्मेदार नहीं, चुनाव की गर्मी भी लोगों के सर चढ़कर बोल रही है. चुनावी नौ तपा तो 2 महीने पहले ही शुरू हो गया था . लगता नहीं 4 जून को भी रिजल्ट की बौछार इसे ठंडी कर पाएगी .क्योंकि फिर गठबंधन की धमाचौकड़ी की गर्मी भी शुरू हो सकती है. राजनीतिक गर्मी की तपिश की मार आम जन को भी झेलनी पड़ती है. ये जो आहें सुलग रही हैं, सिर्फ मौसम की गर्मी नहीं, ईर्ष्या और हवस की गर्मी भी इसमें शामिल है. गर्मी ने सब को इस हमाम में नंगा कर दिया है.नेताओं के असली चेहरे जो कोहरे में मुँह छुपाने से पर्दा नशी हो रहे थे अब बेपर्दा हो रहे हैं.

हे पैदल चलने वाले राहगीर, तारकोल की सड़कें पिघल रही हैं ,इसमें तेरी चप्पल भी पिघल जाएगी, तेरे प्लास्टिक की झुग्गी-झोंपड़ी पिघल जाएगी, किस से शिकायत करेगा तू ?तूने तेरे वोट की कीमत ,एक बोतल दारू और चंद नोट तो पहले ही ले ली है . 

चलते चलती मैथिलि शरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ याद आ गयी - 
"हे निदाघ! हे ग्रीष्म भीष्म तप! 
हे अताप! हे काल कराल! 
दया कीजिए हम लोगों पर देख हमें अतिश्य बेहाल। 
वैसे ही हम मरे हुए हैं फिर हम पर क्यों करते वार,
मृतक हुए पर शूरवीर जन करते नहीं कदापि प्रहार॥"




- डॉ. मुकेश गर्ग 
गंगापुर सिटी, राजस्थान पिन कोड -३२२२०१  
दूरभाष नंबर 9785007828
मेल आई डी -thefocusunlimited€@gmail.com
लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, व्यंग्य और हास्य रचनाएं
शीघ्र ही पहली पुस्तक "नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक" प्रकाशित होने जा रही है।

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