विज्ञापनों का उपभोक्ताओं पर प्रभाव

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वर्तमान में विज्ञापनों की धूम मची है आज का युग विज्ञापन का युग है विज्ञापनों के विभिन्न रूप विज्ञापन की उपयोगिता विज्ञापन से फैलता भ्रम विज्ञापनों

वर्तमान में विज्ञापनों की धूम मची है


ज का युग विज्ञापन का युग है। प्राचीनकाल में मनुष्य विज्ञापनों से अनभिज्ञ था। बीमारी के समय वह डॉक्टर से दवा का नाम पूछता था, खेती के बीज या खाद के लिये बड़े-बूढ़े किसानों से पूछता था और अन्य वस्तुओं के लिये आपस में पूछ लेता था कि कौन-सी चीज अच्छी और उपयोगी है। पहले उसकी आवश्यकताएँ भी कम थीं, और आज जैसे विज्ञान के सम्पर्क साधन भी नहीं थे। अतः उस समय का मनुष्य विज्ञापनों से दूर था। जैसे-जैसे हम सभ्य होते गए, आवश्यकताएँ बढ़ती गईं, विज्ञान के द्वारा अनेक सुख-साधन जुटा दिए गए, जनसंख्या बढ़ी वैसे-ही-वैसे विज्ञापनों की बाढ़-सी आती चली गई।

विज्ञापनों के विभिन्न रूप

कुछ समय पहले तक विज्ञापन अखबार या सड़कों के किनारे लगे बोर्डों के पर पढ़े जाते थे। आज तो टेलीविजन
वर्तमान में विज्ञापनों की धूम मची है
विज्ञापनों का केन्द्र बन गया है। हर मनुष्य अपने परिवार के साथ मनोरंजन के लिये टेलीविजन के कार्यक्रमों को देखता है। यदि वह एक घण्टे का कोई कार्यक्रम देखता है तो करीब 35 मिनट तो केवल विज्ञापन देखता है। उसे बीच-बीच में खीज भी होती है, लेकिन रुचिकर कार्यक्रम को छोड़कर जा भी नहीं सकता। बार-बार विज्ञापन सुनने या देखने से वह हमारे मस्तिष्क में समा जाता है और एक बार जरूर हमारे मन में आता है कि अमुक चीज खरीद कर देखें। व्यापारिक स्पर्धा के चलते एक ही जैसे अनेक उत्पाद बाजार में आ जाते हैं, फिर उनकी बिक्री विज्ञापनों पर ही आधारित होती है। 

टेलीविजन यन्त्र पर मधुर गीत, भजन, गजलें, सीरियल और फिल्में तो थोड़ी-बहुत देखते ही हैं, उनके साथ ही चाय, तेल, शैम्पू, रंग, ठंडे पेय आदि के विज्ञापनों से लेकर सिर-दर्द की टिकिया तक के विज्ञापन देखने को मिलते हैं। स्थिति ऐसी हो गई है किसी भजन, गीत अथवा गजल सुनते ही अपने आप विज्ञापनों के शब्द दिमाग में घूमने लगते हैं। दूरदर्शन के कार्यक्रम, गीत, भजन तथा गजलें इस तरह विज्ञापनों से जुड़ी हैं कि वे भी अपने आप में विज्ञापन ही लगने लगते हैं। उनका अलग अस्तित्व ही समाप्त हो गया सा लगता है। उदाहरण के लिए, 'सर्फ एक्सिल' का विज्ञापन कुछ इस तरह आता है कि महिला कहती है कि 'सर्फ एक्सिल' से कपड़े का दाग चला जाएगा, पुरुष कहता है कि नहीं जाएगा; तब महिला ने कपड़े को 'सर्फ एक्सिल' में धोकर दिखाया कि दाग चला गया तो पुरुष कहता है कि मैंने तो कहा था कि रंग नहीं जाएगा। अब देखने वाले को यह विश्वास करना पड़ता है कि इस पाउडर से कपड़े पर पड़ा दाग तो चला जाएगा, लेकिन उसका रंग नही उड़ेगा । 

विज्ञापन की उपयोगिता

विज्ञापन के इस युग में हर चीज किसी दूसरी चीज का विज्ञापन बनकर रह गई है। हर चीज का नया मूल्य उभर कर आया है क्योंकि प्रत्येक वस्तु की अपनी विज्ञापन उपयोगिता है। पहले एलोरा और अजंता की मूर्तियाँ कला का उदाहरण थीं। आज के विज्ञापन युग में वे किसी-न-किसी वस्तु का विज्ञापन बनकर रह गई हैं। हमारे जीवन पर विज्ञापनों का बड़ा प्रभाव पड़ता है। विज्ञापन के कारण बाजार में चीजें मँहगी हो जाती हैं, लेकिन हम उनके विज्ञापन से प्रभावित होकर चार गुने या पाँच गुने दाम देकर उन्हें खरीदते हैं। मारुति कार में पेट्रोल कम खर्च होता है इसका विज्ञापन इस तरह दिखाया कि एक सरदार जी पलंग पर बैठे कुछ पढ़ रहे हैं, उसका छोटा बेटा खिलौने की मारुति कार चला रहा है। वह सरदारजी की बाँह पर भी चला देता है तो सरदार जी कहते हैं-बस कर यार ! यह सुनकर बच्चा कहता है-'क्या करूँ पापाजी ? पेट्रोल खत्म ही नहीं होता।' देश में पर्यटकों की रुचि के विभिन्न स्थल हैं। लोगों में भव्य मन्दिरों, किलों, स्तम्भों तथा स्मारकों को देखने की जिज्ञासा उत्पन्न हो, वे वहाँ जायें। उनको देखने में पर्यटकों की ज्ञान वृद्धि तो हो ही, पर्यटन व्यवसाय को भी प्रोत्साहन मिले, किन्तु दिलचस्प बात है कि हर एक चीज चाहे वे मीनाक्षी और रामेश्वरम के मन्दिर हों अथवा कश्मीर की युवतियों का भाव सौन्दर्य या फिर बर्नार्ड शॉ का नाटक, किसी-न-किसी चीज के विज्ञापन से जुड़कर रह गई है। आज उत्तरी-ध्रुव से लेकर दक्षिणी-ध्रुव तक प्रत्येक वस्तु का प्रयोग विज्ञापन के लिये किया जा रहा है।

विज्ञापन से फैलता भ्रम

आज के इस विज्ञापन युग में विज्ञापनों से भागना बहुत मुश्किल है। हमें बाहर दोराहे, चौराहे तथा सड़क के खम्भों पर विज्ञापन लिखे मिलेंगे। सुबह उठकर अखबार उठाएँ तो विज्ञापन और बस में बैठें तो विज्ञापन। कमरा बन्दर कर बैठ जायें तो रोशनदानों के रास्ते विज्ञापन तैरकर अन्दर घुस आएँगे। लगता है जो कुछ भी हम कर रहे हैं या खा रहे हैं या पहन रहे हैं, विज्ञापनदाताओं की सलाह पर कर रहे हैं। हम कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र नहीं दिख रहे हैं।

विज्ञापनों से समाज में भ्रम भी फैलता जा रहा है। इस समय विज्ञापन चरम सीमा पर है। हो सकता है कि दर्शकों को विज्ञापनों के प्रति अरुचि पैदा हो जाए, क्योंकि किसी भी चीज की अधिकता नुकसानदायक है। यह हमारी बुद्धि पर निर्भर करता है कि विज्ञापनों के चक्कर में न आकर सही मार्ग को चुनें।
 

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