मेरा प्रिय उपन्यास गोदान पर निबंध हिंदी में

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मेरा प्रिय उपन्यास गोदान पर निबंध हिंदी में गोदान, प्रेमचंद जी का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। 1936 में प्रकाशित यह कृति, ग्रामीण भा

मेरा प्रिय उपन्यास गोदान पर निबंध हिंदी में


पन्यास पढ़ना मेरा प्रिय विषय है । मेरा दावा है कि हिन्दी का कोई सम्मान्य उपन्यास मेरे पढ़ने से छूटा नहीं है । इन उपन्यासों में मेरा सर्वप्रिय उपन्यास 'गोदान' है । न जाने कितनी बार उसे पढ़ चुका हूँ, पर उसके प्रति मेरी पठन-पिपासा आज भी ज्यों की त्यों बनी है। लगभग एक शतक पूरा हो रहा है जब वह लिखा गया था । इन सौ वर्षों में हिन्दी का साहित्यकाश एक से एक बढ़कर एक सफल श्रेष्ठ उपन्यासों द्वारा उद्भासित हुआ है, परन्तु मेरे लिए "गोदान" अब भी अप्रतिम है । मेरा आशय यह नहीं, कि 'गोदान' से बढ़कर अच्छा मुझे हिन्दी का कोई उपन्यास नहीं लगता । व्यक्तिगत रुचि अरुचियों के लिए तर्क प्रस्तुत करने की अपेक्षा नहीं होती । किन्तु "गोदान' के प्रति मेरा अनुकरण नितान्त तर्कहीन भी नहीं है। यदि उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य कहा जाये तो "गोदान' से श्रेष्ठतर महाकाव्य इस युग में हिन्दी में नहीं लिखा गया । उसकी कथा में विचित्र आकर्षण सा है । जैसा कि एक आलोचक का कथन है, गोदान की कथा इतनी सुसम्बद्ध है और वह इतने स्वाभाविक रूप में विकसित होती है कि उसमें फिल्मी सनेरियो का सा आन्नद आता है । कल्पनाशील पाठक को वह फिल्म जगत में उठा ले जाती है, उनके विकास क्रम में घटनाएँ इस प्रकार अनावृत्त होती चलती हैं कि मानों फिल्म का एक के बाद एक दृश्य अपनी समस्त सजीवता के साथ रजत पट पर घटित हो रहा हो। 'गोदान' प्रेमचन्द की सर्वश्रेष्ठ रचना होने के साथ उनके परिपक्व चिन्तन का निचोड़ है। उसमें उपन्यास के शिल्प-विधान का अन्यतम रूप मिलता है।

गोदान, प्रेमचंद जी का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। 1936 में प्रकाशित यह कृति, ग्रामीण भारत की एक मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करती है, जहाँ किसानों का जीवन ऋण, शोषण और निराशा से घिरा हुआ है।

गोदान उपन्यास की मूल संवेदना 

गोदान में एक ओर गांव का चित्रण है, दूसरी ओर शहर का। एकाध आलोचकों ने ऐसा मत व्यक्त किया है कि प्रेमचन्द ने दो एकदम अलग-अलग समानान्तर कथानकों को कमजोर सूत्रों से एक में बांधने का प्रयत्न किया है, पर वास्तविकता कुछ और ही है। गांव और शहर को एक साथ चित्रित करने में लेखक का एक विशिष्ट उद्देश्य है और वह है अपने युगीन जीवन का अखंड चित्र देना । इसी में गोदान का महाकाव्यत्व भी निहीत है। हम पहले ही कह चुके हैं कि "गोदान' इस गद्य-युग का श्रेष्ठतम महाकाव्य है और वह महाकाव्य ही क्या, जो युग-जीवन को उसकी समग्रता में न ग्रहणकर अखंडशः चित्रित करे। गोदान का उद्देश्य उस महाजनी सभ्यता का भंडाफोड़ करना है जो गांव और शहर दोनों पर एक समान छाती जा रही है और जिसकी काली छाया के नीचे गांव का किसान और शहर का मजदूर दोनों घुट-घुटकर जीवन का दुर्वाह भार ढो रहे हैं। गांव पुरातन भारतीय अवस्था का प्रतीक है और शहर नवीन पूंजीवादी व्यवस्था का, महाजनी सभ्यता का, जो गांव की जमींदारी एवं सामंती अर्थ-व्यवस्था का मूलोच्छेदकर उसकी जगह पर अपनी जड़ें जमा रही है - उन मिल मालिकों, उद्योगपतियों और बैंक अधिपतियों के रूप में, जो शहरी जीवन को अभिशप्त बनाकर अब तेजी से गांवों की ओर बढ़ रहे हैं ।
 
मेरा प्रिय उपन्यास गोदान पर निबंध हिंदी में
गोदान की कथा उसके नायक की जीवन वृत्त मानी जा सकती है। गोदान की अधिकारिक कथा- वस्तु का निर्माण उसी से होता है । होरी भारतीय कृषक-जीवन का प्रतीक है । गोदान की कथा उस कृषक जीवन की दुर्गति और दुर्दशा की कथा है प्रेमचन्द ने 'गोदान' का आरंभ ही ऐसे समय में किया है जब किसान हर तरह से स्वत्वहीन बन चुका है। वह गांव का अधिराजा नहीं रह गया है, वरन् जमींदार के पैरों तले की जूतियाँ बन चुका था। जब कथा आरंभ होती है, होरी के विवाहित जीवन के बीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। उसकी पत्नी धनिया की दशा और मनोस्थिति का चित्र लेखक के शब्दों में देखिये, "अपने विवाहित जीवन के इन बीस वर्षों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी भी कतर ब्योंत करो, कितना भी पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो, मगर लगान बेबाक होना मुश्किल है। "उसकी छ: संतानों में अब केवल तीन जिन्दा हैं, एक लड़का गोबर सोलह का और दो लकड़ियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की । तीन लड़के बचपन ही में मर गये । उसका मन आज भी कहता है अगर उनकी दवा-दारू होती तो वे बच जाते । पर वह एक धेले की दवा भी न मंगवा सकी थी। उसकी भी उम्र अभी क्या था। छत्तीसवां ही साल तो था, पर सारे बाल पक गये थे । चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थी, सारी देह ढल गई थी, वह सुन्दर गेहुँआ रंग संवला गया था, आँखों से भी कम सूझने लगा था । पेट की चिन्ता ही के कारण तो । कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीर्णावस्था ने उसके आत्म-सम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी खुशामद क्यों ?" वह कहती है, “हमने जमींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा, उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाउँ ?" लेकिन होरी "व्यवहार- कुशल" है । वह उत्तर देता है, "इसी मिलने-जुलने का परसाद है कि अभी तक जान बची हुई है, नहीं तो कहीं पता न लगता कि किधर गये । गांव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली. नहीं आई, किसपर कुड़की नहीं आई । जब दूसरों के पांव तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पांवों के सहलाने में ही कुशलता है ।"
 
शोषण के चरम बिन्दु पर पहुंच पर परिस्थितियाँ बदलती हैं, क्रांति का बीज अंकुरित होने लगता है तो ज़मींदार भी बदलने लगता है। वह अपने को समय के अधिक से अधिक अनुकूल बनाने के प्रयत्नों में लग जाता है ।

गोदान उपन्यास का महत्व

"गोदान' की अधिकाधिक कथा में इस प्रकार जहाँ हम कृषक जीवन की करुण कहानी की अनिवार्य परिणति क्रांति के बीजांकुरित होने में पाते हैं, वहीं शहरी जिन्दगी के आमोद-प्रमोद, चुहल, प्रेम चर्चा बौद्धिक सिद्वान्तवादिता, निष्क्रिय वाद-विवाद, आदि मालती, मेहता, खन्ना, तंखा आदि पात्रों के कार्यकलाप में मिलते हैं। प्रेमचन्द पर आपेक्ष किया जाता है कि किसान समस्या की तरह ही शहर के औद्योगिक जीवन है। गोदान की रचना जिस काल में हुई थी उसमे किसानों की ही समस्या प्रमुख थी। देश में औद्योगिकरण की गति बहुत मंद थी और मजदूर हड़तालों की चर्चा यदा-कदा ही सुनाई पड़ती भी । 

गोदान के प्रति मेरी रुचि का प्रधान कारण उसमें वर्णित कृषक जीवन की मार्मिक कहानी है । स्वतंत्रता के ठीक पूर्व भारतीय कृषक जिस दयनीय दशा को प्राप्त हो गया था तथा उसका सजीव चित्रण गोदान के पृष्ठ में सब दिन के लिए अंकित हो गया है।

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