ग्लोबल वार्मिंग का मानव जीवन पर प्रभाव

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ग्लोबल वार्मिंग का मानव जीवन पर प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग के कारण और प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग के कारण बिगड़ा मौसम का मिजाज ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के उपाय

ग्लोबल वार्मिंग का मानव जीवन पर प्रभाव


ज के युग में, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग मानव जाति के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक बन गए हैं। धरती के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि, चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि, समुद्र तल में वृद्धि, और ग्लेशियरों के पिघलने जैसे गंभीर परिणामों के साथ, यह मुद्दा अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

ग्लोबल वार्मिंग, जिसे जलवायु परिवर्तन भी कहा जाता है, पृथ्वी के औसत तापमान में धीमी लेकिन निश्चित वृद्धि को दर्शाता है।यह मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों द्वारा उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों के कारण होता है, जो वायुमंडल में गर्मी को फँसा लेती हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण

वर्षा की मात्रा में कहीं अत्यधिक कमी तो कहीं जरूरत से बहुत अधिक वर्षा, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, समुद्र का बढ़ता जलस्तर, मौसम के मिजाज में लगातार परिवर्तन, पृथ्वी का तापमान बढ़ते जाना, इस प्रकार के भयावह लक्षण पिछले कुछ वर्षों से लगातार नजर आ रहे हैं। पृथ्वी के वायुमंडल के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही वृद्धि के कारण हिमनदों की बर्फ पिघलकर समुद्रों का जलस्तर बढ़ रहा है और इस वजह से आने वाले वर्षों में पहले से ही विकराल पेयजल की समस्या और भी विकट रूप धारण किए हमारे सामने मुँह बाये खड़ी होगी, यह तय लगता है। दरअसल पृथ्वी का निरन्तर बढ़ता तापमान और जलवायु में परिवर्तन समूचे विश्व में आज मानव जीवन के लिए एक गंभीर खतरा बनता जा रहा है। 

ग्लोबल वार्मिंग का मानव जीवन पर प्रभाव
मौसम का बिगड़ता मिजाज मानव जाति, जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों के लिए तो बहुत खतरनाक है ही, साथ ही पर्यावरण संतुलन के लिए भी गंभीर खतरा है। मौसम एवं पर्यावरण विशेषज्ञ विकराल रूप धारण करती इस समस्या के लिए औद्योगिकीकरण, बढ़ती आबादी, घटते वन क्षेत्र, वाहनों के बढ़ते कारवां तथा तेजी से बदलती जीवनशैली को खासतौर से जिम्मेदार मानते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 10 हजार वर्षों में भी पृथ्वी पर जलवायु में इतना बदलाव और तापमान में इतनी बढ़ोत्तरी नहीं देखी गई, जितनी पिछले कुछ ही वर्षों में देखी गयी है।
 
भूमण्डलीय ताप वृद्धि की विकराल होती समस्या के लिए औद्योगिक इकाइयों और वाहनों से निकलने वाली हानिकारक गैसें, कार्बन-डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड, मीथेन इत्यादि प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिनका वायुमंडल में उत्सर्जन विश्वभर में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के बाद से काफी तेजी से बढ़ा है।
 
पृथ्वी तथा इसके आसपास के वायुमंडल का तापमान सूर्य की किरणों के प्रभाव अथवा तेजी से बढ़ता है और सूर्य की किरणें पृथ्वी तक पहुंचने के बाद इनकी अतिरिक्त गर्मी वायुमंडल में मौजूद धूल के कणों एवं बादलों से परावर्तित होकर वापस अंतरिक्ष में लौट जाती है। इस प्रकार पृथ्वी के तापमान का संतुलन बरकरार रहता है लेकिन कुछ वर्षों से वायुमंडल में हानिकारक गैसों का जमावड़ा बढ़ते जाने और इन गैसों की वायुमंडल में एक परत जम जाने की वजह से पृथ्वी का तापमान का संतुलन निरन्तर बिगड़ रहा है।
 
भूमण्डलीय तापमान वृद्धि के भयावह खतरे को इसी से समझा जा सकता है कि उत्तरी ध्रुव पर जहाँ पिछले करीब पांच करोड़ वर्षों से हर समय हर तरफ बर्फ ही बर्फ दिखायी देती थी, वहाँ भी अब भूमण्डलीय ताप वृद्धि के चलते उत्तरी ध्रुव पर भी अब एक मील से अधिक लंबी-चौड़ी पानी की झील नजर आने लगी है। कुछ विशेषज्ञों का तो यह भी मानना है कि अगर पृथ्वी का तापमान इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो इस सदी के अंत तक उत्तरी ध्रुव की बर्फ पूरी तरह से पिघल जाएगी और उस स्थिति में दुनिया भर के अनेक तटीय शहर जलमग्न हो जाएँगे।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण बिगड़ा मौसम का मिजाज

विश्व भर में भूमण्डलीय तापवृद्धि के कारण पृथ्वी के बढ़ते तापमान की वजह से हिमनदों के पिघलने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। ऐसे ही अनेक हिमनदों में से एक 'अलास्का' हिमनद भी तेजी से पिघल रहा है। इस हिमनद के कुछ हिस्से तो पिछले कुछ वर्षों में पूरी तरह पिघल चुके हैं । इसी हिमनद से जुड़ा करीब 54 किलोमीटर लंबा और 5 किलोमीटर चौड़ा 'कोलम्बिया' हिमनद तो पिछले 20 वर्षों में पिघलकर 12 किलोमीटर से भी अधिक पीछे चला गया है और कई स्थानों पर इसकी मोटाई अब बहुत कम रह गयी है। विशेषज्ञों के अनुसार यह हिमनद अब प्रतिदिन करीब 35 मीटर सरक रहा है और इसके हिमशैल छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट-टूटकर गिर रहे हैं। इस प्रकार यह हिमनद अपना आकार खोता जा रहा है। निस्संदेह यह बड़े आश्चर्य एवं चिन्ता की बात है कि यह हिमनद पिछले कुछ ही वर्षों में भूमण्डलीय तापवृद्धि की ही वजह से करीब 25 किलोमीटर क्षेत्रफल से पिघल चुका है। केवल यही नहीं, ऐसे ही न जाने कितने ही हिमनद इसी प्रकार तेजी से पिघलते जा रहे हैं। भू-विज्ञान एवं समुद्र विज्ञान के अनुसार हालांकि हिमनद की हिमशिलाओं का आगे-पीछे सरकना कोई खास मायने नहीं रखता बल्कि यह एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है लेकिन हिमनदों का इस प्रकार तेजी से पिघलते जाना वाकई गहन चिन्ता का विषय है।
 
दरअसल पृथ्वी के वायुमंडल के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि और मौसम के मिजाज में निरन्तर परिवर्तन का प्रमुख कारण है वायुमंडल में बढ़ रही ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा । अब सवाल यह है कि वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा क्यों और कैसे बढ़ रही है ?
 
औद्योगिक क्रांति तथा वाहन इत्यादि तो इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है ही, इसके साथ- साथ वनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जाना भी इस समस्या को विकराल रूप प्रदान करने में अहम भूमिका निभाता रहा है। यह जानना जरूरी है कि पेड़-पौधों द्वारा अपना भोजन तैयार करते समय संश्लेषण की प्रक्रिया में सूर्य की किरणों के साथ-साथ कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस का भी काफी मात्रा में प्रयोग किया जाता है और अगर वनों का इस कदर अंधाधुंध सफाया न हो रहा होता तो कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस का काफी मात्रा तो वनों द्वारा ही सोख ली जाती और तब पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने में ग्रीन हाउस परत इतनी सशक्त भूमिका न निभा रही होती। 

ग्लोबल वार्मिंग से बचाव के उपाय

ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर खतरा है, जिससे निपटने के लिए तत्काल और ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि हमने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए कदम नहीं उठाए, तो परिणाम विनाशकारी होंगे।

हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव लाने और पर्यावरण के प्रति अधिक जागरूक होने की आवश्यकता है। सरकारों, उद्योगों और व्यक्तियों को मिलकर काम करना होगा ताकि टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित किया जा सके।

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