परदा कहानी की समीक्षा | यशपाल

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परदा कहानी की समीक्षा यशपाल परदा कहानी का उद्देश्य परदा कहानी की कथावस्तु सारांश परदा कहानी के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण चौधरी पीरबख्श बबर अलीखा

परदा कहानी की समीक्षा | यशपाल


रदा कहानी यशपाल जी के तर्क का तूफान कहानी संग्रह से ली गई है। इस कहानी में एक ऐसे गरीब मुस्लिम परिवार का चित्रण है, जो निर्धन होते हुए भी अपने पुराने पारिवारिक गौरव को बचाए रखने की कोशिश करता है। इसमें चरित्र नायक की दीन दशा का चित्रण बहुत ही मार्मिक रूप से प्रस्तुत किया है। इस कहानी के द्वारा लेखक ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि धनाभाव व्यक्ति की शक्ति एवं मर्यादाओं को कैसे मिट्टी में मिला देता है।
 

परदा कहानी का उद्देश्य

परदा कहानी यशपाल जी के 'तर्क की तूफान' कहानी संग्रह से ली गई है। इस कहानी संग्रह का प्रकाशन 1943 ई. हुआ था अर्थात् इस कहानी की पृष्ठभूमि है स्वाधीनता पूर्व का भारतीय समाज। इस संग्रह में 17 कहानियाँ संग्रहीत हैं। इन कहानियाँ का मूल स्वर लेखक का प्रगतिशील चिंतन तथा समाज परिवर्तन का आग्रह है। यशपाल जी की धारणा है कि काल बाह्य धारणाओं तथा रूढ़ियों को समय-समय पर छोड़ देने से समाज और साहित्य में परिवर्तन आ जाता है। उनका विचार है कि 'जो विचार अपनी परिस्थितियों से बिछुड़ गए हैं अर्थात् जिन विचारों और नैतिकता को जन्म देने वाली परिस्थितियाँ बदल गई हैं, वे विचार शरीर से बिछुड़ गए जीवनों की भाँति हैं। उनकी स्मृति चाहे जितनी सुखद हो, अभिमान का कारण हो, वे समाज के लिए उपोदय नहीं हो सकत। ऐसी परिस्थिति में तर्क ही मनुष्य का पथ-प्रदर्शक है। साहित्य की पारम्परिक धारणाओं को बदलने की इच्छा उनके मन में है। परिवर्तन क्रांति ही हैं और इस क्रांति के पहले 'तर्क का तूफान' अवश्य ही आयेगा। इस संग्रह की कहानियाँ समस्या प्रधान हैं। ये समस्याएँ वास्तव में पारम्परिक धारणाओं तथा जर्जर रूढ़ियों के कारण पैदा हुई हैं। अत: समाज में अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए इन समस्याओं पर तर्क करना लेखक अनिवार्य समझते हैं। इस संग्रह की 'परदा' कहानी तत्कालीन आर्थिक विषमता का चित्रण करने वाली मार्मिक कहानी है। इसमें लेखक ने निम्न मध्य वर्गीय जीवन की आर्थिक कठिनाइयों का चित्रण कर इस वर्ग के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट की है।
 

परदा कहानी की कथावस्तु सारांश

मनुष्य मन की खोखली कल्पनाओं का पर्दाफाश करने वाली यह कहानी है। इस कहानी का नायक है चौधरी पीरबख्श । उनके दादाजी चुंगी के महकमे में दारोगा थे। तब उन्हें उस वक्त के अनुसार अच्छी-खासी आमदनी हो जाती थी। उनका अपना छोटा-सा पक्का मकान था। वे बहुत ही ऐंठ से रहा करते थे। इसी वजह से लोग उन्हें चौधरी भी कहने लगे थे और वह छोटासा मकान अब हवेली कहलाया जाता था ।

चौधरी अपने पिता- चौधरी इलाहीबख्श-के चार बेटों में से सबसे छोटे थे। उन्हें अपने बड़े खानदान से विरासत में कुल की मर्यादा, हवेली की ठसक और बड़े-बड़े अरमान मिले थे। परंतु अब उनके लिए वह पुरानी ऐंठ रखना बहुत ही मुश्किल हो गया था। चौधरी पीरबख्श की माहवार आमदनी थी सिर्फ 12 रुपये। इस प्रकार अपने दादा से लेकर दो पुश्तों* में परिवार के सदस्यों की संख्या के साथ-साथ पीरबख्श के परिवार में विवशता और गरीबी भी दिन-ब-दिन बढ़ती गई थी। परंतु कुल की मर्यादा में कोई भी परिवर्तन नहीं आया था और चौधरी पीरबख्श की पढ़ाई भी प्राइमरी से आगे न बढ़ सकी थी।
 
परदा कहानी की समीक्षा | यशपाल
शादी के बाद हवेली में रहना मुश्किल समझकर चौधरी पीरबख्श सितवा की कच्ची बस्ती में किराये का मकान लेकर रहते थे। बस्ती में चौधरी पीरबख्श अकेले पढ़-लिखे सफेद पोश थे। खानदान की इज्जत का प्रतीक होने वाला परदा उस कच्चे घर की ड्योढ़ी पर भी लटकता था। कुछ दिनों तक तो 12 रुपये में किसी तरह गृहस्थी चलती रही। लेकिन समस्या खड़ी हो जाती तो घर के बर्तन, जेवर और कुछ सामान बेच-बेचकर गृहस्थी चलानी पड़ती थी। जच्चा-बच्चा की तकलीफ में उन्हें मजबूर होकर बबरअली खाँ नाम के एक पंजाबी खान से दो आना रुपये महीने पर चार रुपये कर्जा लेना पड़ा। 1 रुपया 1 महीने के किश्त के रूप में निश्चित हो गया था। किंतु खर्चा इतना बढ़ गया था कि, चौधरी के लिए यह 1 रुपया देना भी अब बस की बात न रही थी। इसलिए उन्होंने कई बार से अपना मुँह छुपा लिया था। "अंत में खान बहुत ही गुस्सा हो गया ।
 
वह चौधरी के द्वार पर आकर खड़ा हुआ। उसने चौधरी को पुकारा, उन्हें बहुत-सी गालियाँ दीं। इसमें चौधरी के इर्द-गिर्द रहने वाले लोग भी इकट्ठा हो गए। चौधरी पीरबख्श,खान के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगे। उसने अपने पास बिलकुल पैसा न होने की बात खान से बार-बार कही, पर उसे विश्वास न हुआ और गुस्से में खान की ड्योढ़ी का परदा खींच लिया। यह बात चौधरी के दिल के गहरी चोट लगाने वाली थी। वे वहीं पर बेहोश होकर गिर पड़े। 

चौधरी के घर की औरतों के पास अपना पूरा तन ढंकने के लिए भी कपड़े न थे। अचानक गिरने से वे सिकुड़ गईं। इकट्ठा भीड़ ने घृणा और लज्जा से अपना मुँह फेर लिया। ख़ान का गुस्सा तो हवा हो गया। परदा वहीं पर पटककर 'लाहौल बिला' कहकर खाली हाथ वह वापस लौटा।
 
चौधरी पीरबख्श का होश वापस लौटा तो भी उन्होंने गिरे हुए परदे को फिर से उठाकर लगाना न चाहा। शायद अब उसकी आवश्यकता ही न रही थी। परदे में जो छिपाना था, वह अब सबके सामने आ चुका था । 

परदा कहानी के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण

परदा कहानी में कुल आठ पात्र हैं - चौधरी पीरबख्श, उनकी वाल्दा (माँ), पत्नी, तीन लड़कियाँ, दो लड़के और बबर अलीखाँ। इनमें से चौधरी पीरबख्श तथा बबर अलीखाँ ही प्रमुख पात्र हैं। कहानी समस्या प्रधान होने के कारण चरित्रों का सूक्ष्म चित्रण करना लेखक का उद्देश्य नहीं है। फिर भी पात्रों में इतनी सजीवता है कि चौधरी पीरबख्श तथा बबर अलीखाँ पाठकों के समक्ष साक्षात् उपस्थित हो जाते हैं।
 

चौधरी पीरबख्श 

चौधरी पीरबख्श प्रमुख सक्रिय पात्र के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होते हैं। उन्हीं के चरित्र-चित्रण द्वारा कहानीकार ने समस्या पर प्रकाश डाला है।
 
चौधरी पीरबख्श चौधरी इलाहीबख्श के चौथे लड़के हैं। वे प्राइमरी से आगे न पढ़ सके थे। अतः एक तेल की मिल में 12 रुपये मासिक आय पर मुंशीगीरी का काम करते थे। उनके परिवार में छोटे-बड़े मिलकर खानेवाले आठ व्यक्ति थे। इतनी कम आमदनी में पूरे परिवार का गुजारा करना आसान बात तो नहीं थी। फिर भी किसी तरह वे अपने परिवार को चलाते थे। अचानक कोई समस्या खड़ी हो जाती और खर्चा बढ़ जाता तो चौधरी घर के बर्तन, कपड़े तथा जेवर गिरवी रखकर काम चलाते थे। चौधरी पीरबख्श गरीब हैं, लेकिन मेहनती और इज्जतदार हैं। सितवा की कच्ची बस्ती में वे अकेले पढ़े-लिखे सफेद पोश थे और दरवाजे पर परदा भी लगा रहता था। इसीलिए मुहल्ले में उनकी इज्जत थी।
 
चौधरी पीरबख्श एक ऐसे निम्न मध्यवर्ग के व्यक्ति हैं जिनके यहाँ पिछली दो पुश्तों से नौकरी पेशा होता आया है तथा मामूली पढ़ाई का भी सिलसिला रहा है। उनके दादा चुंगी के महकमे में दारोगा थे और पिता इलाहीबख्श डाकखाने में बाबू। उनके दादाजी की आमदनी अच्छी होने के कारण उन्होंने एक पक्का मकान बनवाया था, जो हवेली के नाम से जाना जाता था। परिणामतः पारिवारिक मर्यादा और इज्जत भी पंरपरा से मिली थी। यही कारण है कि वे उस परंपरा के व्यक्ति के रूप में हमारे सामने आते हैं, जो छोटा-मोटा व्यवसाय करने में झिझकते हैं, लेकिन उसी छोटे-से व्यवसाय में नौकरी करने में अपनी इज्जत समझते हैं। तेल की मिल में मुंरीगीरी करना इसी का परिणाम था।

पीरबख्श झूठी मान-मर्यादा को संभालने में जी-तोड़ कोशिश करते थे। कच्ची बस्ती में रहने पर भी घर की औरतों को बाहर का कोई काम करने नहीं देते थे। यहाँ तक कि कमेटी के नल से पानी भरने का काम भी पीरबख्श सुबह-शाम स्वयं ही करते थे।

आमदनी की कमी और बढ़ते खर्च के कारण पीरबख्श की विवशताएँ, दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती हैं। तनख्वाह बढ़कर 18 रुपये मासिक होने के बाद भी गिरवी रखी हुई चीजें भी वापस लाने में असमर्थ हो जाते हैं। अंत में उनकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि दरवाजे पर टांगने का टाट खरीदने के लिए भी पैसे नहीं होते हैं। परंतु घर की मर्यादा बचाए रखने के नाम पर वह पुश्तैनी चीज दरी को टांग देते हैं। प्राय: एक वक्त रूखा-सूखा खाकर, कभी फाका करके चौधरी साहब का परिवार अपनी जिंदगी के दिन पूरे करता करता है। ऐसी स्थिति में तन ढंकने को कपड़े खरीदने की गुंजाइश का सवाल ही नहीं था।
 
बच्चा - जच्चा के कारण बढ़ते खर्च के लिए पीरबख्श को मजबूर होकर बबर अलीखाँ से चार रुपये उधार लेने पड़े। लेकिन एक रुपया महावर किश्त भरना भी असंभव हो जाता है तो पीरबख्श मुँह छिपाकर खान से बचते रहते हैं। खान अपने कर्जे को वसूल न कर सकने पर पीरबख्श को, उनकी औरतों को तथा पुरखों को बेहुदी गालियाँ देता है। पीरबख्श के खून में गरमी आती है परंतु वस्तुस्थिति उन्हें निःसत्व कर देती है। वे खान के हाथ-पाँव पड़ते हैं, उसके लिए दुआ माँगते हैं, इतना ही नहीं तो अपनी खाल उतारकर बेचने के लिए कहते हैं। लेकिन पैसे न मिलने से आग बबूला हुआ खान ड्योढ़ी पर लटके दरी के परदे को झटक लेता है और पीरबख्श बेहोश होकर गिर पड़ते हैं। पीरबख्श ने जिंदगीभर जिस तथाकथित इज्जत को बचाने के लिए जी-तोड़ कोशिश की थी, वह सबके समक्ष रास्ते पर आ जाती है। आँगन के बीच में थर-थर काँपती हुई उसकी अर्धनग्न लड़कियों और औरतों को देखकर भीड़ घृणा और शर्म से आँखें फेर लेती है। उनका मर्यादापूर्ण हृदय और सम्मान दोनों आघात सहन नहीं कर पाता और जब वे मूर्छा से जागते हैं तो परदे को फिर से लटका देने का सामर्थ्य उनमें शेष नहीं रहता।

संक्षेप में अपनी असलियत छुपाकर परम्परागत मान-सम्मान तथा झूठी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए जी-तोड़ कोशिश करने वाले पीरबख्श मुसीबतों में स्वयं फँसते चले जाते हैं, और अंत में कहीं के नहीं रह जाते।
 

बबर अलीखाँ

पंजाबी खान बबर अलीखाँ सितवा की कच्ची बस्ती में साहूकारी का व्यवसाय करता था। लोगों की रहने की जगह भर देखकर वह रुपया उधार देता था। बीकानेरी मोची, वर्कशाप के मजदूर और कभी-कभी रमजानी धोबी बबर मियाँ से कर्ज लेते रहते हैं।
 
पैसों का लेन-देन करने वाले अन्य साहूकारों की तरह खान भी कठोर और निर्दयी है। कई दफा चौधरी पीरबख्श ने खान को सूद की किश्त न मिलने पर अपने हाथ के डंडे से ऋणी का दरवाजा पीटते देखा था। खान उस समय उन्हें शैतान लगता था। खान की दहशत इतनी थी कि पीरबख्श कभी किश्त न दे सकने की हालत में अपने घर के दरवाजे पर फजीहत हो जाने की बात का ख्याल भी करते तो, उनके रोएँ खड़े हो जाते। 

बबर अलीखाँ के हृदय ऋणी के प्रति कोई इंसानियत की भावना नहीं है। पीरबख्श आठ में से सात किश्त समय पर दे देता है। आठवीं किश्त देने में देर हो जाती है और देना असंभव ही हो जाता है तो खान उन्हें धमकाता है कि-  “चार रोज में रुपिया नई देगा, तो अम तुमारा .. कीमा कर देगा।" 

खान हर ऋणी को झूठा और चोर समझता है तथा स्त्रियों को भी गालियाँ देता है। पीरबख्श के घर किश्त वसूलने आया खान ड्योढ़ी पर लटके परदे को ढेल-ढेलकर गालियाँ देता है। पीरबख्श की बीबी के कहने पर भी कि 'चौधरी पैसे लाने बाहर गए हैं' वह विश्वास न कर गाली देता है कि- "नई, बदजात चोर बीतर में चिपा है।" चौधरी के आने पर खान फिर वापस आता है और एक-से एक सड़ती हुई गालियाँ देना आरंभ करता है। ऋणी को बेइज्जत कर तथा डरा-धमकाकर पैसे वसूल करना उसका अंतिम उद्देश्य होता है।
 
पीरबख्श बेबस और लाचार होकर खान के लिए खुदा से दुआँ माँगते हैं तथा अपनी खाल तक उतरवाने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो भी निर्दयी खान उनकी बातों पर विश्वास न कर निर्दयता से ड्योढ़ी का परदा झटक लेता है। खान का उद्देश्य था कि घर की स्त्रियों के जेवर तथा घर के बर्तन ले जाकर पैसे वसूल करें। लेकिन जब सामने का परदा टूट जाता है तो उसकी दृष्टि अर्धनग्न लड़कियों और स्त्रियों पर पड़ जाती हैं और उसकी कठोरता भी पिघल जाती है। वह ग्लानि से झुकता है, परदा आँगन में वापस फेंकता है और गुस्से भरी निराशा से 'लाहौल बिला' कहते हुए असफल हो लौट जाता है। 

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