भूषण की काव्यगत विशेषताएँ | भूषण की राष्ट्रीय भावना

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भूषण की काव्यगत विशेषताएँ


भूषण की काव्यगत विशेषताएँ भूषण की राष्ट्रीय भावना महाकवि भूषण हिंदी साहित्य के रीतिकाल के तीन प्रमुख कवियों में से एक हैं। अन्य दो कवि हैं बिहारी तथा केशव। भूषण ने वीर रस में प्रमुखता से रचना की। उन्हें "कविता के सूर्य" और "काव्य के सातवें ऋषि" के नाम से भी जाना जाता है।भूषण की कविता वीर रस और ओज गुण से ओतप्रोत है। उनकी कविताओं में छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य, पराक्रम और देशभक्ति का मनोभावपूर्ण वर्णन मिलता है।भूषण की कविता ने हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है। उनकी कविताएँ आज भी लोगों को प्रेरणा देती हैं।

कविवर भूषण का जन्म सन् १६१३ ई० में कानपुर के तिकवाँपुर ग्राम में हुआ था। इसके पिता पं० रत्नाकर त्रिपाठी संस्कृत के महान् विद्वान् एवं ब्रज भाषा के अच्छे कवि थे । वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। भूषण का वास्तविक नाम क्या था ? इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती। एक दोहे से विदित होता है कि चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्र ने इन्हें 'भूषण' की उपाधि दी थी । कदाचित् कालान्तर में ये भूषण के नाम से इतने विख्यात हुए कि इनका वास्तविक नाम विलुप्त हो गया। इनके जीवन का प्रारम्भिक चरण अकर्मण्यता से ग्रसित था, परन्तु एक भाभी के कटु व्यंग्य ने इनका जीवन बदल डाला। ये मर्माहत हो घर से निकल गए। कहाँ गये, कैसे रहे, उसका कुछ पता नहीं चलता, पर जब ये दस वर्षों के बाद घर लौटे तो इनमें पांडित्य एवं कवित्व-शक्ति थी, जिसका राजाश्रयों में उत्तरोत्तर विकास हुआ। ये कई राजदरबारों में रहे, परन्तु इन्हें सन्तुष्टि न मिली। अन्त में मनोवांछित आश्रयदाताओं के रूप में वीर शिवाजी व छत्रसाल मिले। इन दोनों राजाओं ने भूषण को पर्याप्त सम्मान दिया। 

मृत्यु सन् १७१५ ई० के लगभग इनकी मृत्यु हो गयी।

भूषण की रचनाओं के नाम

रचनाएँ- भूषण की कीर्ति के आधार स्तम्भ उनके तीन काव्य-ग्रन्थ हैं - (१) शिवराज भूषण, (२) शिवा बावनी, (३) छत्रसाल दशक । शिवसिंह सरोज ने 'भूषण-हजारा' व 'भूषण-उल्लास' नामक दो अन्य रचनाओं को भी भूषणकृत माना है, परन्तु उनका यह मत प्रमाणपुष्ट नहीं है।

भूषण की काव्यगत विशेषताएँ

महाकवि भूषण की रचनाओं में निम्नलिखित काव्यगत विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं - 

भूषण की राष्ट्रीय भावना

भूषण के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता उनकी राष्ट्रीयता है । यद्यपि रीतिकाल के अन्य कवियों की भाँति ये भी राजाश्रित कवि थे और इन्होंने भी अपने आश्रयदाताओं का यशोगान किया है, परन्तु इनकी मनोवृत्ति उनसे भिन्न रही है। इन्होंने वीर शिवा तथा छत्रसाल को हिन्दू संस्कृति के रक्षक के रूप में देखा है, इसीलिए उन्हें अपने काव्य का नायक बनाकर उनकी प्रशस्ति की है। भूषण की कविताओं ने उस सम्पूर्ण राष्ट्र को चेतना प्रदान की । उनकी रचनाओं की यही विशेषता उनको राष्ट्रीय कवि कहने के लिए बाध्य करती है। 

वीर रस की मार्मिक व्यंजना

भूषण की काव्यगत विशेषताएँ | भूषण की राष्ट्रीय भावना
उनके काव्य की दूसरी विशेषता वीर रस की अभूतपूर्व व्यंजना है। वीर रस को उद्दीप्त करने वाले सम्पूर्ण तत्त्व इनकी रचनाओं में विद्यमान् हैं। अनेक पद्य में शिवाजी की वीरता एवं उनका मुगलों पर आतंक बहुत प्रभावशाली रूप में चित्रित हुआ है; जैसे- 

गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर, 
दावा नाग जूह पर सिंह सरताज को। 

युद्ध में छत्रसाल की बरछी के कमाल द्रष्टव्य हैं- 

भुज भुजगेस की वै संगिनी भुजंगिनी-सी, 
खेदि-खेदि खाती दीह दारुन दलन के। 

भूषण ने शिवाजी एवं छत्रसाल की वीरता का वर्णन युद्ध-क्षेत्र में नहीं, अपितु दया, दान, धर्म आदि क्षेत्रों में भी किया है। वीर रस के साथ रौद्र एवं भयानक रसों का वर्णन भी स्वाभाविक रूप में हुआ है। बीभत्स रस युद्ध-स्थलों पर स्वतः आ जाता है। वस्तुतः शृंगार रस के भी कई छन्द मिलते हैं, पर उनमें वह सौन्दर्य नहीं, जो वीर रस के पदों में है। भूषण की कविता ओज की साक्षात् मूर्ति है ।
 

राष्ट्रीय गौरव

भूषण जैसे स्वाभिमानी कवि के लिए राष्ट्रीय गौरव को धारण करना स्वाभाविक ही था। भूषण ने राष्ट्रीय संस्कृति पर विदेशियों द्वारा किये गये कुठाराघातों को अपनी आँखों से देखा था। भूषण का स्वाभिमानी हृदय इसे सहन नहीं कर सका। मथुरा के मन्दिरों पर मस्जिदों का निर्माण हो रहा था, काशी की कला का गला घोंटकर भारतीय संस्कृति का अपमान किया जा रहा था। यह सभी तलवार के बल पर हो रहा था; अतः राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए अभेद्य कवच के समान अपनी लेखनी को ग्रहण कर भूषण मैदान में उतरे । निर्भीक होकर अत्याचारी और मदान्ध मुगल सम्राट् औरंगजेब की कपटपूर्ण काली करतूतों पर मजबूत रोक लगायी । 

भूषण के काव्य का कला पक्ष  

भूषण का कलापक्ष भी इतना उच्चकोटि का है कि उनके भावपक्ष और कलापक्ष में से कौन बढ़कर है यह कह सकना कठिन है।
 

भूषण की भाषा

उनकी भाषा में इतनी व्यंजकता एवं ओजस्विता है कि उसमें वीर रस का गर्जन सुनायी पड़ता है- 

इन्द्र जिमि जंभ पर, बाड़व सुअंभ पर, 
रावण सदंभ पर रघुकुल राज है । 

भूषण की वीर रस की कविताओं में ब्रज भाषा के इस कुशल प्रयोग को देखकर विद्वानों के इस कथन में शंका होने लगती है कि ब्रज भाषा केवल शृंगारिक कविता की भाषा है। भूषण के काव्य में प्रयुक्त ब्रज भाषा पूर्णतः शुद्ध ब्रज भाषा नहीं है, अपितु उसमें बुन्देलखण्डी, अवधी, अपभ्रंश, तत्कालीन अरबी और फारसी के शब्दों का भी योग है। ब्रज भाषा के अन्य कवियों की भाँति इच्छानुसार तोड़-मरोड़ एवं शब्द गढ़ने की प्रवृत्ति भी उनमें दिखायी पड़ती है। भूषण ने लोकोक्तियों व मुहावरों के प्रयोग द्वारा भाषा एवं भाव में चमत्कार उत्पन्न किया है; यथा - "सौ-सौ चूहे खाइ कै बिलारी चली हज्ज को”, “तार सम तोरि मुँदि गये तुरकन के” का सफल प्रयोग हुआ है ।

अलंकार 

भूषण के काव्य में उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा, यमक, व्यतिरेक, ब्याजस्तुति, अनुप्रास आदि अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक रूप में हुआ है। यमक का एक उदाहरण द्रष्टव्य है- 

ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहनवारी, 
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाति है। 

शब्दालंकारों के समावेश के चक्कर में उन्होंने शब्दों की तोड़-मरोड़ अवश्य की है, जिससे भाषा क्लिष्ट हो गयी है। परन्तु इनकी भाषा में ओज, प्रवाह निरन्तर बने रहे हैं; जैसे- 

पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर, 
तेरी बरछी ने बर छीने हैं, खलन के । 

शैली

इस प्रकार भूषण की शैली अति प्रभावोत्पादक, चित्रमय, ओजपूर्ण, ध्वन्यात्मक एवं बहुत सशक्त है। उनकी शैली युद्ध-वर्णन में प्रभावपूर्ण एवं ओजस्विनी तथा दानवीरता और धार्मिकता के चित्रण में प्रसादयुक्त है।
 
निष्कर्ष 
अस्तु, भूषण की कविता भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ है तथा हिन्दी के वीर रसात्मक काव्य में अद्वितीय स्थान की अधिकारिणी है । 

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