एक चुप भली | हिंदी कहानी

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एक चुप भली सुबह अखबार लेकर सामने बरामदे में बैठी ही थी कि बुढ़ऊ आ गए।बुढ़ऊ पढ़ोसी हैं। मेरे घर के ठीक सामने घर है उनका। नीचे दुकान,ऊपर मकान वाला घर। दुका

एक चुप भली

सुबह अखबार लेकर सामने बरामदे में बैठी ही थी कि बुढ़ऊ आ गए।बुढ़ऊ पढ़ोसी हैं। मेरे घर के ठीक सामने घर है उनका। नीचे दुकान,ऊपर मकान वाला घर। दुकान तो भरी ही रहती है सामानो से। मकान का बहुतेरा हिस्सा भी अंटा रहता है सामानों से। थोक व्यापार है इनका। दूध और दूध से बनी चीजों का, शीतल पेय का, फलों के रस का, हल्के फुल्के भोज्य पदार्थों का...बिस्कुट, आलू चिप्स, भुजिया, नमकीन सेव,दाले, वगैरह। सुबह से ही सामानों से लदी गाड़ियाँ आने लगती हैं। गाड़ीवाले सामान उतारते हैं। उतारे हुए सामानों की सूचि दुकान में बैठे व्यक्ति को देते हैं। वह सामान पाने की स्वीकृति का पुर्जा देता है। गाड़ी चली जाती हैं।
 
घर में सभी लगे हुए हैं इस कारोबार में। तडके सुबह से लेकर रात गए तक कारोबार। पहले सामान आपूर्ति करने वालों की गाड़ियाँ, फिर फुटकर विक्रेताओं की गाड़ियाँ,बाईकें, जो यहाँ से सामान ले जाकर अपनी छोटी मोटी दुकानों में बेचते हैं। फिर इतर ग्राहक भी। सारे दिन भीड़ भाड़,हड़बोग, हलचल। काम सबके बंटे हुए हैं। बेट,े नाती पोते लेन देन के भारी काम संभालते हैं। महिलायें अक्सर दोपहर मे काउन्टर संभालती हेैंं। बुढ़ऊ दूध और दूध से बनी चीजों का कारोबार संभालते हैं।

एक चुप भली | हिंदी कहानी
बुढ़ऊ हल्के फुल्के शरीर के हैं। मंझोला कद। सामान्य सांवली सूरत शकल। हमेशा पाजामा और गंजी में। गंजी के ऊपर कमीज ,जब काफी ठंड हो, या कहीं बाहर जाना हो। मगर वे प्रायः बाहर जाते ही नहीं। दुकान के सामने कुर्सी डाले बैठे रहते हैं। उनकी छवि कंजूस, कड़ियल बुढ़ऊ की है जो किसी से ज्यादा बात करना पसंद नहीं करते। अपने जैसे बूढ़ों से तो कभी नहीं। मगर वे मुझसे बात करना खूब पसंद करते हैं। धर्म कर्म आध्यात्म की नहीं, न ही राजनीति की, न मुहल्ले में होने वाली हलचलों की। न रोग बीमारी की। रोग बीमारी उन्हें होती ही नहीं। उनकी बातचीत का मुख्य विषय होता है, पैसा, चोरी और बेईमानी।

उनकी दूधवाली गाड़ी आती है सुबह तड़के पाँच बजें। वे पाँच बजे से पहले ही उठकर तैयार होकर दुकान में बैठे रहते है। टी.वी. में पुराने फिल्मी गाने सुनते। एकदम मद्धम आवाज में। गाड़ी आती है। गाड़ीवाले सामान उतारते हैं। उन्हें सामानो की सूचि देते हेैं। वे सामान मिलान करते हैं। सामान रखवाते हैं। अपनी डायरी में नोट करते हैं। तब तक ग्राहको का आना शुरू हो जाता हेै। वे ग्राहकों से निपटते हैं। अब तक उजाला हो चुका है। सड़क में आवाजाही शुरू हो चुकी है। वे सामने कुर्सी डालकर बैठ जाते हैं।

उजाला होते ही मैं अपने घर के सामने का दरवाजा खोलती हूँ। सामने पड़ा अखबार उठाकर वहीं कुर्सी पर बैठ पढ़ने लगती हूँ। वे अपनी दुकान के सामने बैठे हैं। मेरा दरवाजा खुला देख आ जाते हैं। दरवाजे के सामने खड़े रहते हैं ताकि अपने ग्राहकों पर नजर रख सके। खड़े खड़े बतियाने लगते हैं...
क्या खास समाचार है?
अब कोई खास समाचार नहीं रहता चाचाजी.....मैं कहती हूँ.... अब तो अखबार विज्ञापनों से भरा रहता है। समाचार तो खोजना पड़ता है।
विज्ञापन पर ही तो अखबार चलते हेैं....वे कहते हैं। इधर तो संवाददाता भी तभी बनाये जाते हैं, जब वे विज्ञापन लायें। समाचार लाओ न लाओ विज्ञापन लाओ। समाचार तो बना लिये जाते हैं।
समाचार पत्रों की तो गरिमा ही चली गई...मैं कहती हूँ।
गरिमा अब जीवन से ही चली गई.....वे कहते हैं....दरअसल कभी थी ही नहीं। गरिमा कहो,रौब कहो, रुतबा कहो, सब पैसे से होती है। मेरी उमर अस्सी बरस हेै। पूरी जिंदगी मैंने पैसे का ही महत्व देखा हेै। आदमी कैसा भी हो चोर उचक्का, फरेबी बदमाश, बस उसके पास पैसा हो, सब इज्जत करने लगते हैं।
इसीलिये आप इस उमर में भी पैसा कमाने में लगे हैं।
पैसा नहीं कमाओगे तो पूछेगा कौन? घर में ही कोई नहीं पूछेगा।

आप क्या कमा रहे हैं। मजे कर रहे हैं। दूध वाली गाड़ी आती है, दूघ देकर चली जाती है। ग्राहक आते हैं, दूध के पैकेट लेते हैं। पैसे देते हैं। चले जाते हैं। आप तो बैठे बैठे पैसा बरसा रहे हैं।

बैठे बैठे पैसा बरसा रहा हूँ मैं? क्या झेल रहा हूँ, मैं ही जानता हूँ। एक एक नौकर बेईमान है। सबेरे जब दूध के पैकेट उतारे जाते हैं, ये कामवाली लड़कियाँ दुकान में पैकेट जमा कर रखती है, तब एक दो पैकेट पास खड़ी हमारी गाड़ियों के नीचे खिसका देती हैं। ड्राईवर जब उन गाड़ियों़ में हमारी खाली बोतलें वगैेरह लदा कर ले जाता है तो गाड़ियों के नीचे पड़े पैकेट उठाकर गाड़ी में एक तरफ रख देता है। गाड़ी चलाते हुए चुराये हुए पैकेट किसी लड़की के घर छोड़ देता हेै। बाद में सब मिलकर बाँट लेते हैं। ऐसे ही बिस्कुट, नमकीन, चिप्स,वगैरह के पैकेट पार करते हेैंं ये लोग। बोतलें तक। इतनी नजर रखता हूँ, तब भी चकमा दे देते हैं। सुबह से खून का घूंट पीता रहता हूँ मैं। तुम समझती हो फालतू बैठे पैसा बरसा रहा हूँ?

खून का घूट क्यों पीते रहते हैं। निकाल बाहर करिये ऐसे चोरों को।
नहीं निकाल सकते भाईं। दूसरे दुकान वाले इन्हें हाथों हाथ ले लेंगे। सब जानकर भी चुप रहना पड़ता है।
छोड़िये चाचाजी, नौकर लोग तो छोटी मोटी चोरी करते ही हैं ।
नौकर लोग? बड़े लोग भी। उस दिन वो फलों का रस वाली कंपनी का ऐजेंट साफ कह दिया कि पिछली खेप का पैसा नहीं दिया गया है। वह तो मेरा पोता बड़ा होशियार, रसीद की फोटो कापी रख ली थी। माना तो, मगर इतना हड़का। हम चुप लगा गए। पहले भी गड़बड़ किया है।
चुप क्यों लगा गए? कंपनी के मालिक से शिकायत नहीं की?
वह तो एक नंबर का चोर। हर पैकेट का वजन कम। पैकेट में लिखा है पँाच सौ ग्राम। तौलो तो निकलेगा चार सौ नब्बे ग्राम। सौ ग्राम के पैकेट में पिचान्बे ग्राम मामूली बात है।  सभी कंपनियों का ऐसा ही हाल हेै। कारोबार चलाना है तो चुप लगा कर बेैठो।

आप ये क्या राम नाम भजने की उमर में चोरों बेईमानों में आँखें गड़ाये ताकते खून सुखा रहे हेैं!

बेईमानी से बचकर जाओगे कहाँ। कुछ बेईमानी तो ऐसी है कि एकदम  मुँह सीकर रहना पड़ता है। तुमसे क्या बताऊँं। तुम तो जानती हो मेरी पत्नी को गहनों का कितना शौक था। गहनों से दमकती रहती थी वह। बीमारी में उसकी सेवा के लिए हमारी बेटी आई थी। उसकी जब अंतिम सांस निकली, मैं और बेटी उसके पास थे। बेटी की रूलाई फूट पड़ी। मैं बोला....संभाल बेटी स्वयं को। माँ के शरीर से गहने उतार ले। अभी सब आ जायेंगे, तो गहने उतारते नहीं बनेगा। बेटी रोते रोते गहने उतारने लगी। गहने उतारकर बड़े से रूमाल में बाँधकर पोटली मुझे दे दी। मैंने चुपचाप सेफ में रख दिया। तेरहवीं निपटने के बाद मैंने पोटली खोली। कुछ कमी सी लगे। चूड़ियाँ, कंगन हार झुमके अँगूठिया, नाक की लौंग, सब तो थे। फिर कमी क्यों लग रही है। सोचते सोचते ध्यान आया, झुमकों के ऊपर चमचमाती लड़ी थी जो वह बालों में खांेचती थी। आधे तोले की तो जरूर रही होगी। पोती को उलझन बताई। पोती मेरी बड़ी होशियार। फौरन ताड़ गई.....”दादाजी,.बुआजी नें निकाली है।“ बताओ मेरे सामने गहने उतारे। रूमाल में बाँधे। मुझे दिया। कब गायब कर दिया। आज तक किसी को नहीं बताया। फकत चोरी और बेई्रमानी की दुनिया हेै ये तो। चाहे कारोबार हो या साधारण जीवन व्यापार। वह तो मेरे पोते पोती हेैं, एकदम पकड़ लेते हैं।

पोते पोती की होशियारी ही उनका जीवन टॉनिक है। ऊर्जा से भर जाते हैं वे उनकी होशियारी बताते। मैं उन्हे नहीं बता सकती कि जब उनके ये होशियार पोते पोती मेरे कंप्यूटर केन्द्र में कंप्यूटर सीखने आते थे तो पहले तो मुझ गरीब की फीस ही नहीं दिये थे। बार बार टोकने पर आखिरी दिन नकली नोट धरा कर चले गए थे। प्रिय पाठक मेरी जगह आप होते तो क्या आप बता देते।..  


- शुभदा मिश्र
14,पटेलवार्ड, डोंगरगढ़(छ.ग)

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