और चेतना जागी | हिंदी कहानी

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और चेतना जागी हिंदी कहानी ऐंबुलेंस से उतरती हूँ, देखती हूँ साक्षात् अंबानी अदानी खड़े हैं अपने पूरे तामझाम के साथ। अपनी खानदानी गरिमामय विनम्रता से हाथ

और चेतना जागी


सुबह तड़के ही मीनू का फोन आ गया...बड़ी बुरी खबर है दीदी।
क्या?
रात मुरली भैया कुयें में कूद गये। 
हाँय, यह क्या हो गया?
अभी मैं ठीक से कुछ नहीं बता सकती। परिवार के सब सदस्यों को खबर कर दी गई है। अस्पताल ले गए हैं उन्हें.....मीनू ने फोन रख दिया।

उस परिवार से मेरा पुराना गहरा संबंध। घर मे ताला लगाकर भागी मुरलीभैया के घर। इस मीनू ने यह भी नहीं बताया, भैया जीवित हैं या नहीं।

पहुँची उनके घर। परिवार के अन्य सदस्यों के घरों की महिलायें पहुँच चुकी थीं। सभी प्रौढ़, प्रबुद्ध। गमगीऩ। सभी मुरली भैया की भाभी होती हैं।एक कोने में मुरली भैया की वृद्धा माँ छाती पकड़कर निशब्द रोती हुई। उन्हें मैं ताईजी कहती हूँ। ताईजी की बगल में उनकी बहू मंजुला। उनके दूसरे बेटे की पत्नी। मुझे देखते ही मंजुला कुर्सी छोड़ उठ खड़ी हुई। मैं ताईजी के पास पहुँची। एकदम लिपटा लिया उन्हें। वे मेरे सीने में मुँह गड़ाकर हिलक हिलक कर रोने लगीं...मेरा लाल, मेरा मुरली मेरे सामने चला गया, मैं बगल में सोती ही रह गई दीदी... इस परिवार के छोटे बड़े सब मुझे दीदी कहते हेैंं। परिवार की दीदी।

मैं उनकी पीठ सहलाती रही। वे कलपती रहीं....कैसे उठकर गया होगा दीदी, वह तो उठबेैठ भी नहीं सकता था। कैसे दरवाजे तक चला होगा। कैसे दरवाजा खोला होगा। आँगन की सीढ़ियाँ उतरा होगा। कुयें तक गया होगा। कुयें की दीवार पर चढ़ा होगा। कुयें में झाँका होगा, भगवान को याद किया होगा। मुझे भी, अपनी प्यारी माँ को भी। कैसे... कैसे... कैसे....इतनी इतनी हिम्मत जुटाई होगी। उस बीमार जर्जर शरीर में जोर लगाया होगा। मरने के लिये। मरने के लिये कि यही मेरे लिये  रास्ता हेेै...बहुत बुद्धिमान था। बहुत ज्ञानी। समझ गया था...मेरे लिये यही रास्ता हेेेै...

मैं बगल की कुर्सी पर बैठ गई, उन्हें अपने से चिपटाये। सहलाती रही। मंजुला खड़ी खड़ी ही बताने लगी....आधी रात का समय था दीदी। ढाई बजे रहे होंगे। ये अक्सर इसी समय पेशाब जाने के लिये उठते हेैंं। इनकी नींद खुली ही थी कि धम्म की जोरदार आवाज हुई मानो कोई पेड़ कटकर गिरा हों। क्या हुआ, कहीं सामने का नीम का पेड़ तो नहीं गिर गया, देखने के लिये बाहर जाने लगे। मोबाईल हाथ में था। मुरली भैया के कमरे तरफ से गुजरे तो लगा, बिस्तर में भेैया नहीं हैं। पास जाकर देखा, बिस्तर खाली। बगल के बिस्तर में माँजी सोई पड़ीं। आँगन तरफ का दरवाजा खुला पड़ा। भागे आँगन की ओर। कुयें के सामने भैया की दोनो चप्पल रखी हुई। कलेजा मुँह को आ गया। कुयें में मुँह डालकर आवाज दी...भैया...भैया... बस डब डब सी आवाज। मोबाईल पास में था ही,उसी दम पुलिस को फोन कर दिये। पुलिस फौरन आई। एक पुलिसवाला तो धम्म से कुयें में ही कूद गया।  आनन फानन में ही निकाल लिया। पेट में पानी भर गया था, मगर सांस चल रही थी। पुलिस ही अस्पताल ले गईं। ये सब भाईयो को खबर  किये। अभी सभी भैया अस्पताल में हैं।

अभी क्या हाल है?
उम्मीद नहीं है...कह रहे हैं।
अच्छी अच्छी सोचो... खानदान की बड़ी भाभीजी कहने लगीं...वह तो कहो मुरली देवरजी को बचपन में तैरने का शौक था। बचपन में रोज चले जाते थे तालाब तैरने। शायद कुये में कूदने के बाद कुछ देर तैरे भी हों।

जो हाथपैर नहीं चला सकता था वह भला क्या तैरा होगा बड़ी भाभी...

हाथ पैर तो बाद में सुन्न हुये, बुद्धि काफी पहले से गड़बड़ा गई थी। अक्सर आत्महत्या की बातें किया करते थे...”आत्महत्या पाप है। आत्महत्या करनेवाले की अत्मा भटकती रहती है।“  असल में तो आत्महत्या का विचार भीतर घुसा हुआ था उनके। द्वंद्व चल रहा था उनके भीतर...।

भाभियाँ बतियाती रहीं। मंजुला. किसी काम से घर के भीतर गईं। मैं भी धीरे से चली गई। धीरे से ही पूछा...कोई बात हो गई थी क्या मंजुला?

मंजुला एकदम बिलबिला उठी...कोई बात नहीं दीदी चाहे मुझसे मेरे बच्चों की कसम ले लो। इतना पढ़ा लिखा आदमी। बेकार बैठे रोटियाँ तोड़े। इतने बरसों से इन्हें ढो ही रहे थे। तिसपर ऐसी बीमारी धर ली कि बिस्तर ही पकड़ लिये। हमारी कमाई तो आप जानती ही हैं। तिस पर भी ये जितना बन सके, करते ही थे। दवा दारू इलाज में कोई कमी नहीं किये। मगर हम पर तो कलंक लगना ही हेै न। यह आदमी हम पर कलंक लगाने के लिये ही जिंदा था। मैं तो कहती हूँ लगे कलंक, अब  निपट ही जाये।

सामने कमरे में धीरे धीरे बतियाती भाभियाँ अब बेचैन होने लगी थीं। सुबह का समय। घर का सारा काम पड़ा है। जब तक अस्पताल से कोई घातक खबर आती है तब तक जितना काम निपटा सकें, निपटा ही लें। वे चलने लगीं बोलीं...मंजुला कोई खबर आये तो हमें फोन करना।

मुझे खबर करने वाली मीनू जा चुकी थी। उसका घर इस घर से सटा हुआ हेेै। ताईजी को जितनी सांत्वना दे सकती थी, दी मैंने।ं मीनू के घर में घुसी...मीनू, आगे की स्थिति तुझे ही संभालना है। मंजुला का दिमाग ठिकाने का नहीं है। आखिर तू भी तो इस परिवार की बहू है।

और चेतना जागी | हिंदी कहानी
समझाकर घर आ गई। जल्दी जल्दी काम धाम निपटाने लगीं। दिमाग में अंधड़ मचा हुआ था। सचमुच कईबार बहुत नामी खानदान का होना भी अभिशाप हो जाता है। अगर मुरली भैया इतने बड़े खानदान से संबंधित नहीं होते तो मेरा ध्यान जरूर उनकी पीड़ाओं पर गया होता। सचमुच बहुत नामी खानदान है इन जरीवालों का। दरअसल जरीवाला फर्म के जनक मनसुखप्रसाद जरीवाला थे ही अद्भुत व्यापारी बुद्धि वाले। बहुत बढ़ा लिया था अपना कारोबार। मेरे स्वर्गीय पिता इनकी फर्म के कानूनी सलाहकार थे। मनसुख प्रसाद जरीवाला जी का हमारे घर आनाजाना लगा रहता था। समय के साथ पिताश्री और मनसुखप्रसादजी की दोस्ती गहरी होती गई। एक दूसरे के दुख सुख के सच्चे साथी। पर्व त्योहारों में महिलायें भी एक दूसरे के घर आने जाने लगीं। मृत्यु के पहले मनसुख प्रसादजी ने अपने चारों पुत्रों में अपनी धन जायदाद का यथोचित बटवारा कर दिया था। किसी बेटे को राईस मिल, किसी को ऑयल मिल, किसी को हार्डवेयर की भारी दुकान तो किसी को बर्तनो की दुकान। मकान और जमीन तो सभीको मिले। जायदाद का बंटवारा करते हुये मनसुख प्रसादजी ने  सभी बेटों को यह आदेश दिया कि  ”तुम लोग अपना अपना कमाओ खाओ। पर एक दूसरे के घर आना जाना, मिलना जुलना जारी रखना। हम एक परिवार के हैं, ध्यान रहे।“ बाकी सब भाईयों ने तो अपना अपना कारोबार खूब संभाला। उनके होशियार बेटेे तो छा ही गए अपने इलाके के व्यापार जगत में। शान शोैकत भी खूब बढ़ी। भारी धार्मिक सामाजिक आयोजन करते रहते। बड़े राजनैतिक नेता, मंत्री,नामी गिरामी हस्तियाँ  इस इलाके में दौरे पर आतीं तो अक्सर इन्हीं के घर ठहरतीं। लोग इन्हें शहर के अदानी अंबानी कहने लगे।

मगर मुरली भैया के पिताश्री अपना कारोबार नहीं बढ़ा पाये। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद तो उनकी दुकान और भी सिमट गई। मृत्यु के पहले उन्होंने छोटे बेटे सारंग की शादी कर दी थी। दुकान जैसे तैसे सारंग ही संभाल रहे थे। बड़े बेटे मुरलीधर के ढंग न शादी के लायक थे, न व्यापार के लायक। वह बचपन से बेहद दुबले पतले संकोची, लगभग दब्बू दयनीय से थे। दुष्ट लड़के उन्हें सताते ंरहते। ऐसे ही यातना सहते सहते उन्होंने  ईंजीनियरिंग की पढ़ाई की। नौेकरी मिली भी। मगर सहयोगियों की प्रताड़ना वह सह नहीं सके। उन दिनो सीध,े सादे लोगों को सताकर आनंदित होना लोगों का शगल भी था। ऐसे में बेचारे मुरली भैया ने र्धािर्मक पुस्तकों की एक छोटी सी दुकान खोल ली।  ग्राहक कोई आते नहीं। खुद ही दुकान में बैठे बैठे पढ़ते रहते। घर घर जाकर धार्मिक पुस्तके बेचने की कोशिश भी किये।लेता कोई नहीं। उपहास ही बनता। धार्मिक पुस्तकों में हमेशा डूबे रहते देखकर कई बार किसी धार्मिक आयोजन में उन्हें बोलने बुला लिया जाता। कृशकाय कमजोर शरीर, कमजोर आवाज, दयनीय चेहरा। उपहास ही बनता। उपहास सहते, प्रताड़ित होते जीवन की साँझ आ गई  कि लकवा मार गया। कई बीमारियों ने भी घेर लिया। बिस्तर पकड़ लिये। अब सेवा कौन करे।  माँ के सिवाय। माँ की उमर लगभग नब्बे साल। एक हड्डी की डगर डगर डोलती काया। ऐसे ही डगर डगर डोलती पथ्य बनाना, खिलाना पिलाना कर भी लंे, मगर इतने बड़े आदमी का बदन साफ करना,गंदगी साफ करनां। अत्यंत दारूण स्थिति। एकाध बार पॉट हाथ से गिर गयां। गंदगी कमरे में फैल गईं। बहू मंजुला ने खूब बवाल मचाया। बकी भी खूब। यह सब मुझे मीनू ही बताती। दरअसल और सब भाईयों के घरों में क्या कुछ हो रहा है, मुझे वही बताती रहती। बाकी सब भाईयों के घरों में मेरा आना जाना था पर विशेष अवसरों पर ही। मीनू के घर में तो कोई छोटा मोटा आयोजन भी बिना दीदी के आये नहीं होता। मेरे स्वर्गीय पिता औेर अपने ददिया ससुर मनसुखप्रसादजी के प्रेम संबंधों को वह मजबूती से निभाये जा रही थी। वैसे पूरे परिवार का मुझे मानने का एक कारण यह भी था कि मुझे ज्योतिष में बड़ी रूचि थी और इस परिवार के सभी सदस्य मुझसे अपनी जन्म कुंडली बँचवाते रहते थे। सगुन, असगुन,मुहूर्त वगैरह पूछते रहते थे।

मैं मीनू के घर जाती तो कईबार बगल मे मुरली भेैया के घर भी चली जातीं। जहाँ मीनू के घर का वातावरण आनंद में लहलहाता रहता, वहीं इस पूरे घर में जैसे अवसाद की हवा सी छायी। मैं विचलित होती पर मन को समझा लेती। परिवार के बड़े लोगो तो आते ही रहते हैं। सब जानते समझते ही हैं। प्रबुद्ध हेैं। पेैसे वाले हेैं।ं मैं बेकार ही परेशान क्यों होऊं।

दिमाग में यही सब अंधड़ लिये काम धाम निपटाये जा रही थी। शाम हो गई।ं रात घिर आईं। एक ही बार मीनू का फोन आया कि ”हालत सुधर रही हेै। रात में कौन रहता, सो भैया को अस्पताल के भरोसे छोड़ सब अपने अपने घर चले गए हैं।“ 

कि दूसरे दिन लगभग दस बजे मीनू का फोन आया... दीदी, अस्पताल से फोन आ रहा हेै,भैया की हालत ठीक हैं, घर ले जाईये। 

कब ला रहे हैं?
कौन लायेगा दीदी। सारंग भैया के ससुर की हालत अचानक बहुत बिगड़ गई है। वे ससुराल चले गए हैं।
फिर कौन ला रहा है?
अभी तक तो कोई नहीं। सबसे बड़े भैया को हाईकोर्ट में जरूरी काम है। वे बिलासपुर चले गए हैं, दूसरे भैया की रायपुर में जरूरी मीटिंग है ।

तू अपने पति को भेज।

नहीं जा सकते दीदी। सबेरे से ही मिल चले गए हैं। वहाँ कोई लफड़ा हो गया है। क्या बताऊं दीदी कितना खराब लग रहा हैं, ताईजी ने कल से दाना मुँह में नहीं डाला है। रो रोकर बेहाल हो रही हैं, कोई तो मुझे मेरे अभागे बेटेे के पास ले चलो रे।

मुझसे रहा नहीं गया। घर में ताला लगाया। रिक्शा किया। मुरली भैया के घर पहुँची। ताईजी को रिक्शे में बैठाया, अस्पताल पहुँच गई। माँ बेटे के मिलन का हृदयग्राही दृश्य देखती आँसू बहाती रही...कृशकाय अँंधी बहरी सी माँ, बीमार जर्जर बेटे को कलेजे से लगाये कलप रही थी...”माँ को कैसे छोड़कर जा रहा था रे मुरली।“
मुरली जैसे ग्लानि में गड़ा जा रहा था।
अस्पताल वाले मुझसे कहने लगे....ले जाईये मैडम, बेड खाली करिये। मरीज लाईन में लगे हैं।
क्या करू? सोचने को क्या था। स्थिति साक्षात उजागर थी। मैंने ताईजी की तरफ देखा... मेैं अपने घर ले जाती हूँ।
ताईजी सहम गईं। बोल नहीं फूटे।
अंतिम बार मीनू को फोन किया...मीनू कोई लेने आयेगा कि नहीं?
कोई नहीं आयेगा दीदी। कौन झंझट में पड़ेगा। अपनी और दुर्गति कराने के लिये बच गये ये तो...
ठीक है, मैं अपने घर ले जा रही हूँ। 
मीनू एकदम घबरा गई... अरे आप यह क्या कर रही हेैं। यहाँ सब भड़क जायेंगे।
क्यों भड़केंगे।
बदनामी होगी तो भड़केगे नहीं।
किसकी बदनामी होगी।
वह एक पल चुप रही। बोली...बदनामी तो हमारे ही परिवार की होगी। फिर मुझे डराने लगी... देखिये दीदी उन्हे सेवा की जरूरत है।
कर लूंगी। अपने भाई की सेवा नहीं की थी?
वह आपका सगा भाई था। यह आखिर है तो पराया मर्द। इसके शरीर की सफाई करना ,गंदगी साफ करना...
नहीं बनेगा तो एक पुरुष नर्स रख लूंगी।
नर्स रखेंगी? आप ऐसी कौन सी धन्ना सेठ हेैं।....

ठीक हेै, मुझसे नहीं होगा तो शहरवालों से चंदा कर लूंगी। मगर ऐसे मरने के लिए नहीं छोड़ सकती। लोग कुत्ते बिल्ली को तक ऐसे मरने नहीं छोड़ देते। यह तो मनुष्य है। अगर कोई मनुष्य कम बुद्धि का है, कमजोर है, भाग्यहीन है तो क्या उसे ऐसे ही छोड़ देना चाहिये। क्या परिवार का उसके प्रति कोई दायित्व नहीं? एक फलते फूलते समाज का उसके प्रति कोई दायित्व नहीं? समाज क्या सिर्फ प्रतिभाशाली लोगों की, सफल लोगों की प्रशस्ति गाता रहेगा। ऐसे अभागे लोगों को तड़प तड़पकर मरने के लिये छोड़ देगा? नहीं आती है मौत तो करो आत्महत्या कि तुम्हारे जैसे अभागे का यहाँ कोई नहीं।
वह सन्न सुनती रहीं। बोल फूटे...कोई कैसे नहीं हैं, इतना बड़ा परिवार है।.
.मैंने फोन काट दिया। हुँ...परिवार है.!
अस्पताल की जरूरी कार्यवाही की मैंने। ऐंबुलेंस मंगवाया। मुरली को भीतर रखवाया। ताईजी को भी बैठाया। लेकर घर आ गई।

मगर यह क्या! ऐंबुलेंस से उतरती हूँ, देखती हूँ साक्षात् अंबानी अदानी खड़े हैं अपने पूरे तामझाम के साथ। अपनी खानदानी गरिमामय विनम्रता से हाथ जोड़े...”आपको तकलीफ हुई दीदी। अचानक व्यस्तता आ पड़ी सो जरा देर हो गई। आपका घर कोई पराया थोड़े है, पर वहाँ माँ के साथ रहेगा तो इसे अच्छा लगेगा। माँ को भी अच्छा लगेगा। हम लोग जो कर सके, करेंगे तो हमें भी अच्छा लगेगा। हमारे पूज्य दादाजी की आत्मा को कितना अच्छा लगेगा। आपको भी अच्छा ही लगेगा दीदी...“

मेरी आँख में पानी आ गया...हाँ मुझे भी अच्छा लगेगा।पूरे शहर को अच्छा लगेगा...जो सुनेगा, उसे ही अच्छा लगेगा।


- शुभदा मिश्र
14,पटेलवार्ड,डोंगरगढ़(छ.ग.)

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