ओ नभ में मंडराते बादल कविता की व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर

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ओ नभ में मंडराते बादल कविता की व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर


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ओ नभ में मंडराते बादल कविता की व्याख्या

ओ नभ में मँडराते बादल 
ओ नभ में मँडराते बादल बे बरसे मत जा । 
मन के होठों पर रस की बिसरी पहचान जगा । 
पुरवा की लहरों में सुख की आतुरता उमगा । 
सूखे सुमनों की हरियाली का आभास दिखा। 
खींच क्षितिज पर शीतलता की कज्जल धूम शिखा । 
आज वर्ष की पहली वर्षा का पहला झोंका । 
इतने दिन धरती ने प्रखर पिपासा को रोका। 
ओ नभ में मँडराते बादल बे बरसे मत जा । 
कब से जल की बूँदों को विह्वल शैल निहार रहे । 
कब से आतप दग्ध वनों के प्राण पुकार रहे। 
मन जलता है जैसे तृष्णा का क्षण जलता है। 
सूखे मूल कगारों का वीरान मचलता है। 
आज मधुर स्वप्नों में पावस का आकाश भरा। 
गीतों की गूँजों से मर्मर का उल्लास हरा । 
ओ मादक उत्पादक बादल बे बरसे मत जा । 

ओ नभ में मंडराते बादल कविता की व्याख्या सारांश प्रश्न उत्तर
प्रसंग -
प्रस्तुत पंक्तियाँ 'ओ नभ में मँडराते बादल' नामक कविता से उद्धृत की गई हैं। इनके रचयिता रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' हैं । प्रस्तुत कविता में कवि बादलों को सम्बोधित करके उनसे बिना बरसे न जाने का आग्रह कर रहा है। धरती प्यासी है, सुमन सूखे हैं, पर्वत, वन आदि सभी तुझे पुकार रहे हैं। वर्षा के अभाव में जीवन को तृप्ति नहीं मिलती तथा जलती बालू पर यौवन का फूल नहीं खिल सकता। अतः बिना बरसे मत जा ।
 
व्याख्या - कवि कहता है कि हे आकाश में मँडराने वाले बादल ! बिना बरसे मत जा। हमारे मन में फिर से भूली हुई बारिश की पहचान जगा दे। पुरवाई हवा में सुख देने वाली उमंग जगा दे। जो फूल सूख रहे हैं उन्हें फिर से हरियाली दिखा और उन्हें खिला दे । क्षितिज के ऊपर शीतलता लिए हुए काले बादलों की पंक्ति खींच दे। आज वर्ष की पहली वर्षा का पहला झोंका दिखा दे। इतने दिनों तक धरती ने अपनी तेज प्यास को रोक कर रखा है। ऐसे में हे नभ में मँडराते बादल ! बिना बरसे हुए लौटकर मत जा। बहुत समय से जल की बूँदों की व्याकुल पर्वत राह देख रहे हैं। 

गर्मी से झुलसे हुए वन न जाने कब से तुझे बुला रहे हैं। गर्मी से मन जलता है तो इच्छा भी जलने लगती है अर्थात् मन में निराशा भर जाती है। सूखे हुए नदी के किनारे जो वीरान पड़े हैं तुझे पुकार रहे हैं। आज मधुर स्वप्नों में भी वर्षा से भरा आकाश दिखाई देता । गीतों की ध्वनि से पानी के बरसने मरमर शब्द जैसा मन में उल्लास भर गया है। हे मन को मस्त करने वाले बादल ! बिना बरसे हुए मत जा । 

जाग उठी मरु-मरु में सुख की वाष्पाकुल आशा । 
इस निदाध से जला प्रकृति का रोम-रोम प्यासा ।
थकी अनमनी धूप माँगती है जलमय बाँहें। 
डूब गई तम में नीड़ाकुल विहगों की छाहें । 
खेतों-खलियानों, मुंडेरों पर छत पर, घर-घर । 
हेर रहे अगणित हम तुमको जल वाले जलधर । 
उमड़ बरसने वाले बादल बे बरसे मत जा । 
है अनदेखी बान तुम्हारी, तरसाते जग को । 
पुरवा की थपकी दे देकर भरमाते जग को। 
मन की बूँदों से कब तक, जीवन को तृप्ति मिले ? 
कब तक जलती बालू पर यौवन का फूल खिले ? 
तुम बरसो फिर से धरती का, तन शीतल होले । 
तुम बरसो मन की थकान का, मन मिसरी घोले । 
ओ नभ में मंडराते बादल बे बरसे मत जा । 

सन्दर्भ एवं प्रसंग - पूर्ववत् ।
 
व्याख्या - कवि कहता है कि रेगिस्तान के कण-कण में वर्षा के सुख की आशा जाग उठी है। इस गर्मी से प्रकृति जल रही है और तिनका-तिनका प्यासा है। धूप थक गई है और अनमनी होकर वर्षा की माँग कर रही है। अंधेरे में घोंसले में बैठे हुए पक्षी भी जल की माँग कर रहे हैं। खेतों-खलिहानों में मुंडेरों पर, छत पर, घर-घर में हम सभी जल वाले बादल तुम्हें देख रहे हैं अर्थात् बुला रहे हैं। उमड़कर बरसने वाले बादल तू बिना बरसे मत जा। 

ओ नभ में मंडराते बादल कविता का सारांश

ओ नभ में मंडराते बादल कविता रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' जी की प्रसिद्ध कविता है। प्रस्तुत कविता में नभ में मँडराते हुए बादल से कवि कह रहा है कि हे बादल ! तू बिना बरसे हुए मत जा। मन के होठों पर भूली हुई वर्षा की पहचान करवा दे और पुरवाई हवा भेजकर वर्षा के सुख का अनुभव करा दे। सूखे हुए फूलों पर हरियाली का आभास करा दे और क्षितिज को बादलों की काली रेखा से भर दे। इतने दिनों से धरती प्यासी है इसलिए वर्ष का पहला वर्षा का झोंका गिरा दे जिससे कि धरती की प्यास बुझ जाय। तेरी बूँदों की राह कब से व्याकुल पर्वत देख रहे हैं। इसी प्रकार गर्मी से व्याकुल वन भी तेरी राह देख रहे हैं। सूखे कगार भी तेरी राह देख रहे हैं। हमारे मधुर स्वप्नों में तू पूरे आकाश को बादलों से भरा हुआ दिखा दे और गीतों की ध्वनि हमें बादलों के बरसने की मर-मर की ध्वनि लगे। हे मस्त करने वाले बादल ! तू बिना बरसे मत जा। रेगिस्तान में भी वर्षा के सुख की सी आशा जाग उठी है और गर्मी के कारण प्रकृति भी प्यासी है। थकी हुई धूप भी तुमसे जल माँग रही है। घोंसलों में बैठे पक्षी भी जल की पुकार कर रहे हैं। खेतों, खलिहानों, मुंडेरों पर, छत पर और घर में हम हे जल देने वाले बादल तुम्हें देख रहे हैं। हे बादल तू ! बिना बरसे मत जा ।

 



आगे कवि कहते हैं कि तुम्हारे वर्षा रूपी तीरों को देखने के लिए संसार तरस रहा है और पुरवाई हवा से तुम संसार को भ्रम में डाल रहे हो कि वर्षा आएगी। मन की कल्पित वर्षा से जीवन को संतोष कैसे मिले। जलती हुई बालू पर फूल कैसे खिलेगा। तुम फिर से बरस की धरती को शीतल कर दो। हे आकाश में मंडराते हुए बादल ! बिना बरसे हुए मत जाना । 

ओ नभ में मंडराते बादल कविता के प्रश्न उत्तर

प्र. 1 . आशय स्पष्ट कीजिए- 
(क) इतने दिन धरती ने प्रखर पिपास को रोका। 
उत्तर- (क) कवि कहता है कि इतने दिनों तक धरती ने अपनी प्यास को रोका हुआ। इस भीषण गर्मी के धरती कब से प्यासी है। जब तक तू बरसेगा नहीं धरती प्यासी ही रहेगी।

(ख) कब से आतप दग्ध वनों के प्राण पुकार रहे। 
उत्तर- भीषण गर्मी से झुलसे हुए वन बादलों को बरसने के लिए कह रहे हैं ताकि उनकी गर्मी शान्त हो सके।

(ग) थकी अनमनी धूप माँगती है जलमय बाँहें । 
उत्तर-धूप भी थक गई है और दुःखी है वह भी बादलों से वर्षा की गुहार कर रही है।

(घ) कब तक जलती बालू पर यौवन का फूल खिले । 
उत्तर-कवि कहता है कि गर्मी से धरती की बालू भी मानो जल रही है उस गर्म बालू में यौवन रूपी फूल कैसे खिले । यानी यौवन भी तभी प्रसन्न होगा जब वर्षा आएगी। फूल भी वर्षा आने पर ही खिलते हैं।

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