मलिक मुहम्मद जायसी की प्रेम संबंधी अवधारणा क्या है ?

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मलिक मुहम्मद जायसी की प्रेम संबंधी अवधारणा क्या है जायसी की प्रेम भावना का स्वरूप मलिक मुहम्मद जायसी के प्रेम तत्त्व पर प्रकाश प्रेम की पीर के कवि

मलिक मुहम्मद जायसी के प्रेम तत्त्व पर प्रकाश


लिक मुहम्मद जायसी की प्रेम संबंधी अवधारणा क्या है ? जायसी की प्रेम भावना का स्वरूप मलिक मुहम्मद जायसी के प्रेम तत्त्व पर प्रकाश jayasi ki prem bhawna ka swaroop - मलिक मोहम्मद जायसी सूफी प्रेमाख्यानक काव्य-परम्परा के प्रमुख कवि हैं। अवधी भाषा में रचित उनका महाकाव्य 'पद्मावत' सूफी काव्यधारा का प्रतिनिधि ग्रन्थ है, जिसमें चित्तौड़ के राजा रत्नसेन एवं सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम का चित्रण किया गया है। सूफी कवियों ने हिन्दू घरों में प्रचलित लोकप्रसिद्ध प्रेमगाथाओं को अपनी काव्य वस्तु बनाया तथा लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना की। रत्नसेन यहाँ जीवात्मा का प्रतीक है और पद्मावती परमात्मा का। सूफी काव्य-परम्परा के सभी ग्रन्थों में प्रेम की महत्ता स्वीकार की गई है। ये कवि 'प्रेम' को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हैं और 'इश्क मजाजी' से 'इश्क हकीकी' तक पहुँचने का सन्देश देते हैं।

जायसी को प्रेम की पीर के कवि क्यों कहा जाता है ?

मलिक मुहम्मद जायसी की प्रेम संबंधी अवधारणा क्या है ?
सूफी मत में प्रेम का विशेष महत्त्व है। डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- "सूफी मत में ईश्वर की भावना स्त्री रूप में की गयी है। वहाँ भक्त पुरुष बनकर उस स्त्री की प्रसन्नता के लिए सौ जान से निसार होता है, उसके द्वार पर जाकर प्रेम की भीख माँगता है। ईश्वर एक दैवी स्त्री के रूप में उसके सामने उपस्थित होता है- इस तरह सूफी मत में ईश्वर स्त्री और भक्त पुरुष हैं पुरुष ही ईश्वर से मिलने की चेष्टा करता है, जिस प्रकार रत्नसेन सिंहलद्वीप जाकर पद्मावती (ईश्वर) से मिलने की चेष्टा करता है।"
 
जायसी द्वारा रचित पद्मावत एक प्रेमगाथा काव्य है, जो सूफियों की प्रेम पद्धति पर आधारित है। इस महाकाव्य में लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना की गयी है। पद्मावत के पूर्वार्द्ध में प्रेम की प्रधानता है, जबकि उत्तरार्द्ध में ऐतिहासिकता का निर्वाह किया गया है।
 
जायसी की मान्यता है कि इश्क मंजाजी (लौकिक प्रेम) के द्वारा इश्क हकीकी (ईश्वरीय प्रेम) को पाया जा सकता है। रत्नसेन का पद्मावती के प्रति प्रेम इसी प्रकार का है। प्रेमी के हृदय में प्रिया के प्रति प्रेम उत्पन्न करने के लिए चित्र दर्शन, स्वप्न दर्शन या सौन्दर्य प्रशंसा का आश्रय लिया जाता है तथा प्रेमी प्रिया को पाने के लिए सर्वस्व त्यागकर विघ्न बाधाओं को पार करता हुआ अन्त में उसे प्राप्त कर लेता है। हीरामन तोते के द्वारा पद्मावती के रूप सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर राजा रत्नसेन उसे पाने को व्याकुल हो गया और सिंहलद्वीप जाकर उसने अन्तत: अनेक कष्ट झेलने के उपरान्त पद्मावती को प्राप्त कर लिया।

जैसे किसी पथिक को अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कुछ मञ्जिलों को पार करना पड़ता है, वैसे ही जीवात्मा को हक (ईश्वर) तक पहुँचने के लिए चार मुकामात (मञ्जिलें) पार करनी होती हैं, जिनके नाम सूफी मत के अनुसार है- शरीअत, तरीकत, हकीकत और मारिफत । इन्हें पार करके ही वह परमात्मा से एकाकार हो जाती है। 

पद्मावत में किसकी प्रेम कथा का वर्णन किया गया है?

जायसी ने 'पद्मावत' में इसी सूफी प्रेम पद्धति को अपनाया है। पद्मावती के अनुपम रूप सौन्दर्य की प्रशंसा से प्रभावित राजा रत्नसेन योगी बनकर सिंहलद्वीप जाता है। मार्ग में समुद्र यात्रा के समय अनेक विघ्न आते हैं, किन्तु उन्हें पार करता हुआ वह अन्तत: पद्मावती को पा लेता है। लौटते हुए रास्ते में फिर विघ्न आते हैं। पद्मावती उससे बिछुड़ जाती है, किन्तु प्रेम की दृढ़ता के कारण उनका पुनर्मिलन होता है। चित्तौड़ लौटने पर राघवचेतन की दुष्टता के कारण अलाउद्दीन बादशाह पद्मावती को पाने के लिए चित्तौड़ पर आक्रमण कर देता है तथा राजा रत्नसेन को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाता है, किन्तु गोरा-बादल की तत्परता से कारागार से मुक्त होकर चित्तौड़ लौट आता है। चित्तौड़ लौटकर राणा वीरपाल से उसका युद्ध. होता है जिसमें वह वीरगति को प्राप्त करता है तथा राजा रत्नसेन की दोनों रानियाँ- नागमती और पद्मावती उसके साथ सती हो जाती हैं। इस प्रकार राजा रत्नसेन-रूपी आता 'फना' होकर 'अनलहक' की अधिकारिणी बनकर पद्मावती रूपी परमात्मा से एकाकार हो जाती है। 

जायसी ने पद्मावती को परमात्मा मानकर उसके रूप-सौन्दर्य की अलौकिक छटा संसार में व्याप्त दिखायी है। संसार में जो कुछ सुन्दर है सब उसी का प्रतिफल है। यथा- 

रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोती। रतन पदारथ मानिक मोती ॥ 

मानसरोदक खण्ड के अन्तर्गत पद्मावती रूपी परमात्मा के अलौकिक सौन्दर्य को सर्वत्र व्याप्त दिखाते हुए वे कहते हैं - 

"नयन जो देखा कंबल भा निरमल नीर सरीर। हँसत जो देखा हंस भा दसन जोति नग हीर ॥" 

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