हिन्दी के जनवादी कवि नागार्जुन

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नागार्जुन की कविताओं में जनवादी चेतना नागार्जुन को जनवादी कवि क्यों कहा जाता है ? नागार्जुन की सामाजिक चेतना हिन्दी के जनवादी कवि नागार्जुन Democratic

नागार्जुन की कविताओं में जनवादी चेतना मुखरित हुई है


नागार्जुन की कविताओं में जनवादी चेतना नागार्जुन को जनवादी कवि क्यों कहा जाता है ? नागार्जुन की सामाजिक चेतना हिन्दी के जनवादी कवि नागार्जुन नागार्जुन जन कवि हैं नागार्जुन काव्य में जनवादी चेतना - नागार्जुन जी प्रगतिवादी कविता के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। उनकी दृष्टि मार्क्सवाद से प्रभावित है। उनके काव्य में पूँजीवादी शोषण के विरोध तथा समाज के गरीब वर्ग के प्रति अदम्य सहानुभूति का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है। नागार्जुन ने जो कुछ लिखा, वह जनता एवं जनमानस को लक्ष्य करके लिखा है। उनकी कविताएँ लाखों-करोड़ों लोगों की ज़िन्दगी के विषय में हैं। उनका दुःख समूची पीड़ित मानवता का दुःख है। 'प्रेत का बयान' कविता में प्राइमरी स्कूल के अध्यापक का बयान न होकर स्वाधीन भारत के उन लोगों की दुःख भरी कहानी है, जो गरीबी की रेखा के नीचे रहकर जीवन-यापन करते हैं और भूखे रहकर भी जिन्दा बने रहते हैं। हमारे सहृद जन भी ऐसा ही सोचते हैं कि भूखा रहकर आदमी क्या कभी जिन्दा रह सकता है, वस्तुतः वे जानते ही नहीं हैं कि भूख नाम की कोई चीज भी होती है इस दुनिया में- 

नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के 
तनखा थी तीस, 
सो भी नहीं मिली मुश्किल से काटे हैं एक नहीं, 
दो नहीं, नौ-नौ महीने । 

जनता की व्यथा 

नागार्जुन की कविता में जन-व्यथा के बीज काफी पास-पास बोये गये हैं। उनकी कविताएँ जनसामान्य के तारतम्य की कविता हैं, साथ ही उन्हें जनता की अदम्य शक्ति में आस्था और विश्वास है। हरिजन-गाथा इसका ज्वलंत प्रमाण है- 

अहे देखना इसके डर से 
थर-थर कापेंगे हत्यारे 
श्याम सलोना यह अछूत शिशु 
हम सबका उद्धार करेगा । 

जनशक्ति में आस्था

नागार्जुन की कविता में एक स्थान पर जनता की अमोघ शक्ति प्राप्त करने का यह विश्वास देखते ही बनता है- 

सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक

जनता के प्रति प्रतिबद्ध 

हिन्दी के जनवादी कवि नागार्जुन
नागार्जुन उन कवियों में हैं, जो साधारण जन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। 'प्रतिबद्ध हूँ' शीर्षक कविता में वह स्पष्ट कहते हैं कि 'बहुजन समाज की अनुपम प्रगति के निमित्त एवं संकुचित स्व की आपाधापी के निषेधार्थ प्रतिबद्ध हूँ, सम्बद्ध हूँ, आबद्ध हूँ। 'नागार्जुन की कविताओं में जीवन के कटु यथार्थ की स्मृतियाँ दिखाई देती हैं। इनकी दृष्टि समाज की ओर केन्द्रित दिखाई देती है, क्योंकि वे ही समाज के जन-पक्ष का निर्माण करते हैं। 

वह उन्हीं की भाषा, उन्हीं की शब्दावली, लोकोक्तियों तथा उन्हीं के समाज में प्रचलित मुहावरों में उन्हीं की बात कहता है। नागार्जुन की हरिजन-गाथा इसी प्रकार की कविता है- 

अगले नहीं, इससे अगले रोज 
पधारे गुरू महाराज 
रैदासी कुटिया के अधेड़ संत गरीबदास 
बकरी वाली गंगा-जमुनी दाढ़ी थी। 

जनभाषा का प्रयोग

नागार्जुन की कविता में जनता की भाषा का प्रयोग वर्णन को सजीवता प्रदान करती है, विषय को बिम्ब द्वारा ग्राह्य बनाती है तथा अनपढ़ समाज में प्रचलित एवं प्रयुक्त की जाने वाली भाषा एवं शब्दावली का उदाहरण प्रस्तुत करती है। 

जन-जीवन की अनन्त छवियों का चित्रण- इनकी कविताओं में जीवन की अनन्त छवियाँ अंकित हैं। वे कहीं नेवले, सुअर और साँड़ को अपनी भाव-भूमि में समेटते हैं और कहीं ग्रामीण अंचल की प्रकृति को। उदाहरणार्थ 'सिंदूर तिलकित भाल' की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है- 

याद आता मुझे वह तरउनी गाँव । 
याद आती लीचियाँ व आम 
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग । 

नागार्जुन ने सामाजिक एवं राजनीतिक संदर्भ में उपेक्षित वर्ग को रखकर देखा है। फलत: उनकी भाव-भूमि जनता की भावभूमि बन गयी है। उसमें भूख, बाढ़, अकाल, अभाव, अत्याचार, शोषण एवं उनके विरोध के वर्णन भरे पड़े हैं। आश्चर्य नहीं उसमें वीभत्सता का समावेश भी हो गया है। 'प्रेत का बयान' और 'हरिजन-गाथा' ऐसी ही कविताएँ हैं। 

जनवादी कवि के जनसामान्य से जुड़े बिम्बों का प्रयोग 

नागार्जुन की कविताओं में जन सामान्य से जुड़े बिम्बों का प्रयोग है। प्रेमानुभूति ही जन-सामान्य के वर्ग का बिम्ब प्रस्तुत करती है- 

झुकी पीठ को मिला
किसी हथेली का स्पर्श
तन गई रीढ़

महसूस हुई कन्धों को
पीछे से,
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें
तन गई रीढ़

एक अन्य कविता 'बेटी खोपड़ी के अन्दर' में कवि एक मुस्लिम रिक्शे वाले के साथ आत्मिक सम्बन्ध जोड़ता हुआ दिखाई देता है। इस कविता में प्रयुक्त गूं, खूसट काले आदि भदेस शब्द कवि को समाज को निम्नतम वर्ग के साथ जोड़ते हुए दिखाई देते हैं 

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि नागार्जुन हिन्दी साहित्य के जनवादी कवि हैं। वह जनता के सहस्रों विचारों के कवि हैं। कवि नागार्जुन की इस भावना के सन्दर्भ में डॉ. दुर्गा प्रसाद ओझा की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-"नागार्जुन व्यक्ति नहीं है, एक समूचा जन- चरित्र है। किताबी लोग दबी जुबान से और कई बार खुले रूप में भी नागार्जुन की धुरीहीनता पर आसान टिप्पणी कर देते हैं और वे लोग...... जबकि नागार्जुन इसीलिए नागार्जुन हैं कि वे जनता के विवेक का ही नहीं उसके आवेशों का भी, उसके खूबियों का ही नहीं कमजोरियों का भी, शाश्वत का ही नहीं तत्काल का भी, शोषण का ही नहीं राग एवं सौन्दर्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। " 

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