सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण

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सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण Pant Prakriti ke Sukumar Kavi Hai पंत के प्रकृति-चित्रण की विशेषताएँ पंत प्रकृति के सुकुमार कवि है प्रकृति प्रेम

सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण


सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण Pant Prakriti ke Sukumar Kavi Hai spasht Karen सुमित्रानन्दन पंत के प्रकृति-चित्रण की विशेषताएँ सुमित्रानंदन पन्त प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में हिंदी साहित्य जगत में विख्यात हैं। पन्तजी ने स्वयं ही यह स्वीकार किया है कि उनको काव्य रचना की प्रेरणा भी प्रकृति से ही प्राप्त हुई है। उन्होंने स्वीकार किया है कि - "कविता की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली है ,जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्मांचल प्रदेश को है। "

पन्त के काव्य में प्रकृति का अनूठा चित्रण है ,जिसका विकास इस प्रकार है - 

प्रकृति का आलंबन रूप

आलंबन रूप में प्रकृति कवि के लिए साधन न होकर साध्य बन जाती है। प्रबंधकाव्य में प्रकृति के संशिलिष्ट चित्रण के लिए अधिक अवकाश रहता है ,किन्तु गीतिकाव्य में हमें प्रकृति का समग्र रूप एक साथ नहीं मिल पाता है। पन्त जी ने गीतों की रचना की है। अतः उनके फुटकल गीतों में प्रकृति के अनेक तंत्रों के स्पर्श एक साथ केन्द्रित रूप में अभिव्यक्त नहीं हो पाए। इस प्रणाली के अंतर्गत संश्लिष्ट चित्रण प्रणाली और नाम परिगणन शैली दोनों रूप द्रृष्टव्य है।  बादल ,आँसू ,बसन्तश्री ,परिवर्तन ,गुंजन ,एकतारा ,नौका विहार ,हिमाद्री आदि कविताओं में यह प्रणाली अपने पूरे आवेग के साथ उभरकर सामने आई है - 

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!

प्रकृति का उद्दीपक रूप 

प्रकृति जहाँ मानवीय भावनाओं का उद्दीपन करती है ,वहाँ प्रकृत का यही रूप होता है। इसमें संयोग एवं वियोग के समय भावों को उद्दीप्त करने के लिए कवि प्रकृति का सहारा लेता है। पन्त जी ने दोनों प्रणालियों को अपनाया है। मधुस्मृति ,मधुवन ,गृहकाज ,गुंजन ,मिलन ,प्रथम मिलन आदि कविताओं को उत्तेजना प्रदान करती है -
सुमित्रानंदन पंत का प्रकृति चित्रण
 
डोलने लगी मधुर मधुवात हिला तृण, व्रतति, कुंज, तरु-पात,
डोलने लगी प्रिये! मृदु-वात गुंज-मधु-गन्ध-धूलि-हिम-गात।

प्रकृति का संवेदनात्मक रूप 

प्रकृति की संवेदना का दो रूप है - 
  • जहाँ प्रकृति मानव के उल्लास के साथ आनंदित दिखाई देती है।  
  • जहाँ प्रकृति भी दुखी मानव के साथ आँसू बहाती है। पंतजी ने दोनों चित्र उभारे हैं - 
अचिरता देख जगत की आप शून्य भरता समीर नि:श्वास,
डालता पातों पर चुपचाप,ओस के आँसू नीलाकाश;
सिसक उठता समुद्र का मन सिहर उठते उडगन !

प्रकृति का रहस्यात्मक रूप

प्रकृति ने ईश्वर की व्याप्ति है ,क्योंकि भगवताकार ईश्वर समस्त जगत में व्याप्त है। अतः प्रकृति में परमतत्व का आभास करते ही कवि रहस्यवादी हो जाता है। पन्त जी के काव्य में रहस्यवादी प्रकृति का रूप दृष्टिगोचर होता है। कवि को कोई निमंत्रण दे रहा है ,पर वह कौन है ? यही तो जिज्ञासा भाव है - 

न जाने, तपक तड़ित में कौन मुझे इंगित करता तब मौन ।
देख वसुधा का यौवन भार गूंज उठता है जब मधुमास, .
विधुर उर के-से मृदु उद्गार कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास
न जाने, सौरभ के मिस कौन सँदेशा मुझे भेजता मौन ।​

प्रकृति का प्रतीकात्मक रूप

पंतजी ने काव्य में प्रकृति का प्रयोग प्रतीकों के रूप में किया है। प्रायः प्रकृति के उपकरण विविध भावों ,रूपों एवं क्रियाओं के प्रतीक इनके काव्य में दिखाई देते हैं। पन्त काव्य में प्रकृति का प्रतीकात्मक रूप इस प्रकार है - 

अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी ने थे लाज के बोल, खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।
हाय! रुक गया यहीं संसार, बना सिन्दूर अनल अंगार।

प्रकृति का मानवीकृत रूप 

प्रकृति का मानवीकरण छायावादी काव्य की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता है। प्रकृति पर चेतना का आरोप ही मानवीकरण है। पन्त जी के काव्य में यह प्रचुरता के साथ मिलता है। शरद ,निशा ,बाल आदि विभिन्न रूपों को मूर्त रूप में चित्रित किया है - 

कौन-कौन तुम परहित वासना, म्लानमना भू पतिता सी।
धूल धूसरित मुक्त कुन्तला, सबके चरणों की दासी।

दूती रूप में प्रकृति

प्रकृति को दूती के रूप में प्रयोग करने का कार्य सर्वप्रथम कालिदास ने मेघदूत में किया है। हरिऔध जी ने पवनदूत में भी इसका रूप उभारा है। पंतजी ने तो इस रूप में प्रकृति का प्रयोग नहीं किया है ,लेकिन बादल कविता में इसका प्रयोग दृष्टिगोचर है - 

सुरपति के हम हैं अनुचर,जगत्प्राण के भी सहचर 
मेघदूत की सजल कल्पना,चातक के चिर जीवनधर
मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर,सुभग स्वाति के मुक्ताकर
विहग वर्ग के गर्भ विधायक,कृषक बालिका के जलधर !

प्रकृति का अलंकृत रूप

प्रकृति के विभिन्न अव्ययों का प्रयोग उपमान के रूप में समय समय पर होता रहा है। पंतजी ने भी उस क्रम में स्वाभाविक रूप से उनका प्रयोग किया है। मधुबाला की सी गुंजार ,वारि बिम्ब सा विकल ह्रदय ,इन्द्रचाप सा वह बचपन जैसे प्रयोग दृष्टव्य है। परिवर्तन और आँसू कविता में तो उपमाओं का प्रयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय है - 
मेरा पावस ऋतु सा जीवन,मानस सा उमड़ा अपार मन;
गहरे, धुँधले, धुले, सांवले,मेघों-से मेरे भरे नयन!

वातावरण निर्माण के रूप में 

आधुनिक युग के कवियों ने वातावरण निर्माण के रूप में प्रकृति का पर्याप्त प्रयोग किया है। पन्त ने प्रकृति का इस क्षेत्र में दो रूपों में प्रयोग किया है - 
  • गंभीर वातावरण निर्माण हेतु प्रकृति के गंभीर रूप का प्रयोग। 
  • उल्लासपूर्ण वातावरणनिर्माण हेतु कवि प्रकृति के उल्लासित रूप का चित्रण करता है। 

संध्या के बाद कविता में गंभीर वातावरण के हेतु प्रकृति का गंभीर रूप इस प्रकार है - 

सिमटा पंख साँझ की लाली जा बैठी अब तरु शिखरों पर,
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर।
ज्योति स्तंभ सा धँस सरिता में सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
बृहद्‌ जिह्म विश्लथ कैंचुल सा लगता चितकबरा गंगाजल।

निष्कर्ष स्वरुप संक्षेप में कहा जा सकता है कि पन्त प्रकृति में ऐसे रमे हैं मानों इसके साथ उनका प्रत्यक्ष साहचर्य हो ,वे उससे वार्तालाप करते प्रतीत होते हैं ,उसके साथ साथ घूमते दिखाई देते हैं ,कुसुम प्यालों में मदपान करके उसके साथ घूमते हैं। अतः उनका उसके साथ मन ,आत्मा ,ह्रदय स्तर पर अभिन्न सम्बन्ध दिखाई देता है। 

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