नकटौरा उपन्यास की समीक्षा

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नकटौरा उपन्यास की समीक्षा नकटौरा उपन्यास अपने-अपने संघर्ष चित्रा मुद्गल के नवीनतम उपन्यास ‘नकटौरा’ का मूल यही नकटौरा है। उपन्यास में यह स्त्री स्वायत्

नकटौरा उपन्यास अपने-अपने संघर्ष


वध क्षेत्र में जब बारात कन्या के घर जाती है, उस रात वर के घर में परिवार और सम्बन्धियों की स्त्रियाँ पुरुषों और स्त्रियों का अभिनय करते हुए प्रहसन-श्रंृखला प्रस्तुत करती हैं जिसमें हास्य, व्यंग्य, ताने, नोक-झोंक और छेड़छाड़ होती है। पुरुषविहीन स्त्रीमण्डली में उन्मुक्त भाव से, निर्बन्धता के साथ जमकर मनोभावों का प्रकटीकरण होता है जिसे नाट्यतत्व के कारण नकटौरा कहा जाता है। चित्रा मुद्गल के नवीनतम उपन्यास ‘नकटौरा’ का मूल यही नकटौरा है। उपन्यास में यह स्त्री स्वायत्तता के वैचारिक विस्तार के रूप में अवस्थित है। चित्रा जी ने उपन्यास में एक निश्चित कालावधि में सम्पर्क में आए व्यक्तियों के बारे में बेबाक चित्रण किया है। स्वयं के बारे में भी - भले ही वह घर के भीतर की बात हो या बाहर की बात हो। उन्होंने इसे औपन्यासिक प्रयोग की संज्ञा दी है।

नकटौरा उपन्यास की समीक्षा

उपन्यास का समर्पण किसी व्यक्ति के नाम न होकर इस विशिष्ट अन्दाज़ में हुआ है - ‘समय में मैं और मुझमें मेरा समय?’ शब्दों के आलोक में सरोकारों की जद्दोजहद की जीने की कोशिश के नाम।’

एक अन्य ख़ास बात ‘समर्पण’ के बाद के पृष्ठ पर अंकित ‘डिसक्लेमर’ है - ‘नकटौरा के पात्र नितांत हमारी आरसी के चेहरे हैं। उनके अपने लिए अपने चेहरे अलग हो सकते हैं।’ दरअसल, उपन्यास में कई पात्र अपने वास्तविक नाम से हैं, तो कुछ के नाम सांकेतिक रूप से हैं। अनावश्यक वाद-विवाद-प्रवाद न हो, इसलिए ‘डिसक्लेमर’ का प्रयोग किया गया है।

उपन्यास की भूमिका ‘बचना ज़रूरी है भीतर के सूखे से’ कविता के रूप में है जिसका अंश इस प्रकार हैः- एक सर्जक घर की चैहद्दी में कैसा होता है! और/घर से बाहर/ऊबड़-खाबड़ चुनौती देती परिस्थितियों में/पीठ पर लदी प्रतिबद्धतााओं में खौलते, उबलते/मूल्यों, नैतिकताओं के घात-प्रतिघात झेलते/संवेदनाओं के सीने पर सिर टिकाए/स्वयं को बचाते, टोहते/बच रहता है/कितना और कहाँ तक!/दरअसल,/बचना ज़रूरी है भीतर के सूखे से/भीतर ही भीतर बढ़ते बीहड़, बंजरों के बढ़ते आयतन से ...।

सच ही, लेखक के लिए अपनी संवेदनाओं को सँभालते हुए अपने को सूखे से बचाए रखना मामूली चुनौती नहीं होती। बहुत कठिन है डगर पनघट की!

उपन्यास में आत्मकथात्मक संस्पर्श है। इसमें चित्रा जी के पति अवध (सुप्रसिद्ध सम्पादक-कवि-कथाकार अवधनारायण मुद्गल), पुत्री बिट्टू (अपर्णा), पुत्र गुड्डू (राजीव) और स्वयं उनकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। चित्रा जी के स्वयं के बहुमुखी संघर्ष हैं। परिवार के उतार-चढ़ाव वाले दिन हैं। बिट्टू से जुड़े प्रसंग हृदयद्रावक हैं। चैंकाने वाले भी। पति-पत्नी, माँ-बेटे, माँ-बेटी, पिता-बेटे और पिता-बेटी के सम्बन्ध आम तौर पर स्नेहिल हैं, परन्तु कभी-कभी नरम-गरम और तकरार भरे भी। पीढ़ीगत मतवैभिन्य भी है। सभी का बेबाकी से चित्रण किया गया है।

लेखक-पत्रकार जगत से जुड़ी नामचीन हस्तियों, मित्रों और सम्बन्धियों से जुड़े खट्टे-मीठे प्रसंग हैं। इनमें लेखक नागार्जुन की निश्छलता और अलमस्त अन्दाज़, पुष्पा भारती-धर्मवीर भारती के अभिभावकीय स्नेह की फ़ुहारें, कृष्णा सोबती की नज़ाकत-नफ़ासत, पद्मा सचदेव के रुष्टा-तुष्टा रूप, शानी की चुहलबाज़ियाँ, उनकी पत्नी सलमा का स्नेहिल स्वभाव-मेहमाननवाज़ी, मृदुला गर्ग का रूखापन, विजय मोहन सिंह का मुँहफट स्वभाव, मुद्राराक्षस का बेतकल्लुफ़ अन्दाज़ और तुनकमिज़ाजी आदि हैं। अन्य बहुत-से व्यक्तियों से जुड़े प्रसंग हैं।

उपन्यास में ‘पानी वाली बाई’ के नाम से मशहूर मृणाल गोरे और चंपा लिमये जैसी समाजसेवी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। श्रमिक आन्दोलन से जुड़े पत्नी-पति मन्दा और बसन्त हैं। बसंत तो बाद में सरकार में मंत्री बन जाते हैं। बसंत के अनैतिक सम्बन्धों और प्रताड़ना के कारण मंदा उनसे अलग हो जाती है। समाजसेवी-वकील रंजना हैं।

दामोदर दत्त दीक्षित
दामोदर दत्त दीक्षित
विपन्न, वंचित, शोषित, पीड़ित और मेहनतकश लोगों की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। ऐसे लोगों के प्रति लेखिका की गहरी संवेदना, चिन्ता और बेचैनी है। अपने सरोकारों के प्रति दृढ़ता के कारण वह उनके पक्ष में डटकर खड़ी रहती हैं। उनके प्रति सहाय्यभाव है - निजी स्तर पर भी और समाजसेवी संस्थाओं के माध्यम से भी। इस वर्ग में वेटर सिराज, घरेलू सहायक वीरेन्द्र, सफ़ाईकर्मी महेन्दरी, सफ़ाईकर्मी बबीता, भैंस पालने और उपले पाथने वाली रामवती, उसके पति थ्री ह्वीलर चालक हरिप्रसाद, उपले पाथने वाली पुष्पा, रिक्शावाला जैसे लोग हैं। इन चरित्रों से जुड़े प्रसंग विस्मित करते हैं, झकझोरते हैं, भावविह्वल करते हैं और दिल दहलाते हैं। इनकी विसंगतियों, विषमताओं, विवशताओं, विरूपताओं, विपत्तियों और अन्तर्विरोधों की भी चर्चा है। इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया है कि इस वर्ग की स्त्री दोहरी मार झेलती है। उसे पुरुषसत्ता के शोषण-उत्पीड़न से भी जूझना पड़ता है। उपन्यास में समसामयिक सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य की झलकियाँ भी मिलती हैं।

चित्रा जी ने बम्बई के पत्रकार सोसाइटी और दिल्ली की पूर्वाशा सोसाइटी के अपने फ्लैटों को ‘लाइव एन्टिटी’ की तरह याद किया है। सच ही, आवास ईंट-गारे से ही नहीं बनते, उनसे जुड़ी भावनात्मक निर्मितियाँ भी होती हैं।

यह उपन्यास कथा-संरचना में चित्रा जी के पहले के उपन्यासों से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें बहुत-से पात्र अपने असली नाम से और कुछ सांकेतिक नाम से मौजूद हैं। इस स्थिति से कथाकृति में कुछ सीमाएँ, कुछ चुनौतियाँ उपस्थित होती हैं। सुखद है कि लेखिका ने इन सीमाओं और चुनौतियों का मुक़ाबला कुशलतापूर्वक किया है।

‘नकटौरा’ के कथानक में प्रवाह है। जिस भाषा और लेखन-शैली की रवानगी के लिए चित्रा जी जानी-मानी जाती हैं, वह इस उपन्यास में भी है। उपन्यास समसामयिक सच्चाइयों को, आम लोगों की व्यथा-कथा को, उनकी चुनौतियों और संघर्ष को सशक्त ढंग से व्यक्त करता है। स्वयं चित्रा जी का चरित्र संषर्घशील और भिड़न्त व्यक्ति के रूप में उभरा है। वंचित-शोषित वर्ग के प्रति गहरे जुड़ाव के कारण वह उनके लिए संघर्ष करने को सदैव खड्गहस्त रहती हैं। मेरे विचार से यही चीजे़ं ‘नकटौरा’ की सबसे बड़ी उपलब्धियाँ हैं। बासठ अध्यायों में विभक्त, चार सौ पृष्ठों का यह उपन्यास रोचक है, इसमें बाँधे रखने की क्षमता है। पाठकप्रिय होगा, ऐसी आशा है।




- दामोदर दत्त दीक्षित
1/35, विश्वास खण्ड, गोमती नगर, 
लखनऊ-226010 (उ0प्र0)
मो0-9415516721
ईमेल    radhadamodar21@gmail.com

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