मध्यकालीन हिंदी साहित्य का इतिहास

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मध्यकालीन हिंदी साहित्य का इतिहास अवधी भाषा के काव्य ब्रजभाषा काव्य अवधी भाषा का प्रारंभिक रूप जायसी का पद्मावत ,कुतुबन की मृगावती ,शेखनबी का ज्ञानदीप

मध्यकालीन हिंदी साहित्य का इतिहास


ब युग परिवर्तित होता है ,तब जन जीवन की मान्यताओं ,विचारों और उनसे जुड़ी हुई स्थितियों और प्रवृत्तियों में भी सहज रूप से परिवर्तन आ जाता है। भाषा भी युग परिवर्तन और जन जीवन के परिवर्तन से प्रभावित होती है। हिंदी भाषा भी मध्यकाल में इतनी परिवर्तित हो गयी है कि उसके स्वरुप की कुछ धाराएँ भी निश्चित हो गयी थी। ऐसी धाराओं में ब्रजभाषा और अवधी को विशेष महत्व प्राप्त हुआ। अवधी भाषा का प्रारंभिक रूप कबीर आदि संतों की सधुक्कड़ी भाषा में मिलता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अवधी का जो रूप इन संतों की भाषा में मिलता है ,वह अपरिष्कृत और असांस्कृतिक है। इसके बाद में जायसी ने अपने प्रेमाख्यानों में इसे साहित्यिक माध्यम बनाकर इसके रूप में कुछ परिमार्जन किया। अंत में तुलसीदास के इसे प्रौढ़ प्रेमाख्यान कवियों की भाषा ठेठ अवधी थी ,किन्तु तुलसी ने उसमें संस्कृत शब्दावली का संयोग करके ,परिमार्जित एवं प्रांजल बनाकर साहित्यिक भाषा का गौरव प्रदान किया। 

मध्यकालीन हिंदी साहित्य का इतिहास
अवधी भाषा के काव्य 

अवधी में अधिकांशत: प्रबंधकाव्य ही अच्छे लिखे गए हैं। जायसी का पद्मावत ,कुतुबन की मृगावती ,शेखनबी का ज्ञानदीप ,नूर मोहम्मद की इन्द्रावती आदि सूफी कवियों के रचित प्रेमाख्यान अवधी भाषा में लिखे गए हैं। अवधी का सबसे अधिक उल्लेखनीय प्रबंध काव्य तुलसी कृत रामचरितमानस है जो कि भक्ति प्रदान है। तुलसीदास ने अवधी को अपनाया ,किन्तु वे ब्रजभाषा से भी अप्रभावित नहीं रह सके। उनकी विनयपत्रिका ,कृष्ण गीतावली जैसी रचनाओं में ब्रजभाषा ही प्रयुक्त हुई है। यदि हम हिंदी साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट होता है कि सोलहवीं शताब्दी के पश्चात अवधी भाषा में और कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं रचा गया।तुलसीदास के द्वारा अवधी चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई। 

ब्रजभाषा काव्य

धीरे - धीरे कृष्ण भक्ति शाखा के कवियों ने ब्रजभाषा को महत्व देना प्रारंभ कर दिया। जैसे जैसे कृष्ण भक्ति का प्रचार - प्रसार बढ़ता गया ,वैसे वैसे ब्रजभाषा को भी महत्व मिलता गया। सूरदास ,नंददास ,कुंभनदास ,परमानन्ददास,चतुर्भुजदास ,छीतस्वामी और गोविन्दस्वामी व कृष्णदास आदि कवियों ने ब्रजभाषा को अधिकाधिक प्राणवती और सौन्दर्यमई बनाने का प्रयत्न किया। रसखान यद्यपि मुसलमान थे ,किन्तु कृष्णभक्त थे। उन्होंने भी ब्रजभाषा को ही अधिक महत्व दिया। ब्रजभाषा का प्रभाव आगे चलकर इतना व्यापक हो गया कि अपने उत्कर्षकाल में उसने समस्त उत्तरभारत में काव्य भाषा का स्थान प्राप्त कर लिया। ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप में पर्याप्त निखार आ गया था और रीतिकाल में तो उसके स्वरुप में और परिष्कृति आ गयी। वह प्राणवान बन गयी ,सुन्दरता और शक्ति से संपन्न हो गयी। रीतिकवियों में बिहारी ,देव ,मतिराम और घनानंद व सेनापति आदि ने ब्रजभाषा को खूब सजा - संवारकर प्रस्तुत किया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मध्यकाल में ब्रजभाषा और अवधी का ही प्रभाव अधिक रहा। इस काल की भाषा के प्रारम्भिक रूपों में क्रिया ,सर्वनाम आदि के प्रयोगों पर अपभ्रंश का ही अधिक प्रभाव रहा। विदेशी शब्दों का भी पर्याप्त समावेश हुआ है। 

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