स्वाभिमान हिंदी कहानी बच्चे को भीख माँगते देख मेरा मन विचलित हो उठा विचलित मन में दया का उपजना एक विचित्र-सी स्थिति पैदा कर देता है लूटनेवाले बुझदिल
स्वाभिमान
फाटक के बाहर एक मासूम बच्चा खड़ा था --- गौर वर्ण का, सुन्दर नाक-नक्शे का परन्तु उसके बदन पर फटी-पुरानी कमीच थी और वह फटा-भद्दा-सा पेंट पहने था। मुझे देख झिझकते हुए उसने दाहिना हाथ आगे फैलाया और कहने लगा, ‘बाबूजी, कुछ पैसे दे दो।’
इस प्यारे बच्चे को भीख माँगते देख मेरा मन विचलित हो उठा। विचलित मन में दया का उपजना एक विचित्र-सी स्थिति पैदा कर देता है। मैं तिलमिला उठा, ‘तुम्हारे माँ-बाप कैसे हैं जो इस उम्र में तुमसे भीख मँगवा रहे हैं? भीख माँगना बुरी बात है। यूँ भीख माँगते गिड़गिड़ाते फिरना अच्छा नहीं लगता।’ मेरे इस प्रश्न में चोट थी --- आहत करने का दुर्गुण।
वह कुछ देर चुप खड़ा रहा --- उसकी आँखें झुक गईं थी --- शायद आँसुओं को छिपाने का प्रयास कर रहीं थी।
‘
बाबूजी, वे होते तो मैं भीख क्यूँ माँगता?’ उसने सगर्व कहा। वह आँखें फाड़े मेरी ओर देख रहा था जैसे कह रहा हो कि गरीबी ने उसे मजबूर कर दिया है। गरीबी को मान लेना शर्म की बात नहीं है। शर्म तो तब लगती है जब हम गरीबी से हार मान लेते हैं।
‘माँ-बाप नहीं हैं तो अब तुम रहते कहाँ हो?’ मैंने प्रश्न किया।
‘कालकोठरी में जहाँ मुझे चुराकर ढकेल दिया गया था। तब मैं बहुत छोटा था। बड़ा हुआ तो मुझसे पूछा गया कि चोरी करोगे या भीख माँगना पसंद करोगे। मुझे दोनों काम बुरे लगे। पर करता क्या? मुझे भीख माँगना बेहतर लगा।’
‘फिर?’ मैंने पूछा।
‘कई बार भागने की कोशिश की, पर जाता भी कहाँ ! हर बार पकड़ा गया,’ अब वह सिसकने लगा था। स्मृतियाँ दर्द भरी हों तो आँसू उमड़ पड़ते हैं।
मुझे वह बच्चा स्वाभिमानी लगा। चोरी करना उसे ज्यादा घृणित लगा। भीख माँगना उसकी मजबूरी थी। फिर भी मैंने पूछ ही लिया, ‘तुम्हें भीख माँगना बेहतर क्यूँ लगा?’
‘बाबूजी, डरते-डरते चोरी करना, मार खाना और फिर लज्जित होकर दया की भीख माँगते जीने से अच्छा है बिना दुष्कर्म किये दया की भीख माँगना। शायद किसी की दुआ से हो सकता है कि भीख माँगते समय किसी दिन मुझे मेरे माता-पिता दिख जावें। मैं तो उन्हें नहीं पहचानता, शायद वे मुझे पहचान लें,’ वह आँसुओं पर काबू पाकर कहने का प्रयास किये जा रहा था। ‘बाबूजी, मैं जिन्दगी से भागना नहीं चाहता। देखूँ कि भगवान मुझे कब तक सताता है? वह कभी तो चाहेगा कि मैं वो जिन्दगी जियूँ जिसके लिये उसने मुझे दुनिया में भेजा है।’
सच, स्वाभिमानी चुनोंतियों से मुकाबला करना जानते हैं, पर कब तक? शायद इसी जिज्ञासावश मैंने पूछ ही लिया, ‘बेटा, यह खोज कब तक करते रहोगे?’
वह चुप रहा पर उसकी आँखें कह रहीं थी, ‘बाबूजी, जिन्दगी जब तक पूरी तरह पस्त नहीं हो जाती, हार नहीं मानती। मुझे जिन्दगी भगवान ने उपहार में दी है। इसे लूटनेवाले बुझदिल हैं --- दरिंदे हैं --- मैं उन्हें यूँ ही जीतने नहीं दूँगा। बाबूजी, कोई भी दर्द इतना बेरहम नहीं होता कि वह आँसू की बाढ़ में हौसले बहा दे और हमारा यह अस्तित्व ही मिटा दे।
- भूपेन्द्र कुमार दवे
जबलपुर , मध्य प्रदेश
मर्मस्पर्शी कथा
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