भरतवर्ष से भारतवर्ष

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काल समय और इतिहास की जानकारी के लिए शास्त्र का अध्ययन अध्यापन प्रमाण समुचित होता है। महाराज भरत बहुत विषय के जानने वाले थे।

भरतवर्ष से भारतवर्ष


काल समय और इतिहास की जानकारी के लिए शास्त्र का अध्ययन अध्यापन प्रमाण समुचित होता है। महाराज भरत बहुत विषय के जानने वाले थे। भारत ने अपनी अपनी कर्मों में प्रायः प्रजा का बाप दादा के सदृष्य स्वधर्म संस्कार में रहकर वात्सल्य अभाव जनमानस का पालन करते थे।श्री भागवत - सुधा सागर के अनुसार इस काल समय वर्ष को जो जाना हुआ ना हो यानी अजान भव वर्ष था इसलिए राजा भरत के समय के ही भारत का नामकरण भारतवर्ष पड़ा।
  
महाराज भरत  आग्नहोत्र ओ करते, और भगवान के लिए निश्चय यजन (यज्ञ) किया करे थे! भरत बड़े ही भद्र और भागवत‌् भक्त थे। उन्हें भगवान ऋषभ देव ने कुछ भी की रक्षा करने के लिए जो नियुक्त किया था। उन्होंने अनेकों यज्ञ और अनुष्ठान किए उसे जैसे उत्पन्न पुण्य फल को प्राप्त कर यज्ञ पुरुष भगवान वासुदेव को अर्पण कर देते थे। भरत जी देवताओं के नियामक (नियम और व्यवस्था करने वाले) होने से ,मुख्य करता और प्रधान देव हैं।

भरत का चिंतन

अपनी भगवन दर्पण बुद्धि की कुशलता और हृदय की राग द्वेष आदि मलों का मार्जिन करते वे सूर्य आदि सभी यज्ञ भोक्ता देवताओं तथा भगवान के नेत्र ज्योति आदि अवयवों के रूप में चिंतन करते थे। इन्हीं कर्मों के करने से उनका अंतकरण शुद्ध हो गया था।

भरत में उत्कृष्ट ईश्वर प्रेम

भरतवर्ष से भारतवर्ष
भरत के ह्रदय में अंतर्यामी रूप से विराजमान, हृदय आकाश में अभिव्यक्ति रूप में विराजमान, ब्रम्ह स्वरुप, महापुरुषों के लक्षणों से उपलक्षित(चिह्न से प्रकाशित) भगवान वासुदेव में, श्री वत्स, कौस्तुभ, वन माला, चक्र,शंख और गदा आदि से शोभायमान ऋषि नारद मुनि आदि निज़ जनों के हृदय कमल में चित्र सदृष्य निश्चल भाव ( अचल) रहती हैं! ईश्वर के प्रति प्रति दिन प्रेम बेग पूर्ण बढ़ने वाली उत्कृष्ट भक्ति उन्हें मिलीं।

भरत का त्रिकाल संध्या स्नान
भारत जी त्रिकाल स्नान करते थे। जिसके कारण उनके के घुघराली लटों में बदल गए थे। उनके केस का रंग भूरा भूरा हो गया। केस के बड़े हो जाने के कारण भी बहुत सुहावने लगने लगे।

भरत के आराधना का समय
उदित हुए सूरज मंडल संबंधी मान्य ऋचाओं द्वारा ज्योतिर्गमय परम पुरुष नारायण की आराधना करते थे।  उलहाश्रम श्रम का उपवन वन उपवन में एकांत स्थान में अकेले चन्द्र नदी (गंडक नदी) नाम सुप्रसिद्ध है सारिता के किनारे, जहां चक्र कार शालग्रामशिला - को ऋषियों के आश्रम को पवित्र किया है। वहां रह कर पत्र, पुष्प, तुलसीदास दल, जल और कंद मूल फलोदी से भगवान की आराधना करते थे। फलस्वरूप उनका अंतः करण सभी विषय अभिलाषा उसे निवृत होकर सांच हो गया और उन्हें परमानंद की अनुभूति होने लगी। जब वह नियमानुसार भगवान की परिचय चार करनी लगे तब उनके जमीं में प्रेम का बेग उमड़ - घूमड़ नें लगा । जिससे ह्रदय कमल द्रवीभूत होकर शान्त हो  नें लगा और आनंद की प्रबल बेग से शरीर में रोमांच होने लगा, उत्कंठा के कारण नेत्रों में प्रेम के आंसू निकलते हुए देखा नें लगे।

सूर्य आराधना 

भरत जी सूर्य की आराधना विधि विधान से क्या करते थे। भगवान सूर्य के लिए किया गया कर्म - हाय दायक तेज प्रकृति से परे है। वही तेज पुंज अंतर्यामी रुप से प्रवेश होकर अपनी चिंतन शक्ति द्वारा विषय लोलुप जीवो की रक्षा करता है। हमें उसे बुद्धि प्रवर्तक बुद्धि वर्धक तेज की शरण में रहना चाहिए। जो समझते पापों का नाश करने वाला ईश्वर के प्रति निष्ठा प्रेम और सद्भाव का भाव रखने वाला है।

इस प्रकार मनुष्य का लोगो परलोक में कर्मों का फल भोगते हुए देहाभिमान का संशय नहीं रहता है। मनुष्य महा मोह मय काल पास से छुटकारा पा जाता है।

- सुख मंगल सिंह 

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