नदी का रास्ता कविता का अर्थ सारांश प्रश्न उत्तर

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नदी का रास्ता कविता बालकृष्ण राव


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नदी का रास्ता कविता का अर्थ व्याख्या


नदी को रास्‍ता किसने दिखाया?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्‍मुक्‍त बहने दे?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिन्धु की गम्भीरता
स्‍वच्‍छन्द बहकर?

व्याख्या - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि नदी की जीवनी प्रारम्भ करते हुए पूछता है कि नदी को किस दिशा में बहना है ,कहाँ तक बहना है ,उसका रास्ता कौन सा है , यह बात उसे किसने बताई ? अपनी भावना की तेज़ी को बिना किसी बाधा के इच्छानुसार बहने दे यह उसे किसने सिखाया है ? वह सागर की गहराई तक अपना रास्ता स्वयं पता लगा लेगी। किसी से सागर तक का रास्ता पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। उसके लिए तो सिर्फ एक बार चल पड़ना ही काफी है। 

इसे हम पूछते आए युगों से,
और सुनते भी युगों से आ रहे उत्‍तर नदी का।
मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने,
बनाया मार्ग मैने आप ही अपना।

व्याख्या - कवि का कहना है कि नदी समुद्र की ओर किस रास्ते से आ रही है और क्यों जा रही है ? इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य का मन अनंत समय से पूछता आ रहा है और अनंत समय से ही नदी स्वयं इस प्रश्न का उत्तर देती आ रही है। नदी कहती है - मुझे रास्ता बताने के लिए कभी कोई नहीं आया। मुझे जिधर जाना है ,उधर का रास्ता मैं स्वयं बना लेती हूँ और आगे बढ़ जाती हूँ। ,

नदी का रास्ता कविता का अर्थ सारांश प्रश्न उत्तर
ढकेला था शिलाओं को,
गिरी निर्भिकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से,
वनों में, कंदराओं में,
भटकती, भूलती मैं
फूलती उत्‍साह से प्रत्‍येक बाधा-विघ्‍न को
ठोकर लगाकर, ठेलकर,
बढती गई आगे निरन्तर
एक तट को दूसरे से दूरतर करती।

व्याख्या - नदी कहती है कि मैंने पहाड़ों पर अपने मार्ग में आने वाले भारी पत्थरों को आगे ढकेलकर अपना रास्ता बनाया था। जब मैं ऊँचे झरनों ने नीचे गिरी थी ,तब भी मुझे भय नहीं लगा था। कभी मुझे वनों से होकर तो कभी गुफाओं और घाटियों से होकर आगे बढ़ना पड़ा। कभी मैं यूँ ही भटकती सी आगे बढ़ती रही ,मैंने अपने मार्ग की सभी विघ्न - बाधाओं का सामना किया ,उन पर विजय पायी और विजय की ख़ुशी में मार्ग की बाधाओं को ठोकर लगाती ,कभी उन्हें आगे धकेलती ,बिना रुके ही आगे बढ़ते गयी। इस प्रकार मैदानी भागों में पहुँचने पर मेरा जल बढ़ता गया और दोनों किनारों की दूरी बढ़ती गयी। 

बढ़ी सम्पन्‍नता के
और अपने दूर-दूर तक फैले साम्राज्‍य के अनुरूप
गति को मन्द कर...
पहुँची जहाँ सागर खडा था
फेन की माला लिए
मेरी प्रतीक्षा में।
यही इतिवृत्‍त मेरा ...

व्याख्या - नदी कहती है कि जब मेरे अन्दर जल बहुत बढ़ गया और मैं धनवती सी लगने लगी और मेरा जल दूर - दूर तक फ़ैल गया था। उस समय मेरी गति धीमी हो गयी थी। अंत में मैं सागर के पास पहुँच गयी। सागर मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। मेरा स्वागत करने के लिए वह झागों की माला सी लिए खड़ा था। मेरी यही इतनी सी कहानी है। मैंने अपनी यात्रा ,उन्नति और विकास का मार्ग स्वयं ही बनाया था। 

मार्ग मैने आप ही बनाया।
मगर भूमि का है दावा,
कि उसने ही बनाया था नदी का मार्ग ,
उसने ही
चलाया था नदी को फिर
जहाँ, जैसे, जिधर चाहा,
शिलाएँ सामने कर दी
जहाँ वह चाहती थी
रास्‍ता बदले नदी,
जरा बाएँ मुड़े
या दाहिने होकर निकल जाए,
स्‍वयं नीची हुई
गति में नदी के
वेग लाने के लिए
बनी समतल
जहाँ चाहा कि उसकी चाल धीमी हो।

व्याख्या - नदी कहती है कि वैसे तो मैं अपनी शक्ति और पुरुषार्थ से आगे बढती हूँ ,परन्तु मेरे आगे बढ़ने की तारीफ़ धरती लेना चाहती है। धरती कहती है कि नदी को आगे बढ़ने का मार्ग मैं बताती हूँ। जिधर मैं ढलान देती हूँ ,उधर ही नदी को आगे बढ़ना पड़ता है। वह अपनी इच्छा से अपना मार्ग नहीं बना सकती है। भूमि की ढलान दाएँ - बाएँ ,आगे -पीछे जिधर होती है ,नदी उधर ही बहती है। वह मेरी इच्छा के बिना अपना रास्ता बदल नहीं सकती है। नदी के बहाव में तेज़ी लाना मेरी ढलान पर निर्भर है। जहाँ भूमि समतल होती है ,वहाँ बहाव धीमा हो जाता है। इस प्रकार तेज़ बहना या धीमा बहना भी नदी के अपने हाथ में नहीं है। 

बनाती राह,
गति को तीव्र अथवा मन्द करती
जंगलों में और नगरों में नचाती
ले गई भोली नदी को भूमि सागर तक
किधर है सत्‍य?

व्याख्या - भूमि भी अपनी ढलान के रूप में नदी को आगे बढ़ने का मार्ग बताती है। उसी के अनुसार उसकी गति तेज़ या मंद होती है। उसी के अनुसार उसे जंगलों या नगरों में से होकर बहना पड़ता है। इस प्रकार नदी स्वयं से असहाय होती है। केवल धरती ही इसे सागर तक पहुँचाती है। 

मन के वेग ने
परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर
रास्‍ता अपना निकाला था,
कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस
जिधर परिवेश ने झुककर
स्‍वयं ही राह दे दी थी?
किधर है सत्‍य?
क्‍या आप इसका जबाब देंगे?

व्याख्या - कवि पूछता है कि सत्य क्या है ? मन के वेग या इच्छा शक्ति से परिस्थितियां बनती बदलती हैं या परिस्थितियों के अनुसार ही कोई बनता है ,उन्नति या अवनति होती है। क्या मन की इच्छा परिस्थितियों पर निर्भर है ,विजयी कौन है ? बलवान कौन है ? किसकी शक्ति अधिक है ? इच्छा शक्ति परिस्थितियों के अनुसार ढलता चला जाता है। इन दोनों में स्थितियों में कौन सी स्थिति सत्य ? इसका निर्णय कर पाना कठिन है। 

नदी का रास्ता कविता के प्रश्न उत्तर


प्र. नदी को रास्ता दिखाने के बारे में धरती का क्या दावा है ?
उ. भूमि का दावा है कि नदी को आगे बढ़ने का मार्ग मैं बताती हूँ। जिधर मैं ढलान देती हूँ। उधर ही नदी को बढ़ना पड़ता है। नदी अपनी इच्छा से अपना मार्ग नहीं बना सकती है। भूमि की ढलान दाएँ -बाएँ ,आगे पीछे जिधर होती है ,नदी को उधर ही बहना पड़ता है। वह अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकती है। नदी के बहाव में तेज़ी लाना भूमि की ढलान पर ही निर्भर होता है। जहाँ भूमि समतल होती है ,वहां नदी का बहाव भी धीमा हो जाता है। इस प्रकार भूमि का दावा है कि नदी का मार्ग और गति आदि वह ही निर्धारित करती है। 

प्र. नदी की प्रतीक्षा में कौन खड़ा रहता है ? नदी उसके निकट पहुँचते समय अपनी गति को धीमा क्यों कर देती है ?
उ. नदी की प्रतीक्षा में फेन की माला लेकर सागर खड़ा था। सागर तक पहुँचते पहुँचते नदी का पाट बहुत विशाल हो जाता है। उसका साम्राज्य दूर -दूर तक फ़ैल जाता है। अपने फैले साम्राज्य के अनुरूप ही नदी अपनी गति को मंद कर देती है। 

प्र. धरती के अनुसार वह नदी की चाल को धीमा या तेज़ करने के लिए क्या करती है ?
उ. धरती के अनुसार वह नदी की चाल को धीमा या तेज़ करने के लिए विभिन्न उपायों को काम में लाती है। जब उसे नदी की चाल को धीमा करना होता है ,तब वह उसके सामने शिलाएँ लाकर खड़ा कर देती है और यदि उसकी गति में तेज़ी लानी होती है तो वह स्वयं नीची हो जाती है। इस प्रकार धरती नदी को गति में अपनी इच्छानुसार तीव्रता और धीमापन लाती रहती है। 

प्र. नदी ने अपनी निर्भीकता को कैसे प्रमाणित किया है ?
उ. नदी अपनी निर्भीकता का प्रमाण देते हुए कहती है कि मुझे किसी ने रास्ता नहीं दिखाया। मैंने अपने आप ही अपना मार्ग बनाया है। मैंने निर्भीकतापूर्वक शिलाओं को धकेला है और कई ऊँचे प्रपातों से निर्भीकतापूर्वक नीचे गिरी हूँ। वनों और कंदराओं में भटकती हुई और प्रत्येक विघ्न बाधा को साहसपूर्वक ठोकर मारती हुई निरंतर आगे बढ़ती गयी हूँ। यद्यपि मेरे सामने अनेक बाधाएँ आई हैं ,पर मैंने प्रत्येक बाधा को ठोकर मारकर अपना उत्साह बढ़ाया है। इस प्रकार नदी ने वनों ,कन्दारों को निर्भीकतापूर्वक पार करके ,शिलाओं को धकेलकर और ऊँचे प्रपातों से निर्भीकतापूर्वक नीचे गिरकर अपनी निर्भीकता का प्रमाण प्रस्तुत किया है। 

प्र. मनुष्य के निर्माण में उसके परिवेश का अधिक हाथ होता है या उसकी इच्छा शक्ति का ? स्पष्ट कीजिये। 
उ. यह कहना कि मनुष्य के निर्माण में उसके परिवेश का अधिक हाथ है ,पूरी तरह से सत्य नहीं है। साथ ही यह कहना कि मनुष्य के निर्माण में उसकी इच्छा शक्ति की प्रमुख भूमिका रहती है ,ठीक नहीं है। वस्तुतः मनुष्य के निर्माण में कुछ सीमा तक परिवेश और मनुष्य की अपनी इच्छा शक्ति दोनों का हाथ है। 

नदी का रास्ता कविता का सारांश

नदी का रास्ता कविता बालकृष्ण राव जी की लिखी गयी प्रसिद्ध कविता है। प्रस्तुत कविता में कवि ने नदी की आत्मकथा के माध्यम से बताया है कि जीवन में उन्नति की ओर ले जाने वाली तीन शक्तियां होती है - स्वयं की प्रेरणा ,परिस्थितियां और लक्ष्य। यहाँ कवि ने नदी की आत्मशक्ति को मन की प्रेरणा का प्रतीक ,भूमि को परिस्थितियों तथा अन्य सहायकों का प्रतीक और सागर को लक्ष्य के प्रतीक के रूप में उपस्थित किया है। वास्तव में जीवन को उन्नति की ओर ले जाने में अधिक या कम ,तीनों का ही अपना अपना महत्व है। किन्तु कवि ने इस प्रश्न का उत्तर पाठकों के विचार के लिए खुला छोड़ दिया है। 

नदी का रास्ता कविता का शब्दार्थ

भावना - चाहना 
उन्मुक्त - खुले रूप में 
स्वछन्द - अपनी इच्छा 
वेग - शक्ति 
कन्दरा - गुफा 
दूरतक - अधिक दूर 
सम्पन्नता -धनवान होने की स्थिति 
अनुरूप - रूप के अनुसार 
मंद - धीमी 
समतल - एकसार 
तीव्र - तेज़ 
बेबस - असहाय 
परिवेश - वातावरण

COMMENTS

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  1. नदी की रास्ता बदलने में भूमि ने उसकी क्या सहायता की

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  2. नदी की रास्ता बदलने में भूमि ने उसकी क्या सहायता की

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