कतौता की फसलें

SHARE:

कतौता की फसलें प्रकृति हमारी अपनी ज़िंदगी की बेपनाह दौलत का एक बड़ा हिस्सा है जिसकी बदौलत हम सब यहाँ जीवन यापन कर रहे हैं। इन पंक्तियों में दास जी ने अप

कतौता की नयी फसल का स्वागत

         
पनी संवेदनाओं की कसौटी पर जो भी विधा रच जाए उसे हिंदी साहित्य प्रायः स्वीकार कर ही  लेती है।  आवश्यकता इस बात की होती है कि आपकी अनुभूतियों की सघनता कितनी प्रबल है और वह किस फ्रेम में समा पाती है। जापानी साहित्य की विधाओं के साथ भी ऐसा ही कुछ है; इसमें हमारे अपने भाव कुछ हाइकु, हाइकु मुक्तक, ताँका, सेदोका एवं कुछ चोका बन जाते हैं। तात्पर्य यह समय की एक माँग है, ऐसी ही एक नयी विधा’ कतौता’ लेकर प्रस्तुत हुए हैं, देवेन्द्र नारायण दास,अपने संग्रह-‘कतौता की फसलें’ में।  इस विधा का अपना  कोई इतिहास नहीं मिलता अस्तु अभी इसकी स्वीकार्यता में विलम्ब होगा।
          
कतौता की फसलें
विश्व का  यह दूसरा कतौता संग्रह वरिष्ठ रचनाकार डॉ. सुधा गुप्ता को समर्पित है। जापानी साहित्य की सभी विधाओं में पारंगत बसना निवासी देवेंद्र नारायण दास ने इस बार कतौता लेखन में अपना हाथ आजमाया है। इससे पूर्व आपने हाइकु, हाइकु मुक्तक, ताँका, सेदोका,चोका एवं कविता तथा ग़ज़ल लेखन का कार्य संपन्न किया है। कतौता तीन पंक्तियों की 5,7,7 वर्णों में विन्यस्त होती है, इसमें भी अन्य विधाओं की तरह कविता के सभी तत्व विद्यमान होते हैं। इस संग्रह में 385 कतौता हैं जो विविध भावों में रचे गए हैं।  इनकी बुनावट उम्दा है तथा भावों के प्रकटीकरण पर आपका अधिकार इनमें स्पष्ट परिलक्षित होता है। 
          
जैसा की प्रत्येक काव्य विधाओं के लिए अनिवार्य होता कि उसमें काव्यत्व उपस्थित हों और जापानी विधाओं में तो प्रकृति स्वयं से काव्य तत्व के रूप में विद्यमान रहती है। प्रकृति हमारी अपनी ज़िंदगी की बेपनाह दौलत का एक बड़ा हिस्सा है जिसकी बदौलत हम सब यहाँ जीवन यापन कर रहे हैं। इन पंक्तियों में दास जी ने अपनी प्रकृति को चलचित्र की तरह हम पाठकों के लिए उपलब्ध करा दिया है। शब्दों की बुनावट उत्कृष्ट है शब्दों के चयन में अति सावधानी बरती गयी है। यहाँ प्रकृति के दोनों रूप का वर्णन है एक ओर हम इसके लोकमंगल को देख रहे हैं वहीं दूसरी ओर इंसानी करतूतों का खामियाज़ा इस पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत है-

खड़ी यामिनी/मधुकलश लिए/चैत पूनो चाँदनी।
वासंती हवा/नव छंद उकेरे/मौसम महकाये।
फूलों के रथ/बैठ वसंत आया/महकी मंजरियाँ।
नैन हमारे/सावन-भादो बने/घनश्याम ना आए।
मत लाँघना/धूप ने लगाई है/ एक सौ चौरालिस।
जलते पाँव/ ढूँढे पेड़ों की छाँव/दिखते नहीं गाँव।
          
जीवन है तो यहाँ सुख-दुःख का डेरा भी स्वाभाविक ही है इनके साथ हो लेती हैं कभी यादें तो कभी आँसू। चार दिन काटना इतना दूभर पहले कभी नहीं रहा क्योंकि इस यात्रा में उसके साथ होते थे-उसका घर,परिवार,समाज और रिश्ते। आज की परिस्थिति में इनकी परिभाषाएँ जटिल होकर सिकुड़ गयीं हैं फलतः वृद्धाश्रम और अनाथालय की संख्या में वृद्धि चिंताजनक है। जीवन की इसी पोटली को खोलकर ये कतौता के नूतन बिम्ब हमारे सामने प्रस्तुत हुए हैं जो सजीव लगते हैं- 

तृष्णा नागिन/बहुत जहरीली/मन चाहे डसती।
मुसाफिर है/दुनिया धर्मशाला/दो दिन का बसेरा।
जीवित देह/यादों का तहखाना/आँसुओं का खजाना।
सुख औ दुःख/जीवन की गठरी/तेरी-मेरी सबकी। 
थिरक उठे/  यौवन धरे पाँव/ सपने के ही गाँव।
झूठे रिश्तों को/जीवन में पिरोया/कोई साथ जाएगा। 
भटक रहा/रिश्तों के संसार में/मन फँसा माया में।
          
आपके कतौता जीवन की सूक्ष्मता तलाशने में भूख की खाली हंडिया से लेकर आम किसान, श्रमिकों की समस्याओं तक पहुँच गए हैं। कर्ज़ के दलदल में गिरवी खेत, ओले की मार और  बंधुआ मज़दूर की समस्या इसमें है इसकी तुलना आपने महुआ पेड़ से की है। यहाँ आपके प्रतीक नूतनता लिए हुए हैं और दृश्यों की तुलनात्मकता सुन्दर है -  

खेत गिरवी/फूलमती चेहरा/लगे उतरा हुआ।
जल न पाई/गीली है लकड़ियाँ/खाली पड़ी हंडिया।
ओले बरसे/पाखी भूख से मरे/श्रमिक कर्ज करे।
पिंजरा पंछी/बंधुआ मजदूर/खूंटे से गाय बंधी।
महुआ पेड़/आदिवासी चिड़िया/पाखी बैठी प्रतीक्षा।
         
श्रम एवं पसीने की समवेत महत्ता को वर्तमान दौर के मशीनी युग ने लील लिया है। इसी दौर में अब लोगों का जीवन भी यांत्रिक हो चला है जिसके चलते यहाँ बेशुमार विसंगतियाँ पनपी हैं। मर्यादाओं को धता बताते हुए लोगों ने ही समस्याएँ पैदा की और अब इन्हीं समस्याओं की तलाश में भटक रहे हैं। ऐसी ही कुछ विसंगतियों को रचनाकार ने अपनी सशक्त लेखनी से रेखांकित किया है। 

सोचो-संभलो/कातिलों का शहर/मसलते फूलों को।
पिंजरा खाली/मैना भी उड़ गई/ बच्ची चीख के रोई।
नफरत की/मत चढ़ो सीढ़ियाँ/देख रही घड़ियाँ।
आज आदमी/साँप सा जहरीला/वक्त देख डसता।  
श्रम की पूजा/महामंत्र युग का/हँस पसीना बहा।
          
आशा करता हूँ की यह संग्रह ‘कतौता की फसलें’ रचनाकारों एवं पाठकों को पसंद आएगी तथा इसकी रचना प्रक्रिया अन्यों को लुभाएगी। कतौता लेखन का यह क्रम लगातार चलता रहे और यह अपने अनुयायियों के लिए प्रेरणास्रोत बने। इस पठनीय एवं संग्रहणीय संग्रह के लिए बहुत बधाई एवं अनंत शुभकामनाएँ।



- रमेश कुमार सोनी
कबीर नगर -रायपुर, छत्तीसगढ़,  492099
मो.9424220209/ 7049355476

.........

कतौता की फसलें, कतौता संग्रह-देवेंद्र नारायण दास बसना 
श्वेतांशु प्रकाशन- दिल्ली 2021, मूल्य- ₹250, पृष्ठ संख्या- 112 
ISBN:978-93-91437-31-2
.........

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका