नदी की आत्मकथा पर निबंध हिंदी | Nadi Ki Atmakatha Essay

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नदी की आत्मकथा 


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मनोरम दृश्य 

मुझे चलने का बड़ा चाव है। सच कहूँ ,मेरे पिता का घर इतना मनोरम है कि वहां घंटों घंटों ठहरने का मन करता है। कहीं हरी - हरी घाटियाँ हैं ,कहीं बर्फ की चादर ओढ़े पहाड़ है ,कहीं गहरी खाइयाँ हैं ,परन्तु तब भी मैं रूकती नहीं हूँ। मैं कलकल स्वर में नाद करती हुई चली जाती हूँ। यही संकल्प दोहराती रहती हूँ -

गहन सघन मनमोहक वन तरु, मुझको आज बुलाते हैं, 
किन्तु किये जो वादे मैने याद मुझे आ जाते हैं
अभी कहाँ आराम बदा, यह मूक निमंत्रण छलना है 
अरे अभी तो मीलों मुझको, मीलों मुझको चलना है ।


जन्म से लेकर समुन्द्र में मिलने तक मैं ठहरती नहीं हूँ। 
नदी की आत्मकथा पर निबंध हिंदी | Nadi Ki Atmakatha Essay

जैसा की सभी जानते हैं कि मेरा जन्म पिता की करुणा से हुआ है। अतः मैं भूखे प्यासे जनों को अन्न जल का दान करने के लिए दौड़ती फिरती हूँ।  हिमालय की सभी पवित्र जड़ी बूटियों का रस समेट कर मैं जन - जन को खुले हाथों बाँटती हूँ। मैं किसानों द्वारा रोपे गए बीजों को विकसित करती हूँ ,उन्ही फल सब्जी बनाकर लोगों का पेट भरती हूँ। कपास पैदा करके तन को वस्त्र ओढाती हूँ। वृक्षों की लकड़ियों प्रदान कर भवन का निर्माण तो करती ही हूँ , सदैव हरियाली उगाकर पर्यावरण को स्वच्छ भी मैं ही बनाती हूँ। 

मैं अभिमान नहीं करती हूँ। परन्तु फिर भी बताती हूँ कि मेरे जल के बिना विज्ञान चाहे कितने हाथ पाँव मार ले ,वह अपना कोई भी यंत्र नहीं चला सकता है। शायद रहीम जी मेरी महिमा को बहुत पहले समझ गए थे। तभी तो उन्होंने कहा था - 

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। 
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥

मेरे जल के बिना न बड़े बड़े बाँध बन सकते हैं ,न बिजली पैदा हो सकती है ,न कल - कारखाने चल सकते हैं ,न ही यह आधुनिक चकाचौंध सभ्यता खड़ी हो सकती है। 

नदी का शील सौन्दर्य 

मैं नदी समतल धरती पर उतरने से पहले इतनी सुन्दर और स्वच्छ रहती हूँ कि अपना रूप देखकर स्वयं मुग्ध हो जाती हूँ। परन्तु इस धरती के लोग बड़े नालायक हैं। ये दोनों हाथों से मेरा शोषण करते हैं। उन्हें धन - धान्य देने में तो मुझे सुख ही मिलता है। परन्तु वे निर्लज्ज ,वे कृतघ्न मुझे धन्यवाद देने की बजाय अपना मल ,कीच - कर्दम ,कूड़ा कर्कट ,नाले मुझी में डाल देते हैं। परिणामस्वरूप दिल्ली तक पहुँचने पहुँचने मुझे मेरे हाल पर तरस आने लगता है। मैं हिमालय की पुत्री इसी संकोच में मथुरा वृंदावन इतनी थकी हुई चाल से चलती हूँ कि मेरा कान्हा अब मेरे किराने कैसे खेलने आएगा। मैं समझ नहीं पाती हूँ कि लोग ऐसे कैसे कर लेते हैं कि वे प्राण दान लेकर भी शील सौन्दर्य क्यों हर लेते हैं ? ये क्या चेतन प्राणी बिलकुल जड़ होते हैं ?

ओह ! मैं भी क्या अपनी व्यथा कथा ले बैठी।  मैं तो हूँ ही नारी जात।  इस जगत को देना ही मेरा धर्म है। ये मेरे पुत्रवत जन मुझे लूटें या मेरी गोदी में खेलें - इनकी इच्छा।  

इस अर्पण में कुछ और नहीं ,केवल उत्सर्ग छलकता है। 
मैं दे दूं और न फिर कुछ लूँ ,इतना ही सरल झलकता है। 

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