सोशल मीडिया और मातृभाषा

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सोशल मीडिया और मातृभाषा साहित्य की परिधि वहां तक है जहां तक भाषा का आकाश फैला हुआ है।दिलचस्प बात यह है कि कम्प्यूटर में कोई काम भाषा के बिना संभव नहीं

सोशल मीडिया और मातृभाषा


न दिनों अकादमिक जगत का एक वर्ग सोशलमीडिया से क्षुब्ध है।खासकर हिन्दी के प्रोफेसर और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग में सोशलमीडिया को लेकर हेयभाव है।वे इसमें लिखने-पढ़ने को थर्डग्रेड किस्म का काम समझते हैं।यदि सोशलमीडिया पर कोई मेरा जैसा प्रोफेसर सक्रिय है तो उसे एकदम अ-गंभीर और गैर-जिम्मेदार समझते हैं।मेरी फेसबुक वॉल पर आए दिन इस तरह के क्षुब्ध लोग लिखते रहते हैं कि सब समय तो फेसबुक पर रहते हो फिर पढ़ाने कब जाते हो ॽ सच्चाई यह है मैं कक्षा में कभी अनुपस्थित नहीं रहा।कभी कोर्स अधूरा नहीं छोड़ा।बल्कि हिन्दी के जितने भी प्रोफेसर हैं उनमें अब तक सबसे ज्यादा किताबें लिखी हैं।किताबों के पाठक भी हैं।कभी किताब लिखना नहीं छोड़ा।कभी किसी की चमचागिरी नहीं की,किताबें लिखने के लिए किसी से अनुदान नहीं लिया,यहां तक कि यूजीसी और अपने विश्वविद्यालय से भी कोई अनुदान नहीं लिया। इस तरह के लोग यह भी मानते हैं कि हल्के-फुल्के लेखन,फोटो लगाने,दैनंदिन गप्पबाजी करने आदि के लिए सोशलमीडिया ठीक है लेकिन कोई गंभीर साहित्यिक कार्य सोशलमीडिया के जरिए नहीं कर सकते।हम विनम्रता के साथ इस तरह का नजरिया रखने वालों से असहमत हैं।ये वे लोग हैं जो सोशलमीडिया के चरित्र से अंजान हैं या फिर जानबूझकर सोशलमीडिया विरोधी अभियान में लगे हैं। 

सोशलमीडिया वस्तुतः भाषा का विस्तार है। यह भाषा का विकसित रूप है।भाषा मूलतः अभिव्यक्ति की तकनीक है। भाषा में दो तरह की अभिव्यक्ति नजर आती है।पहली अभिव्यक्ति वह है जो दैनंदिन जीवन से जुड़ी है।जिसका हम क्षणिक उपयोग करते हैं और वह उपयोग करते ही खत्म हो जाती है। दैनंदिन जीवन की क्षुद्र बातों और क्षुद्र कर्मों की सीमा में भाषा का एक रूप खत्म हो जाता है।लेकिन भाषा का एक रूप वह भी है जो वनस्पति की तरह है।जिस तरह वनस्पति की उम्र लंबी होती है,ठीक उसी तरह भाषा में रचे गए साहित्य की भी उम्र लंबी होती है।जिस तरह वनस्पति में शाखा-प्रशाखाएं होती हैं,उसी तरह साहित्य में भी विभिन्न किस्म की विधाएं होती हैं,विभिन्न माध्यमों की साहित्यिक विधाएं होती हैं।भाषा में हम तथ्य या सूचनाएं भी देते हैं उसी तरह मनोभावों को भी व्यक्त करते हैं।जिस तरह गालियां देते हैं उसी तरह कविता,कहानी आदि भी लिखते हैं।भाषा में गुस्सा,प्रेम,घृणा आदि को भी यथास्थान व्यक्त करते हैं।इसमें ध्वनि और भंगिमाएं भी होती हैं।सभ्यता के विकासक्रम में भाषा के इस रूप से हम बहुत आगे चले आए हैं।भाषा के रूपों के विकास में हमेशा ´मैं´केन्द्र में रहा है। माध्यमों में भी अभिव्यक्ति के विभिन्न विधा रूपों में ´मैं´केन्द्र में है।इसी तरह भाषा में दैनंदिन जीवन ही केन्द्र में नहीं है अपितु ज्ञान भी है।इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे संचार के तकनीकी रूप वस्तुतः भाषा का विस्तार हैं।

सोशल मीडिया और मातृभाषा
सोशलमीडिया में लिखे को साहित्य कहें या न कहें यह सवाल बहस के केन्द्र लाने की जरूरत है। इससे साहित्य के मौजूदा स्वरूप और दायरे का विकास होगा।इस प्रसंग में मुझे रवीन्द्रनाथ टैगोर की साहित्य संबंधी परिभाषा याद पड़ रही है। टैगोर के अनुसार साहित्य का सहज अर्थ है ´नैकट्य अर्थात् सम्मिलन´।भाषा के क्षेत्र में साहित्य का काम है ´हृदय का योग कराना´।टैगोर ने लिखा है, ´मनुष्य को तरह-तरह के उद्देश्यों के लिए मिलना पड़ता है,इसके अलावा मनुष्य को मिलना पड़ता है केवल मिलने के लिए,अर्थात् साहित्य के उद्देश्य से।´नए मीडिया रूप,खासकर सोशलमीडिया की विशेषता है मिलाना। सम्मिलन की इच्छा को नए किस्म के संचार ने प्रमुख बनाया है।जिससे आप मिलना चाहते हैं उससे अब नए मीडियम के जरिए मिलते हैं।ये मीडियम हैं मोबाइल,इंटरनेट,सोशलमीडिया आदि।अब यह आपके ऊपर है कि संचार के दौरान क्या करना चाहते हैं।यह संचार व्यक्ति का व्यक्ति से भी हो सकता है और व्यक्ति का समाज से भी हो सकता है।यह दैनंदिन जीवन से जुड़ा भी हो सकता है और कलात्मक-साहित्यिक भी हो सकता है।यह मन की इच्छाओं पर निर्भर करता है।मनुष्य के पास दो तरह की इच्छाएं हैं,पहला ,सामान्य इच्छा और दूसरा है अद्भुत इच्छा।सामान्य इच्छा को हम दैनंदिन जीवन की भाषा में अभिव्यक्त करते हैं,जबकि अद्भुत इच्छा हमारे साहित्य सृजन का मूलाधार है।अद्भुत इच्छा के कारण ही मनुष्य अपने को संसार में प्रसारित करता है।साहित्य उसी का विराट रूप है।

जब भी कोई नया मीडियम समाज में जन्म लेता है पुराने मीडियम के प्रयोगकर्ता परेशानी महसूस करते हैं। उल्लेखनीय है मानव समाज ने भाषायी और कलात्मक अभिव्यक्ति के जितने भी रूप अब तक पैदा किए वे सभी आज तक बरकरार हैं और कला या साहित्य परंपरा के अंग भी हैं।इनमें वाचिक परंपरा के रूपों से लेकर भित्तिचित्र,भित्तिलेखन तक,विधाओं जैसे कविता से लेकर निजी चिट्ठी-पत्री तक शामिल है,पोथी से लेकर किताब तक,पत्र-पत्रिकाओं से लेकर सिनेमातक,रेडियो कम्युनिकेशन से लेकर इंटरनेट तक,सोशलमीडिया से लेकर ईमेल तक सब कुछ शामिल है।

साहित्य की परिधि वहां तक है जहां तक भाषा का आकाश फैला हुआ है।दिलचस्प बात यह है कि कम्प्यूटर में कोई काम भाषा के बिना संभव नहीं है।हर चीज पहले भाषा में लिखी जाती है,यहां तक कि रेडियो,टीवी,फिल्म आदि भी भाषा में लिखे जाते हैं,उसके बाद वे हम तक पहुँचते हैं।सभी किस्म के संचार का मुख्य द्वार है भाषा।इसी तरह भाषा का प्रयोग मनुष्य के बिना संभव नहीं है।इसी अर्थ में भाषा मानवीय कार्य-व्यापार की अभिव्यक्ति का मूलाधार है।यह भी कह सकते हैं मनुष्य के बिना भाषा नहीं,भाषा के बिना मनुष्य नहीं।उसी तरह मीडियम के बिना भाषा नहीं होती।भाषा जब रस की सृष्टि करती है तो मनुष्य में मिलने की इच्छा पैदा होती है।उससे मिलन की इच्छा करती है जो सभी कालों के सभी जनों में स्वीकृति पाए।भाषा में जब रस पैदा होता है तो उसे हम अनुभूति कहते हैं और इसी अनुभूति को मनुष्य विभिन्न माध्यमों के जरिए व्यक्त करने को आतुर हो उठता है।भाषा के विभिन्न माध्यमों में जो रूप हम देखते हैं वे मुनष्य ने तब बनाने आरंभ किए जब उसने नैपुण्य की सृष्टि की। नैपुण्य के कारण ही भाषा को अर्थ मिला।इन्द्रियबोध को विभिन्न उपादानों के जरिए व्यक्त करने की संभावनाएं पैदा हुईं।


यह लेख जगदीश्वर चतुर्वेदी जी द्वारा लिखा गया है .प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग,कलकत्ता विश्वविद्यालय,कोलकाता, स्वतंत्र लेखन और स्वाध्याय .संपर्क ईमेल - jcramram@gmail.com

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