कलकत्ते के बहाने हिंदी आलोचना पर दृष्टिपात

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कलकत्ते के बहाने हिंदी आलोचना पर दृष्टिपात कोलकाता किसी जमाने में साहित्यिक रुचि का महानगर था लेकिन इनदिनों इस महानगर की साहित्यिक रुचियों में गिरावट

कलकत्ते के बहाने हिंदी आलोचना पर दृष्टिपात 


कोलकाता किसी जमाने में साहित्यिक रुचि का महानगर था लेकिन इनदिनों इस महानगर की साहित्यिक रुचियों में गिरावट दिख रही है। हिन्दीवालों में तो वह एकदम निचले स्तर पर है ।कल एक हिंदी के लेखक आए मिलने ,मैंने कहा कुछ पढ़ा करो। बोले समय ही नहीं मिलता ,पचासों मीटिंगें लगी रहती हैं। मैंने कहा यह सब चलता रहेगा साहित्यिक रुचि को बचाने के लिए साहित्य पढ़ना, खरीदना, और लिखना बेहद जरुरी है।  बोले समय ही नहीं मिलता।
     
मैं सुविधा के लिए बता दूँ ये महाशय , केन्द्र सरकार के संस्थान में हिंदी अधिकारी हैं और दैनंदिन काम के बोझ से एकदम मुक्त हैं। लेकिन साहित्य की ठेकेदाकी करतेघूमते रहते हैं। लेकिन न तो किताब खरीदते हैं और न साहित्यिक पत्रिकाएं खरीदते हैं ,बस सीना फुलाए घूमते हैं। इनको कौन समझाए कि सीना फुलाकर घूमने से साहित्यिक रुचि का निर्माण नहीं होता ।

कलकत्ते के बहाने हिंदी आलोचना पर दृष्टिपात
कोलकाता के हिन्दी बौद्धिकों का हाल यह है कि रामचरितमानस की चंद  पंक्तियों से आगे न कुछ बोल पाते हैं और न सोच पाते हैं । इनमें अनेक लोग कॉलेज-विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं । कल्पना कीजिए तुलसीदास रामचरितमानस लिखकर न गए होते तो ये सुधीजन किस तरह अपना ज्ञान -जीवनयापन करते ?कोलकाता के हिंदीसेवी समीक्षकों के आलोचना विवेक का आलम यह है कि वे कभी साहित्यिक विवाद नहीं करते ।  यदि कभी किसी ने आलोचना कर दी तो उस व्यक्ति को वे वर्गशत्रु घोषित कर देते हैं ।
     
मेरे एक मित्र हैं,साथ पढ़ाते हैं, धाकड़ आलोचक हैं,पत्रिका भी निकालते हैं,एकबार उनके पत्रिका के एक अंक की रविवार में मैंने तीखी आलोचना लिख दी ।वे महोदय नाराज हो गए और उन्होंने दस साल तक अपने किसी भी कार्यक्रम के सूचना कार्ड तक मुझे नहीं दिए और मुझे अपनी मेलिंग लिस्ट में ब्लैकलिस्ट कर दिया । दस साल बाद वे थोड़े नरम पड़े और एकदिन अपने कार्यक्रम का कार्ड दिया ,मैं हँस दिया और कहा आज यह उलटीगंगा क्यों बह रही है  ? वे चुप थे,मैंने कहा दस साल से कार्यक्रम का कार्ड नहीं  दिया ,अब अचानक ? कोई उत्तर नहीं दिया।     मैंने उनसे कहा यह हाल तो साहित्यिक आलोचना पर है ,आपके जीवनकर्म की समीक्षा कर दी होती तो आप तो गोली मार देते !! मैंने हँसकर कार्ड लिया और शुभकामनाएं दीं।

कोलकाता के हिन्दीवाले टीवी सीरियलवाली एकता कपूर की तरह हैं। एकता कपूर के पास जिस तरह कंटेंट नहीं होता लेकिन सीरियल चल रहे हैं। वैसे ही कोलकाता के अनेक नामी-गिरामी आलोचक लिखते हैं लेकिन नया कटेंट नहीं होता । नए कंटेंट के बिना आलोचना नहीं बनती ,यह बात उनको कोई समझा नहीं सकता । वे तो लिखने में विश्वास करते हैं,कंटेंट में नहीं ,मुझे इस तरह के आलोचकों में एकता कपूरकी आत्मा नजर आती है ।

कोलकाता के हिन्दी आलोचकों  का लेखन फिल्मी अभिनेता जितेन्द्र की फिल्मों की तरह है। जितेन्द्र की फिल्मों में कभी न अभिनय अच्छा होता था और कोई अन्य चीज स्मरणीय होती थी। फ्लॉप फिल्मों के वे अव्वल नायक थे। लेकिन जितेन्द्र की फिल्में खूब बनती  और चलती  थीं।फिल्म अभिनेता जितेन्द्र बेहद जनप्रिय थे। यही हाल कोलकाता के सुधी समीक्षकों का है । बोलने के लिए बुला लो तो सिर भन्ना जाएगा या हँसते-हँसते लोटपोट हो जाएंगे । विश्वास न हो तो किसी सेमीनार में जाएं और आलोचना का जितेन्द्र रस लें। एक नमूना पेश है ।

हाल ही में  प्रेमचंद जयन्ती पर एक सेमीनार में एक धाकड आलोचक से एक युवा लड़की ने पूछा कि बायनरी अपोजिशन किसे कहते हैं   ?  मंच से ज्ञानी आलोचक ने कहा फेसबुक को बायनरी अपोजीशन कहते हैं। 

जगदीश्वर चतुर्वेदी
इन कलकत्तावासी आलोचकों की किताबें उठाकर देख लें, मजाल है कि आपको आधुनिककाल के किसी नए और मौलिक सामयिक विचार के कहीं पर दर्शन हो जाएं !! बेचारे रामचन्द्र शुक्ल- रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के पुराने-धुराने विचारों का उल्था करते रहते हैं। आलोचना का यह जितेन्द्र रस है ।कलकत्ते में आप किसी भी साहित्यकार-आलोचक से बातें कीजिए वे साहब हमेशा व्यस्त नजर आएंगे । पूछो क्या कर रहे हो कहेंगे व्यस्त चल रहा हूँ। यहाँ जा रहा हूँ  ! वहां जा रहा हूँ ! फलां, जगह चयन समिति है !फलां जगह सेमीनार है ! शहर में रहते हैं तब भी सेमीनार, भक्तगण,कक्षाएं आदि में व्यस्तता बनी रहती है । उनके पास फुरसत नहीं है । 

मैं हमेशा फुरसत में रहता हूँ । हाल ही में एक आलोचक मिले बोले फेसबुक की क्या खबरें हैं ? मैंने कहा फेसबुक को मारिए गोली !अपनी कहिए ,बोले मैं तो व्यस्त हूँ ! मैंने कहां मैं एकदम फुरसत में हूँ। यह कहकर मैं कक्षा में चला गया । 

इसी प्रसंग में मुझे मुक्तिबोध याद आ गए। मुक्तिबोध ने लिखा-" फुरसत निकालना भी एक कला है । गधे हैं जो फुरसत नहीं निकाल पाते ! फुरसत के बिना साहित्य-चिन्तन नहीं हो सकता , फुरसत के बिना दिन में सपने नहीं देखे जा सकते। फुरसत के बिना अच्छी-अच्छी , बारीक- बारीक ,महान् -महान् बातें नहीं सूझतीं। इन सबके लिए  फुरसत चाहिए और उसको पाने की कला चाहिए। " व्यस्तता तो सृजन की शत्रु है।

कलकत्ते या हिन्दी के नामी लेखकों-आलोचकों के जीवन-क्रम पर विचार करें तो सहज ही पता चल जाएगा कि सारी जिंदगी वे कहां गुजारते रहे हैं। मुक्तिबोध ने सवाल उठाया है  साहित्यकार का आयुष्य-क्रम क्या है ?  मुक्तिबोध ने इस सवाल का उत्तर देते हुए लिखा- "विद्यार्जन,डिग्री और इसी बीच साहित्यिक  प्रयास,  विवाह,घर, सोफासेट,ऐरिस्टोक्रैटिक लिविंग,महानों से व्यक्तिगत सम्पर्क, श्रेष्ठ प्रकाशकों द्वारा अपनी पुस्तकों का प्रकाशन,सरकारी पुरस्कार, अथवा ऐसी ही कोई विशेष उपलब्धि;और चालीसवें वर्ष के आस-पास अमरीका या रुस जाने की तैयारी;किसी व्यक्ति या संस्था की सहायता से अपनी कृतियों का अँग्रेजी या रुसी अनुवाद ;किसी बड़े -भारी सेठ के यहाँ या सरकार के यहाँ ऊँचे किस्म की नौकरी ! अब मुझे बताइए कि यह वर्ग क्या तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद ?"

यह लेख जगदीश्वर चतुर्वेदी जी द्वारा लिखा गया है .प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग,कलकत्ता विश्वविद्यालय,कोलकाता, स्वतंत्र लेखन और स्वाध्याय .संपर्क ईमेल - jcramram@gmail.com

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