आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं है

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आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं है शिक्षकों को अपने-अपने स्कूलों में बच्चों को आत्महत्या के प्रति जागरूक करने के लिए प्रयास करने चाहिए,

आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं है


शायद ही ऐसा कोई दिन गुज़रता होगा, जब समाचारपत्र में किसी के आत्महत्या की खबर नहीं छपती है. कई बार छोटी छोटी मुश्किलों का मुकाबला करने की जगह उससे घबराकर लोग आत्महत्या जैसे खतरनाक कदम उठा ले रहे हैं. परीक्षा में तनाव हो या घर में झगड़ा, व्यापार में घाटा हो जाए या फिर नौकरी में किसी प्रकार की परेशानी आ रही हो, यहां तक कि प्रेम प्रसंग का मामला से लेकर उम्र के आखिरी पड़ाव में अवसाद से ग्रसित लोग भी आत्महत्या कर लेते हैं. वास्तव में एक तरफ जहां इंसान तेजी से विकास कर रहा है, रोज़ाना नए नए तकनीक के माध्यम से जीवन को आरामदायक बना रहा है तो वहीं दूसरी ओर बढ़ते मानसिक तनाव के चलते आत्महत्या जैसे मामले भी दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं. वैसे तो हर उम्र के व्यक्तियों में आत्महत्या की प्रवृत्ति देखी जा रही है. परंतु 15 से 35 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में इसकी संख्या अधिक सामने आती है. आत्महत्या करने के कई कारण हैं, परंतु भारत में इसके मुख्य कारणों में नौकरी का नहीं मिलना या नौकरी का छूट जाना, सामाजिक तौर पर मानसिक तनाव, बच्चों में पढ़ाई का तनाव, किसानों द्वारा बैंकों से लिए गए ऋण का समय पर नहीं चुका पाना, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों के चलते स्त्रियों पर मानसिक तनाव अथवा छेड़छाड़ या दुष्कर्म के बाद समाज के तानों से घबराकर भी आत्महत्या कर लेना एक मुख्य कारण है.

पिछले कुछ सालों में भारत मे ही नहीं बल्कि दुनिया भर में खुदकुशी की घटनाओं में बहुत तेजी से वृद्धि हुई है. चौंकाने वाली बात तो यह है कि महिलाओं की तुलना में आत्महत्या करने की दर पुरुषों की ज्यादा है. अब बच्चे भी इसकी चपेट में आने लगे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार हर 4 मिनट में एक व्यक्ति आत्महत्या करता है. हर साल लगभग 8 लाख से ज्यादा लोग अवसाद यानी डिप्रेशन में आत्महत्या कर लेते हैं. जिसमें अकेले 17% की संख्या भारत की है जबकि इससे भी अधिक संख्या में लोग आत्महत्या की कोशिश करते हैं. यह स्थिति बहुत डराने वाली है. इससे पता चलता है कि वर्तमान में लोग किस स्तर के मानसिक तनाव से गुज़र रहे हैं. कोरोना काल में आत्महत्या की यह प्रवृत्ति खतरनाक रूप से बढ़ी है. बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार Covid-19 के दौरान अकेले भारत में ही आत्महत्या करने वालों की संख्या 30 से 40 प्रतिशत तक बढ़ी है. 

लॉकडाउन के दौरान काम नहीं मिलने और व्यापार ठप हो जाने से हताश होकर मध्यम वर्ग और दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों में आत्महत्या करने के आंकड़े ज़्यादा देखे गए हैं. उद्योग धंधे बंद हो जाने से परेशान कई प्रवासी मज़दूरों के सामने भूखे रहने की नौबत आ गई थी. परिवार के सामने आर्थिक संकट से घबरा कर कई मज़दूरों ने मौत को गले लगा लिया है, वहीं छोटे स्तर के कई व्यापारी भी कोरोना काल के दौरान आर्थिक संकट के बाद अवसाद में आत्महत्या कर चुके हैं. इसके अलावा मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाले लाखों का पैकेज लेने वाले युवा भी नौकरी छूट जाने के कारण परिवार समेत मौत को गले लगा चुके हैं.  

केंद्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर का सीमावर्ती जिला पुंछ भी इससे अछूता नहीं है. जहां हताश युवा आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं. Covid-19 के प्रसार को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के दौरान कई तरह की परेशानियों से घबराकर युवा अवसाद का शिकार हो चुके हैं. इस सिलसिले में पुंछ की एक सामाजिक कार्यकर्ता भारती देवी का मानना है कि कारण कोई भी हो, लेकिन आत्महत्या करने की प्रमुख वजह व्यक्ति का मानसिक स्थिति का बिगड़ना होता है. आज के समय में आत्महत्या जैसे मामले दिन प्रतिदिन बढ़ रहे हैं. चाहे बच्चों में पढ़ाई को लेकर तनाव हो, चाहे पारिवारिक तनाव हो या फिर सामाजिक तनाव. पिछले कुछ समय में ऐसा भी देखने को मिला है कि देश की कुछ जानी-मानी हस्तियों ने भी तनावग्रस्त होकर आत्महत्या का रास्ता चुना है. इनमें से कुछ युवाओं के आदर्श भी रहे हैं 

आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं है
आत्महत्या के बढ़ते मामलों को रोकने के लिए प्रत्येक व्यक्ति में जागरूकता लाना बहुत आवश्यक है. इस बात को समझने की ज़रूरत है कि आज की इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में तनाव की स्थिति कभी कम तो कभी ज्यादा बनी रहती है. परंतु इसका समाधान ज़िन्दगी को समाप्त कर लेना नहीं है. कानून का सहारा लेकर भी समस्या का हल किया जा सकता है. सामाजिक कार्यकर्ता सोहनलाल के अनुसार अन्य जीवों के विपरीत मनुष्य एक अस्तित्ववान प्राणी है. लेकिन जब वह अपने अस्तित्व की रक्षा करने में नाकाम हो जाता है तो आत्महत्या जैसे घातक रास्ते को अपना लेता है. उन्होंने कहा कि ऐसी कोई समस्या नहीं, जिसका समाधान संभव नहीं है. लेकिन इंसान जब उसका समाधान खोजने में स्वयं को असफल पाता है तो फिर उसके सामने उसे केवल मौत को गले लगाना ही एकमात्र उपाय नज़र आने लगता है, जो उसकी कमज़ोरी को उजागर करता है. सोहनलाल के अनुसार भारत में निम्न और मध्यम आय वाले वर्गों में आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है. 

आत्महत्या जैसी खतरनाक प्रवृत्ति को रोकने और इसके खिलाफ लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से हर वर्ष दस सितंबर को 'वर्ल्ड सुसाइड प्रीवेंशन डे' मनाया जाता है. इसकी शुरुआत 2003 में 'इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ सुसाइड प्रीवेंशन', विश्व स्वास्थ्य संगठन और वर्ल्ड फेडरेशन फॉर मेंटल हेल्थ के साथ मिलकर किया गया है. इसके माध्यम से लगातार दुनिया भर में आत्महत्या के खिलाफ जागरूकता और उससे जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. क्योंकि अगर आज के समय में देखा जाए हर घर, हर समाज में, किसी न किसी बात पर तनावपूर्ण स्थिति बनी रहती है. लेकिन इसका हल केवल आत्महत्या नहीं है. बहुत से ऐसे रास्ते हैं जिनके जरिए बढ़ते तनाव को दूर किया जा सकता है. आत्महत्या जैसे मामलों को रोकने के लिए समाज के हर एक जिम्मेदार व्यक्ति को सामने आने की जरूरत है जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग इस बात से जागरूक हो सके ताकि आत्महत्या जैसे मामलों में कमी लाई जा सके. 

विशेषकर शिक्षकों को अपने-अपने स्कूलों में बच्चों को आत्महत्या के प्रति जागरूक करने के लिए प्रयास करने चाहिए, साथ ही पाठ्यक्रमों को इस प्रकार डिज़ाइन करने की ज़रूरत है, जिससे बच्चों में बढ़ते तनाव को कम किया जा सके. निजी कंपनियों में प्रति माह टारगेट को पूरा करने का बोझ भी युवाओं को अवसाद में धकेल रहा है, जो आत्महत्या की दहलीज़ तक पहुंचा देता है. ऐसे समय में घर और परिवार का साथ सबसे मज़बूत एहसास होता है, जो इंसान को अवसाद से बचाता है. योग से भी मानसिक तनाव को दूर किया जा सकता है. वास्तव में ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका हल न हो. बात केवल और केवल जागरूकता और समझ की है. इस बात को समझने की ज़रूरत है कि जिंदगी बहुत खूबसूरत है, उसे अवसाद में डुबा कर आत्महत्या तक पहुंचाने से अच्छा जिंदादिली से जीना चाहिए. (चरखा फीचर)


- हरीश कुमार 
पुंछ, जम्मू 

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