शुद्ध सनातनी हिन्दू हैं आदिवासी

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शुद्ध सनातनी हिन्दू हैं आदिवासी मठ-मंदिर, चैत्य-विहार, धर्म-पंथ, प्रजातंत्र की जननी गौरवशाली बिहार प्रांत की कोख से उद्भूत नवीन झारखंड प्रांत की भूमि

शुद्ध सनातनी हिन्दू हैं आदिवासी


ठ-मंदिर, चैत्य-विहार, धर्म-पंथ, प्रजातंत्र की जननी गौरवशाली बिहार प्रांत की कोख से उद्भूत नवीन झारखंड प्रांत की भूमि अपने जन्म के बाद से ही वाद विवाद में घिरती रही है। कभी आदिवासी बनाम दिकु (गैर आदिवासी),कभी दिकु (बाहरी बिहारी) झारखण्ड नहीं आदिवासी झारखंड चाहिए का नारा। अभी आदिवासी-मूलवासी बनाम अधिवासी (डोमिसाइल) का विवाद थमा नहीं था कि जाने किसने आदिवासी हिन्दू नहीं है कहकर खनिज संपदा सम्पन्न रत्नगर्भा ज़मीं को फिर से अशांत कर दिया था।

आज यह जानना कि आदिवासी हिन्दू है कि नहीं उतना जरुरी नहीं जितना कि इन सवालों को उठाने वाले की मानसिकता को जानना। मानसिकता तो ऐसी कि जो सवाल करते वही जबाव देते। ‘आदिवासी हिन्दू नहीं, आदिवासियों को हिन्दू कहने वालों को बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया जाएगा’-(अख्यात  कांग्रेसी नेता जो इस बयान के बाद ही ख्यातिलब्ध हो गए।) ‘आदिवासी कभी हिन्दू नहीं हो सकते, हिन्दू आदिवासी हो सकते’ (शिव दुर्गा जैसे पवित्र हिन्दू नामधारी वरिष्ठ झारखण्डी नेता) पुनःश्च  ‘आदिवासी खांटी हिन्दू हैं' (शिक्षक से नेता बने भाजपा के वरिष्ठ आदिवासी नेता) आदि आदि।

ये जल्दबाजी और सस्ते ढंग से कहे गए महंगे शब्द हैं। आदिवासी हिन्दू नहीं---ये आदिवासियों में फूट डालो, कुछ वोट बैंक बढ़ा लो, राज करो की अंग्रेजी दां मंशा है। जबकि आदिवासी कभी हिन्दू  नहीं हो सकते---अंधों के द्वारा हाथी को हाथी जैसा नहीं---कभी रस्सी जैसा/ सूप जैसा/ खंभे जैसा कहने की अवसरवादिता है। किन्तु ‘हिन्दू आदिवासी हो सकते’---अनायास कहे गए गुरु वाक्य है जो ‘सुपच किरात कोल कलवारा,वर्णाधम तेली कुम्हारा' की तुलसी कथन से भी आगे ‘वर्धकी गोप: नापित: वणिक मालाकार कोल किरात कायस्था---इति कुटुम्बिन:' जैसी व्यास स्मृति कालीन सामाजिक स्थिति की याद दिलाती है।

शुद्ध सनातनी हिन्दू हैं आदिवासी
कुछ लोग आदिवासियों को वर्णाश्रमी व्यवस्था नहीं मानने के कारण हिन्दुओं से अलग बताते तो कुछ कुतर्की लोग आदिवासियों को प्रकृति पूजक होने के कारण मूर्तिपूजक हिन्दुओं की विरादरी से काटने का प्रयास करते। किन्तु यह बात डंके की चोट पर कही जा सकती है कि हिन्दू होने के लिए न तो वर्णाश्रमी व्यवस्था को मानना जरुरी है और न हीं मूर्तिपूजक होना। मूर्ति पूजा तो पांथिक पूजा पद्धति है जो वर्ण व्यवस्था विरोधी हिन्दू के पंथ बौद्ध के बुतपरस्ती से आरंभ हुई और कमोबेश सभी हिन्दू पंथों; बौद्ध,जैन, वर्णाश्रमी, आर्य समाजी, सिख, सनातनी, सरना,
विदिन, प्रकृति पूजक जाति-जनजाति में मान्य है।सच तो यह है कि प्रकृति पूजा, मूर्ति पूजा और प्रतिमा पूजन में कभी कोई भेदभाव नहीं है। जब मूर्ति-प्रतिमा नहीं बनती थी प्रकृति (पेड़-पहाड़-पत्थर) को ही अपने आराध्य देवों का प्रतीक मानकर पूजा जाता था। जो आज भी ताम-झाम विहीन सनातनी हिन्दू आदिवासियों में पूर्ववत अक्षुण्ण-अविकलित प्रचलन में है। जबकि गैर आदिवासियों में यह प्रथा आर्थिक सम्पन्नता की वजह से भव्य प्रतिमा पूजन 
में बदल गई।

जहां तक वर्णाश्रमी व्यवस्था को मानने/नहीं मानने की बात है तो इसका विरोध उपनिषद काल से ही गैर ब्राह्मणों द्वारा किया जा रहा है और आज भी जारी है। तो क्या सभी अब्राह्मण जातियां हिन्दू नहीं है? यह कम ही लोग जानते या विचारते हैं कि हिन्दुओं में चार नहीं तीन वर्ण है- ‘ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यम त्रयो वर्णा द्विजा/चतुर्थो एको जाति शूद्रा नास्तिती पंचमा' (मनुस्मृति) और ये तीनों वर्ण ही द्विज सवर्ण हैं। जबकि चौथा शूद्र वर्ण नहीं जाति है-यानि एक दाण्डिक व्यवस्था- जिसमें पड़ी जातियां इसके अस्तित्व को वैसे नकारती जैसे कैदी जेल को। आज की आदिवासी जातियां संथाल, मुंडा, उरांव आदि पौराणिक किरात कोल भील आदि वर्ण व्यवस्था विरोधी शैव हिन्दू हैं। जिन्हें ब्राह्मणी ग्रंथों में उतना ही अधम अंत्यज कहा गया है जितना इनकी कुटुम्ब कही गई जातियां; बढ़ई गोप बनिए नाई कायस्थ आदि को। यह अलग बात है कि इन आदिवासियों के ये भाई-बंधु सत्ता  संरक्षण,सरकारी नौकरी आदि के बूते इस दाण्डिक व्यवस्था से मुक्ति पाकर पुनः सवर्ण हिन्दू बन गए। इस तरह इन आदिवासियों का हिन्दुत्व पूर्ण शुद्ध सनातनी एवं अन्य पंथिक हिन्दुओं से सहज स्वाभाविक है जो इनके शिव-पार्वती, राम-कृष्ण जैसे गण वेशभूषा,पूजा-पाठ से जाहिर है। 

कहना नही होगा कि आदिवासी शब्द अपने आप में न तो कोई एक मूल की जाति है,न कोई पंथ बल्कि यह मानव 
विकास की एक अवस्था है। भू सांस्कृतिक अवधारणा है जिससे हर मानव नस्ल/रेस को गुजरना पड़ता है और विकास के क्रम में संस्कृति करण के माध्यम से आदिवासी ही आदिम अवस्था को त्यागकर गैर आदिवासी हो जाते या फिर कभी-कभी गैर आदिवासी सवर्ण सशक्त जाति भी सत्ता के द्वारा दबाए सताए जाने के कारण पुनः आदिवासी अवस्था  प्राप्त कर लेती है इसका सबसे सटीक उदाहरण है राजस्थान की मीणा जनजाति जो महाभारत काल में सवर्ण क्षत्रिय थी जो खुद को मीनावतार विष्णु से सम्बद्ध मानती है। भारतीय सभ्यता संस्कृति में ये दोनों विरोधी जाति जनजाति अवस्था समान रूप से गोचर होती रही है।

वर्तमान उत्तर भारतीय वर्णाश्रमी हिन्दुओं के आर्य पूर्वज प्रकृति पूजक,पशुपालक ग्रामीण आदिवासी योद्धा थे। जबकि दक्षिण भारतीय हिन्दुओं के पूर्वज मोहन जोदड़ो हड़प्पा कालीन शांत  सम्पन्न शहरी थे जिनमें शिव एवं मातृदेवी की पूजा का चलन था। झारखंड के वर्तमान आदिवासी संथाल, मुंडा, उरांव आदि कोल किरात वंशी शैव हैं जिनकी पूजा पद्धति सनातनी वेद कालीन आर्यों जैसी प्रकृति पूजा है। यानि प्रकृति; पेड़ पहाड़ पत्थर को अपने आराध्य देव; महादेव मरांग बुरु, महादेवी जाहेर का प्रतीक मानकर पूजना। बली प्रथा तो सनातनी हिन्दुओं से चली है जो आज उत्तर भारतीय आर्यों के वर्णाश्रमी हिन्दुओं और आदिवासी हिन्दुओं में एक समान चल रही है। भाषा परिवार के हिसाब से दक्षिण भारतीय वर्णाश्रमी हिन्दू द्रविड़ हैं।जिसे समेकित रुप से हड़प्पा कालीन शहरी सभ्यता के वंशधर माने जाते हैं। वैसे आर्य द्रविड़ भी अलग-अलग नहीं हैं। चंद्रवंशी आर्य ययाति को आर्य द्रविड़ का जन्मदाता कहा गया है। जिसका जिक्र उस मिथक में है जिसमें ययाति को उनके ब्राह्मण श्वसुर शुक्राचार्य ने वृद्ध होने का श्राप दिया था और यौवन दान नहीं देने के कारण ययाति ने अपने पांच में से चार पुत्रों को शापित कर दिया था। उनके शापित पुत्र द्रहयु के वंशज द्रविड़ कहलाने लगे। अस्तु आदिवासी और गैर आदिवासी स्पष्ट रूप से अलग वंश नस्ल के नहीं हैं बल्कि वे आपस में भाई-भाई ही हैं जिन्हें आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक कारणों से जाति जनजाति बनाया जाता रहा है।



- विनय कुमार विनायक,
दुमका, झारखंड-814101

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