वह इमली का पेड़

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वह इमली का पेड़ वृक्ष समानता, परोपकारिता,उदारता, नम्रता व प्रगति का द्योतक है।इसको काटना का अर्थ है कि हम एक परम्परा,संस्कृति एवं विकास के संगम को सुख

वह इमली का पेड़


मैं आज कोविडशील्ड का दूसरा टीका लगवाकर निकली ही थी अस्पताल से, कि मन हुआ आज थोड़ी हरियाली  वाले इलाके में घूम आऊं। मोसम दम घोंटने वाला हो रहा था ।बेहद गर्मी थी।

इस नयी कालोनी मे तो जैसे सूखा पड़ा था। यदा  कदा  युक्लिप्टस के पेड़ दिख जाते थे ,नही तो शीघ्र उगने वाले बौने  कद  के वृक्ष थे।

वह इमली का पेड़
मैने अपनी बहन से कहा कि गाड़ी   ज़रा कैन्ट की तरफ मोढ लो।केन्ट एरिया मे सड़क पर घने छायादार विशाल  वृक्ष थे और हमारी आंखें भी ठंडा सुकून ढूंढ रही थी। हम अभी इन वृक्षों का आनन्द ले ही रहे थे कि लाल बत्ती हो गयी।हम रूक गये। तभी मेरी नज़र गाडी की विन्डस्क्रीन  पर पड़ी।उस पर इमली के वृक्ष की टहनियों का प्रतिबिम्ब छाया था। मैने  कार की खिड़की से झांककर ऊपर देखा तो  पेड़  की टहनियों पर गुच्छों मे इमलीयां लटक रही धीं। न जाने क्यूं  मुझे  आज वह इमली का विशाल  छायादार वृक्ष याद आ गया जिसकी टहनियां मेर पुराने घर की छत की मुंडेर  तक आती थीं  ,और जिसने अपनी छांव मे न  जाने कितनो को बसेरा दे रखा था।चाहे  वह  रहीमन  हज्जाम हो, जो वृक्ष के कोने मे बैठता था और शीशा पेड़ पर लगाकर दाडी मूंछ बनाता था, या  राम लुभावन जो कीैं बैगनी की चाट बेचता था ठेले पर ।पतले पतले बैंगन तल कर उसपर  इमली की खटटी मीठी  चटनी डालकर बेचता था।और चाहे वो पेड़ की  टहनियों की छांव में सब्जी वाले की दुकान हो।जिसकी तरो ताजा सब्जी लेने के लिये लोग दूर दूर से आते थे । वह चुकन्दर,शलजमऔर कददू के फूल बनाकर अपनी  दुकान  मे सजाता था। अक्सर फेंकी  हुई सड़ी सब्जी खाने के लिये  सांड़ उधर आ जाते थे और ऐसे मे एक छोटी मोटी भगदड़ सी मच जाती‌ थी।

पेड़‌ के तने के पास ही हेन्डपम्प लगा था।लोग नहाते थे और गाय गोरु भी उसको चाटते थे अपनी प्यास बुझाने के लिये।एक अजब सी रौनक रहती थी उस पेड़ के नीचे।उसकी झूमती हुई डालियों की छांव मे नीचे चतुर्वेदी पंडित की दुकान थी वह जड़ी बूटी,औषधी , तेल व तरह तरह के चूर्ण बनाते थे। उनकी कढाई से सदैव गर्म तेल का धूआं निकलता रहता था।वे पुराने कांग्रसी  भक्त या अनुयायी  थे। कहते हैं इसी इमली के वृक्ष के नीचे कभी नहरू जी ने भाषण भी दिया था।उन दिनों विकास के रास्ते मे कभी  वृक्ष नहीं आते थे जैसे कि आज कल आते हैं। चतुरवेदी पंडित जी की तख्त के बगल मे एक वृद्धा भूमि पर गुडडे गुड़िया के नकली गीलट के गहने जैसे हसुली ,आधी करधनी,कड़ा छड़ा  , टिकुली बेचती थी।उसी से उसकी  रोजी रोटी चलती थी।पंडितजी ने उसको थोडी़ जगह दान धर्म के नाम पर दे रखी थी।

यही नही राहगीर भी अपनी छत्री लेकर पेड़ के नीचे बिछौना बिछाकर सोते थे और अंटी मे रखा खाना खाकर सुस्ताते थे।बस का कन्डकटर दूर ही से सवारियों से चिल्लाकर  कर कहता था "उतर जाओ इमली का पेड़ आ गया ....इमली का पेड़ आ गया।'

कितने घरों का यह पता था।लोग रिक्शे से इमली के पेड़ के नीचे उतर जाते थे और वहां से पैदल‌अपने घर को निकल जाते थे।कितने युगल जोड़े  इसकी छांव मे लुका छुपी मिलते थे और विवाह के बन्धन मे बंध  गये। इतना ही नहीं  था, मोहल्ले वाले पैसा जोडकर उसकी डाल पर जो गली की तरफ झुकी हुयी  थी सावन मे झूला डलवाते थे।जिसपर  आस पास  की बहु बेटियाँ मेंहदी लगाकर, हरी चूढियां पहनकर, कजरी गाती थीं और झूला झूलती थीं। लड़कियों के मायके आने का मुख्य आकर्षण यह सावन का झूला भी था ।एक तो वृक्ष की हरियाली दूसरे झूले पर बैठी नवकिशोरियां  सावन की हरितमा को और बडा़ देते थे।

इसकी कुछ डालियां हमारी छत की मुंडेर के पास   तक  भी आती थीं। उसपर‌ गुच्छों  गुच्छो मे लटकी  इमलियां  देखकर मुंह मे पानी आ जाता था। हमलोग मुंडेर पर लटक कर डाल खींचने की कोशिश करते थे किन्तु हाथ मे लाख कोशिश करने पर भी चंद पत्तियां ही आती थीं।अंतत:‌एक दिन हमने बांस को आगे से फाड़कर उसमे इमली फंसाकर ऐंठ कर अपनी छत की तरफ खींचा तो गुच्छों गुच्छे इमलियां गिरने लगी छत पर। मजे की बात तो तब होती थी जब बन्दर उसी डाल से हमारे हिस्से की इमलियां  खा लेता था या अधखायी  इमली छत पर फेंक देता था।   वह एक तरह से हमारे  प्रतिद्वन्दी बन जाते थे।

यही नही पिताजी के बचपन के मित्र  ,जो की कहानी  किस्से सुनाने के शौकीन थे बता गये  कि इस इमली के पेड़ पर रात को चुड़ैल बैठती थी । फिर क्या था बच्चे तो बच्चे, नोकर चाकर भी रात बिरात छत पर डरते डरते दौड़ कर जाते थे और अपना  कमरा बन्द करके सोते थे। 

वह एक जीवन्त व हरा भरा वृक्ष था जिसकी छांव मे रौनक भरी  जिंदगियाँ पनप रही थी।  यह वह पेड़ था जिसकी छाया तले कभी किसी कवि ने कविता लिखी होगी या किसी  चित्रकार ने निश्चित रूप से   तस्वीर बनायी होगी।

नमिता राय
नमिता राय
इतना ही नही लोग इन्तज़ार करते थे कि कब जौ की ताजिया लाकर इमली के पेड़ के नीचे रखी जाय और कब लोग उसको निहारें पूजें और मन्नत मांगे। जन्माष्टमी का राम डोल भी इसके नीचे से उठता था।

हार्न की आवाज़ से मेरी यादों के सिलसिले  टूटा  और मैंने अपनी बहन से कहा आज पुराने मोहल्ले चलते हैं । इतने सालों बाद वह गली ढूढने मे वक्त लगा । गली का नक्शा  ही बदल गया था।बड़ी मुशकिल से हम अपनी छत पहचान पाये। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे किसी ने  पूरे चौराहे पर से आंचल खींच लिया हो। हमारी छत जैसे  रूखी सूखी हो गयी हो।एक अजीब गंजापन व्याप्त हो गया था‌ उस जगह । सारी रौनक उस इमली के पेड़ से थी और विकास के नाम पर उसे जड़‌‌ से काट दिया गया था। वृक्ष क्या कटा जैसे ,उस जगह का अस्तित्व ही खत्म हो गया हो।जितनी ज़िन्दगियां उस इमली के पेड् के नीचे पनप रहीं थीं सब तितर बितर हो गयी थीं।

कैसा अपना सा लगता था वह पेड़। एक सुरक्षा सी महसूस होती थी जैसे किसी बुजुर्ग का साया हो सिर पर । विकास के नाम पर लोगों की बसी बसायी संवेदनाओं के साथ खिलवाड़ करने का क्या औचित्य था।वह पेड़ क्या गया, एसा लगा कि किसी अजनबी जगह मे मै कुछ तलाशने आई हूं।

वह वृक्ष जैसे अपने साथ बारोमास की रोनक ले गया हो ।न वहां सावन झूमता था न नव किशोरियों की खिलखिलाती हंसी जो डाल पर पडे़‌ लचकदार  झूले  की  पेंगों  से आती थी।।न गाय गोरु न  रामलुभावन की बैंगनी का ठेला ओर न ही घरवालों से नज़रें चुराकर चाट खाते लोग। यहां तक की बस ने अब वहां सवारियां   उतारनी बन्द कर दी थी।

लोगो के जज़्बातों की करके यह कैसा विकास था।मैने गाडी मोड़ी ओर पुलिया के नीचे  पोधे बिछाये  हूए युवक से इमली के पोधे के लिये पूछा । वह बोला, "दीदी अब इमली के पोधे कौन खरीदता‌ है बस एक ही है मेरे पास।"बड़े जतन से उसको मैनें हाथों मे लिया  और अपने नये घर के सामने डिवाइडर पर लगा  दिया।कम से कम आने वाली
पीड़ियां पहचानेंगी तो कि हां, कोई इमली का पेड़ भी होता है जिसमे स्वयं मे तो जीवन होता  ही है और वह हज़ारों लोगों को जीवन प्रदान करने की क्षमता भी रखता है।ओर वह  विकास  मे बाधक  नही अपितु विकास का  प्रतीक और पर्याय होता है।

वह वृक्ष समानता, परोपकारिता,उदारता, नम्रता व प्रगति का द्योतक है।इसको काटना का अर्थ है कि हम एक परम्परा,संस्कृति एवं विकास के संगम को सुखा रहे हैं   । वह मात्र  वृक्ष नही है, वह एक विचार है ,दर्शन है ,  ज्ञान है , जीवन का आधार  व  हमारी आती जाती श्वास है।




- नमिता राय
अध्यापिका,पत्र -पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन 

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