भारत में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था

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भारत में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था शिक्षा, राजनीति एवं सामाजिक क्षेत्र में महिलाओं की स्थिती देख कर यह निष्कर्ष निकलता हैं कि महिला आरक्षण समय

वक्त का तकाज़ा हैं महिला आरक्षण 

 
पिछले कुछ महीनों से चार राज्यों एवं एक केंद्रशासित प्रदेश में हुए विधान सभा चुनावों के कारण देश में चुनावों का वातावरण था, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने महिलाओं को समानता का अधिकार तथा 33 फीसदी आरक्षण देने की बात नहीं की है। बेशक यह मुद्दा चुनावी चर्चा से लगभग गायब रहा, लेकिन समय-समय पर महिलाओं को समानता और आरक्षण का अधिकार देने का मुद्दा सतह पर आ ही जाता है। सबरीमाला मंदिर में प्रवेश का मामला हो या तीन तलाक पर कानून बनाने का मुद्दा... इसने एक बार फिर महिलाओं की समानता का सवाल उठाया है। भारत में महिलाएँ देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं। यूँ तो यह आधी आबादी कभी शोषण तो कभी अत्याचार के मामलों को लेकर अक्सर चर्चा में रहती है, लेकिन पिछले कुछ समय से सबरीमाला मंदिर में प्रवेश और तीन तलाक पर कानून के मुद्दों को लेकर एक बार फिर महिलाओं की समानता का सवाल उठ खड़ा हुआ है। लेकिन जब भी हम महिलाओं की समानता की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि किसी भी देश में समानता के लिये सबसे पहले अवसरों की समानता का होना बेहद ज़रूरी है। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि देश में आधी आबादी अभी भी हाशिये पर है। यह स्थिति तब है, जबकि जितनी भी महिलाओं को निचले पायदान से ऊपरी पायदान तक जितना भी और जब भी मौका मिला, उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमताओं का लोहा मनवाया है। भारत में महिलाएँ सदियों से भेदभाव का शिकार रही हैं l ऐसे में अगर संसद से ही इसे समाप्त करने की शुरुआत हो तो संभवतः यह देश के लिये बड़ा संदेश होगा और साथ ही महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक बड़ी राह खुलेगी। हमें इस बात को समझना होगा कि पुरुषों और महिलाओं की समान भागीदारी न केवल न्याय और लोकतंत्र के लिये अहम है, बल्कि यह सुव्यवस्थित मानव अस्तित्व के लिये भी अनिवार्य है। आज शिक्षा, राजनीति और सामाजिक क्षेत्रों में महिलाओ का बुरा हाल हैं l इस दुर्दशा को बदलने में महिला आरक्षण मील का पत्थर साबित हो सकता हैं l 
 

महिला आरक्षण की ज़रूरत क्यों महसूस हुई ?


भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 14.3 फीसदी है। ऐसे में सवाल है कि देश की आधी आबादी राजनीति के क्षेत्र में कहाँ है और अभी उसे कितनी दूरी तय करनी है ताकि वह ‘आधी आबादी’ के कथन को पूरी तरह चरितार्थ कर सके। जब बांग्लादेश जैसा देश संसद में महिला आरक्षण दे सकता है तो भारत में दशकों बाद भी महिला आरक्षण विधेयक की दुर्गति क्यों है ?

भारत में आरक्षण एक संवेदनशील विषय रहा हैं l पिछले कुछ दशकों में आरक्षण का मुद्दा सामाजिक और राजनीतिक दृष्टी से बहुत संवेदनशील बन चूका हैं l भारत में आरक्षण पर राजनीति के एक लंबे दौर के हम गवाह हैं l भारत ने आरक्षण के लिए आंदोलनों का एक लंबा दौर देखा हैं l आरक्षण के लिए अलग अलग राज्यों में आरक्षण के लिए आंदोलन होते रहे हैं, जिन में राजस्थान में गुर्जरों का, हरियाणा में जाटों का, गुजरात में पाटीदारों का और महाराष्ट्र में मुसलमानों एवं मराठों के आंदोलन मुख्य आंदोलनों में शामील हैं l 
 

महिला आरक्षण का इतिहास 


  • सर्वप्रथम 1926 में विधानसभा में एक महिला का मनोनयन कर सदस्य बनाया गया परन्तु उसे मत देने के अधिकार से वंचित रखा गया l 
  • इसके पश्चात 1937 में महिलाओ के लिए सीट आरक्षित कर दी गई जिसके फलस्वरूप 41 महिला उम्मीदवार चुनाव में उतरी l
  • 1938 में श्रीमती आर. बी.सुब्बाराव राज्य परिषद में चुनी गई l  
  • उस के बाद 1953 में श्रीमती  रेणुका राय केंद्रीय व्यवस्थापिका में प्रथम महिला सदस्य के रूप में चुनी गई l 
  • भारत में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था
    महिलाओं के लिए आरक्षण

    वर्ष 1974 में संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा भारत में महिलाओं की स्थिति के आकलन संबंधी समिति की रिपोर्ट में उठाया गया था। राजनीतिक इकाइयों में महिलाओं की कम संख्या का ज़िक्र करते हुए रिपोर्ट में पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिये सीटें आरक्षित करने का सुझाव दिया गया।
  • 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गईं।
  • 1996 में महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार एच.डी. देवगौड़ा सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया। लेकिन देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गई और 11वीं लोकसभा को भंग कर दिया गया।
  • 1996 का विधेयक भारी विरोध के बीच संयुक्त संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था।
  • 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में फिर से विधेयक पेश किया। लेकिन गठबंधन की मजबूरियों और भारी विरोध के बीच यह लैप्स हो गया।
  • 1999, 2002 तथा 2003 में इसे फिर लाया गया, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात।
  • 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा 108वाँ संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया।
  • इसके दो साल बाद 2010 में तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में यह विधेयक पारित करा दिया गया। कॉन्ग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ और अन्य दलों का साथ मिला। लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार विधेयक को पारित नहीं करा पाई।
लोकसभा में अब भी महिला आरक्षण विधेयक पर लुका-छिपी का खेल चल रहा है और सभी राजनीतिक दल तथा सरकार इस पर सहमती बनाने में असमर्थ दिखाई दे रहे हैं।
 

महिला आरक्षण विधेयक की राह में बाधाएं 


  • इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि दलित और OBC महिलाओं के लिए अलग से कोटा होना चाहिये। उनके अनुसार सवर्ण, दलित और OBC महिलाओं की सामाजिक परिस्थितियों में अंतर होता है और इस वर्ग की महिलाओं का शोषण अधिक होता है। उनका यह भी कहना है कि महिला विधेयक के रोटेशन के प्रावधानों में विसंगतियाँ हैं जिन्हें दूर करना चाहिये।
  • कई दिग्गज राजनेताओं को यह डर सताता हैं कि, महिला आरक्षण लागू होने के पश्चात कहीं उन की पारंपरीक सीट महिलाओं के लिए आरक्षित ना हो जाए l यह भी एक कारण हैं कि, वे महिला आरक्षण का समर्थन नहीं करते l 
  • इसी के साथ-साथ एक तर्क यह भी है कि इस विधेयक से केवल शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही संसद में बढ़ पाएगा। इसके बावजूद यह एक दिलचस्प तथ्य है कि किसी भी दल से महिला उम्मीदवारों को चुनाव में उस अनुपात में नहीं उतारा जाता, जिससे उनका प्रतिनिधित्व बेहतर हो सके।
 

भारत में महिलाओं की राजनीतिक स्थिति और भागीदारी 

अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ चुकीं हिलेरी क्लिंटन का कहना है, “जब तक महिलाओं की आवाज़ नहीं सुनी जाएगी तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं आ सकता। जब तक महिलाओं को अवसर नहीं दिया जाता, तब तक सच्चा लोकतंत्र नहीं हो सकता।"

जब हम भारत में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी एवं प्रतिनिधीत्व का अध्ययन करते हैं तो पता चलता हैं कि, 1952 में हुए पहली लोकसभा के लिए चुनाव में 22 सीटों पर महिलाएँ चुनकर आई थीं, लेकिन 2019 में हुए चुनाव के बाद लोकसभा में 78 महिलाएँ ही पहुँच सकीं। यानी 67 वर्ष में वृध्दी तो हुई परंतु यह वृध्दी संतोषजनक नहीं हैं क्योंकि महिलाएँ आज भी अपनी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधीत्व एवं भागीदारी से बहुत दूर हैं। 1952 में लोकसभा में महिलाओं की संख्या 4.4% थी जो 2019 की लोकसभा में 14.36 % है, लेकिन यह अब भी वैश्विक औसत से कम है। हालाँकि भारत के आम चुनावों में महिला उम्मीदवारों की सफलता का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि यह पिछले हर लोकसभा चुनाव में पुरुषों से बेहतर रही है। 2019 के आम चुनावों में महिलाओं की सफलता दर 10.7 % रही जो पुरुषों की 06.03 % की तुलना में 04.04 % ज़्यादा है। महिलाएँ मतदान के मामले में पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं परंतु सभी राजनीतिक दल आज भी महिलाओं को टिकट देने के मामले में पिछड़े हुए हैं l 

शीरीन एम. राय और कैरोल स्पैरी द्वारा संपादित पुस्तक "Women Members in the Indian Parliament" में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व का कारण विभिन्न दलों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तथा पुरुषवादी मानसिकता को बताया गया है। "Journal of economic behaviour & organisation" में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार जिन सरकारों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है वहाँ भ्रष्टाचार कम होता है। भारत में भी ऐसी महिलाओं के कई उदाहरण हैं जिन्होंने अवसर मिलने पर भारतीय राजनीति में न केवल अपनी पहचान बनाई बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति अर्जित की।
 

राजनीति में महिलाओं की कम भागीदारी के कारण 

  • राजनीति में महिलाओं की कम भागीदारी के मुख्य कारणों में पितृसत्तात्मक समाज तथा इसकी संरचनात्मक कमियाँ हैं। इसकी वजह से महिलाओं को कम अवसर मिलते हैं तथा वे राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा में पुरुषों से काफी पीछे रह जाती हैं।
  • घरेलू ज़िम्मेदारियाँ जैसे- बच्चों की देखभाल, घर के सदस्यों के लिए खाना बनाना व अन्य पारिवारिक कारणों से वे राजनीति में भाग नहीं ले पातीं।
  • कई महिलाएँ व्यक्तिगत कारणों की वजह से भी राजनीति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेतीं। ये व्यक्तिगत कारण हैं- राजनीति में रुचि न होना, जागरुकता का अभाव, शैक्षिक पिछड़ापन आदि।
  • सांस्कृतिक मानदंडों तथा रूढ़िवादिता के कारण भी महिलाएँ राजनीति में भाग नहीं ले पातीं। सांस्कृतिक प्रतिबंधों में पर्दा प्रथा, किसी अन्य पुरुष से बातचीत न करना, महिलाओं का बाहर न निकलना आदि शामिल हैं।
  • कमज़ोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि भी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में अवरोध उत्पन्न करते हैं।
  • राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर देश के राजनीतिक दलों तथा सरकारों ने उदासीनता प्रदर्शित की है।
 

महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुधारने के लिए उपाय

  • हमारे संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त की गई आकांक्षाओं के अलावा अनुच्छेद 14,15 (3), 39 (A) और 46 में सामाजिक न्याय एवं अवसर की समानता की बात कही गई है ताकि राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिये उचित उपाय किये जा सकें।
  • भारतीय महिलाओं का सशक्तीकरण शिक्षा की खाई को पाटकर, लैंगिक भेदभाव को कम करके और पक्षपाती नज़रिये को दूर करने के माध्यम से किया जा सकता है।
  • आज भी आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में महिला उम्मीदवारों को अधिकांशतः टिकट उनके व्यक्तिगत प्रभाव के चलते नहीं, बल्कि उनके पति या अन्य पुरुष संबंधियों के प्रभाव के आधार पर दिया जाता है। इस निराशाजनक स्थिति से निपटने के लिये परिवार द्वारा महिलाओं को चुनाव प्रक्रिया में खुद भाग लेने के लिये सशक्त बनाना होगा। पारिवारिक समर्थन होने के कारण उनके प्रतिनिधित्व का दायरा बढ़ेगा ।
  • महिलाओं के पर्याप्त प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न उपाय अपनाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिये, स्वीडन जैसे कुछ यूरोपीय देशों में Zipper System द्वारा हर तीन उम्मीदवारों में एक महिला शामिल होती है।
  • सॉफ्ट कोटा सिस्टम इस तर्क पर आधारित है कि लैंगिक समानता धीरे-धीरे समय के साथ नियमों की आवश्यकता के बिना होगी। और इसका उपयोग अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूज़ीलैंड जैसे लोकतंत्रों में किया जाता है।
  • भारतीय राजनीति में आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। वास्तव में भारत की आधी आबादी का एक बहुत बड़ा भाग अभी भी अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित है। आज ज़रूरत इस बात की है कि इन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जाए। 
  • भारत की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने के पीछे प्रमुख कारण अब तक समाज में पितृसत्तात्मक ढाँचे का मौजूद होना है। ऐसे में यह अनिवार्य हो जाता है कि चुनावों के विभिन्न स्तर पर महिलाओं की भागीदारी का विश्लेषण किया जाए ताकि यह पता लगाया जा सके कि स्वंत्रता के सात दशक बाद भी इतनी असमानता क्यों है ? क्यों आज भी महिलाएँ समाज की मुख्य धारा से वंचित हैं? क्यों महिला आरक्षण विधेयक अभी तक पारित नहीं हुआ?
 

भारत में महिलाओं की शिक्षा की वर्तमान स्थिति

स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, "आप किसी राष्ट्र में महिलाओं की स्थिति देखकर उस राष्ट्र के हालात बता सकते हैं l" किसी भी राष्ट्र के सामाजिक और आर्थिक विकास में महिलाओं की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। महिला और पुरुष दोनों समान रूप से समाज के दो पहियों की तरह कार्य करते हैं और समाज को प्रगति की ओर ले जाते हैं। दोनों की समान भूमिका को देखते हुए यह आवश्यक है कि उन्हें शिक्षा सहित अन्य सभी क्षेत्रों में समान अवसर दिये जाएँ, क्योंकि यदि कोई एक पक्ष भी कमज़ोर होगा तो सामाजिक प्रगति संभव नहीं हो पाएगी। परंतु देश में व्यावहारिकता शायद कुछ अलग ही है, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की महिला साक्षरता दर (65.46 प्रतिशत) देश की कुल साक्षरता दर (74.04 प्रतिशत) से भी कम है। भारत के सब से साक्षर राज्य केरला में भी साक्षरता के मामले में महिलाएँ (92.07 %) पुरुषों (96.11 %) से पीछे हैं l भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। महिलाओं को पुरुषों के बराबर सामाजिक दर्जा नहीं दिया जाता है और उन्हें घर की चहारदीवारी तक सीमित कर दिया जाता है। हालाँकि ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी क्षेत्रों में स्थिति अच्छी है, परंतु इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भी देश की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। देश में महिला सुरक्षा अभी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है, जिसके कारण कई अभिभावक लड़कियों को स्कूल भेजने से कतराते हैं। हालाँकि सरकार द्वारा इस क्षेत्र में काफी काम किया गया है, परंतु वे सभी प्रयास इस मुद्दे को पूर्णतः संबोधित करने में असफल रहे हैं। रूढ़िवादी सांस्कृतिक नज़रिए के कारण लड़कियों को अक्सर पाठशाला जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। इसका एक कारण गरीबी भी देखा जा सकता है क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण भी माता-पिता अपने सभी बच्चों को शिक्षा देने में असमर्थ होते हैं जिसके कारण वे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते और लड़कियों को भी अपने साथ मजदूरी पर ले जाना पड़ता है। आज कोरोना के चलते भी महिला शिक्षा प्रभावित हुई हैं l आज भी भारत की अधिकांश आबादी ग्रामीण भाग में बसती हैं l जहाँ संसाधनों के अभाव के कारण ऑनलाइन शिक्षा पध्दती एक बड़े तबके की पहुँच से दूर हैं, विशेष तौर पर महिला एवं लड़कियों की l आज पाठशालाएँ, महाविद्यालय एवं विश्विद्यालय बंद होने की वजह से लड़कियाँ घर से ही शिक्षा प्राप्त कर रही हैं परंतू घर की ज़िम्मेदारियों एवं श्रम के अतार्किक और असंतुलित वितरण के कारण वे पढ़ाई पर उतना ध्यान नहीं दे पा रही हैं जितना आवश्यक हैं क्योंकि उन्हें उतना समय ही नहीं मिल पाता l
 

भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिति

आज के इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में नारियों ने कृषि से लेकर अंतरिक्ष तक हर क्षेत्र में पुरुषों के बराबर स्थान हासिल कर लिया है, परंतु आज भी ज्यादातर महिलाएँ अपने मौलिक अधिकारों से वंचित रहने को विवश हैं । महिला सशक्तिकरण के चाहे जितने भी प्रयास किए जा रहे हो पर नारी को अपने अस्तित्व की सबसे बड़ी चुनौती उसे अपने घर में, माँ की कोख से ही मिल रही है । कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में होती वृध्दी देख कर लगने लगता हैं कि, यहाँ भी उन्हें आरक्षण की आवश्यकता हैं l इससे बच भी गई तो धरती पर आने के बाद उस के लिए जैसे चुनौतीयों का अंबार लगा हुआ है । लैंगिक भेदभाव,  घरेलु हिंसा, दहेज निर्यातना, यौन उत्पीड़न, छेड़छाड़, शोषण,  दमन, बलात्कार, तिरस्कार, मानसिक यातना आदि अनेकों समस्याएँ हैं जिन से हर पल महिलाओं का सामना होता रहता है । आज भारत में महिलाओं की सामाजिक स्थिती काफी चिंताजनक हैं l

उपरोक्त विश्लेषण से आईने की तरह यह बात बिल्कुल साफ़ हो जाती हैं कि, आज के समय में महिला आरक्षण वक्त का तकाज़ा हैं, परंतू आरक्षण से ज्यादा जरुरी हैं महिला की स्थिती को सशक्त बनाना और उन्हें आर्थिक और सामाजिक रूप से सबल बनाना l  जिस से उन में आत्मविशवास उत्पन्न हो और वे अपने हक़ और अपने हिस्से की लड़ाई बिना किसी के सहयोग के खुद लड़ सके l महिलाओ की शिक्षा और सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए l  आरक्षण सच्ची लोकतांत्रिक प्रक्रिया और महिलाओ की भागीदारी का विकल्प नहीं हो सकता हैं, परन्तु इस दिशा में यह एक सही कदम हैं l आज शिक्षा, राजनीति एवं सामाजिक क्षेत्र में महिलाओं की स्थिती देख कर यह निष्कर्ष निकलता हैं कि महिला आरक्षण समय की मांग हैं l




प्रा. शेख मोईन शेख नईम ,
डॉ. उल्हास पाटील लॉ कॉलेज, जलगाव 
7776878784  

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