मंथरा के ऋणी श्रीराम

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मंथरा ये शब्द सुनते ही हमारे सामने एक अधेड़ उम्र की कुरूप,घृणित किन्तु रामायण की अत्यंत महत्वपूर्ण स्त्री की छवि बन जाती है जिसका नाम था ‘मंथरा’।

मंथरा के ऋणी श्रीराम


मंथरा ये शब्द सुनते ही हमारे सामने एक अधेड़ उम्र की कुरूप,घृणित किन्तु रामायण की अत्यंत महत्वपूर्ण स्त्री की छवि बन जाती है जिसका नाम था ‘मंथरा’। इस पात्र ने हमारे मन मस्तिष्क पर इतना गहरा प्रभाव छोड़ा है कि आज भी जब हम किसी नकारात्मक स्वभाव वाली महिला को देखते हैं तो केवल ये एक शब्द (मंथरा) ही उसकी प्रवृत्ति और उसके स्वभाव की व्याख्या कर देने में सक्षम नज़र आता है। रामायण का यह पात्र समाज में इतना घृणित माना जाता है कि आज तक कोई भी अपनी कन्या का नाम मंथरा नहीं रखता है।

मंथरा के ऋणी श्रीराम
मंथरा

संस्कृत में मंथरा शब्द का अर्थ ’कुबड़ा’ होता है और मंथरा के कुबड़े होने के कारण ही उसे ये नाम मिला होगा हिंदी में मंथरा शब्द का अर्थ ’मंदमति’ है । मंथरा राजा दशरथ की तीसरी पत्नी और राजा अश्वपति के यहाँ काम करने वाली कैकेयी की धाय थी । कैकेयी के प्रति इसका विशेष लगाव था इसलिए कैकेयी के पिता अश्वपति ने विवाह के पश्चात कैकेयी के साथ मंथरा को भी अयोध्या भेज दिया था । कैकेयी की धाय माँ होने के कारण उसका प्रभाव भी कैकेयी पर बहुत था। रामचरित्र मानस के रचयिता भले ही महाकवि तुलसी दास हैं लेकिन इस महाकाव्य की भूमिका तैयार करने वाली देवी मंथरा लगती हैं क्योंकि मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं कि.........नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि, अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि ।।

अर्थात्- मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर देवी सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गई। अर्थात राम वनवास का षड्यंत्र मंथरा ने नहीं बनाया बल्कि मंथरा को देवताओं ने अपने उद्धार का और इस षड्यंत्र का निमित्त बनाया था।

मानस में ये भी आता है कि देवी सरस्वती द्वारा ऐसा कुचक्र बनवाने के लिए देवता उनसे प्रार्थना करते हैं और जब देवी ऐसा करने में संकोच व्यक्त करती हैं तो तुलसीदास लिखते हैं ……‘बार बार गहि चरण संकोची, चली बिचारि बिबुध मति  पोची’।।

अर्थात्- बार-बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वे ये विचार करती हुई चलीं कि देवताओं कि मति ओछी है।

अगली पंक्ति में तुलसी बाबा ने लिखा कि माँ सरस्वती सोचती हैं‘....ऊँच निवासु नीच करतूती,देखि न सकहि पराई बिभूती’।।

अर्थात्- ये देवता ऊँचे स्थानों पर निवास करते हैं अर्थात महान माने जाते हैं लेकिन इनकी बुद्धि बहुत खोटी है ये दूसरों की विभूति(ऐश्वर्य)देख नहीं सकते। 

यदि ये कहा जाए कि राजकुमार राम को मर्यादा पुरुषोत्तम राम और जन-जन के राम बनाने में जो महत्वपूर्ण भूमिका देवी मंथरा ने निभाई है और देव कल्याण और जनकल्याण के लिए अपयश का जो विषपान किया है उसके लिए मंथरा सदैव प्रणम्य रहेंगी तो ये अतिशयोक्ति नहीं होगी । 

‘कम्ब-रामायण’ में ये वर्णित है कि राम वनवास के बाद मंथरा को कारागार में डाल दिया जाता है और राम वनवास के पश्चात उसे वहाँ से मुक्त करवाते हैं और उसे धन्यवाद भी देते हैं। कई विचारकों का ये भी मानना है कि राम कैकेयी और मंथरा का कार्य बुरा होते हुए भी समाज के हित में था क्योंकि उन्हीं के कारण राम वन जा पाए और अपने अवतार का वास्तविक कार्य रावण-वध कर पाए । 

मंथरा इतने युगों से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के लिए अपयश का जो दंश झेलती आ रही है उसके लिए नरोत्तम श्रीराम सदैव देवी मंथरा के ऋणी रहेंगे।




- पंकज कुमार शर्मा ‘प्रखर’
पौराणिक पात्रों एवं कथानक लेखन
कोटा, राज॰

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