आस्था और परंपरा से तात्पर्य हमारे यहाँ हर चीज के लिए परंपरा होती है ,हमारा खाना –पीना ,सोना जागना ,पहनना –ओढ़ना सबकुछ परंपरा के अनुसार किया जाता रहा है
आस्था और परंपरा से तात्पर्य
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आस्था और परंपरा से तात्पर्य |
त्योहारों में निरीह पशुओं का बलि दी जाती है ,कुछ मंदिरों में भी बलि देने की परंपरा है । बकरीद में भी बलि होती है। भारतीय सेना की इकाइयों में भी भैंस की बलि दी जाती है । लेकिन क्या बलि देना उचित है ? हम मानते हैं कि सभी जीव परमात्मा के संतान है ,वास है तो उस परमात्मा विराजित प्राणी को बलि देना न्यायोचित तो नहीं हो सकता । लेकिन कहा तो यह भी जाता रहा है कि ये परम्पराएँ होने के साथ पवित्र एवं धार्मिक कर्मकांड है । वेदों में भी कहा गया है कि ‘पशुओं की रक्षा करो ‘’गाय को न मारो ,बकरी को मत मारो ,भेड़ों को मत मारो ,किसी प्राणी की हिंसा न करो । अब प्रश्न यह उठता है कि यदि वेद में मांस वाचक या पशुहिंसा बोधक कोई शब्द प्रयुक्त न हुआ तो कैसे बलि जायज हो सकता है । इस विषय में महाभारत के एक प्रसंग को उल्लेख कर देना चाहते हैं ‘अजेन यष्ट्व्यम ‘ ‘’अन्न से यज्ञ करना चाहिए ।‘ अज’का अर्थ है उत्त्पतिरहित ; अन्न का बीज ही अनादि –परंपरा से चला आ रहा है । अतः आज आज वही ‘अज ‘ का मुख्य अर्थ बकरा है । मुस्लिम त्योहारों में बलि देने की परंपरा यहूदी परंपरा से आयी है । परंपरा के मुताबिक ,अब्राहम ने ईश्वर के लिए अपने बेटे की बलि देना चाहा था ,लेकिन देवदूत ने उसे रोक दिया था । जब अब्राहम की आँख खुली ,तो उसने एक भेड़ को सामने पाया । मुस्लिम परंपरा में इसी से मिलती –जुलती कहानी कही जाती है । इसी से हज के दौरान शैतान को पत्थर मारने की परंपरा जुड़ी हुई है । आज भी बलि देने की परंपरा बनी हुई है । सबरीमला में वयस्क स्त्रियों के प्रवेश पर या तीन तलाक को सर्वोच्य अदालत द्वारा अवैध घोषित करने के बाबजूद ऐसे ही प्रतिक्रिया दी जाती है कि परंपरागत व्यवस्था को बिगाड़ने की कोशिश की गयी है । मुसलमानों में खतना का रिवाज है । यह धार्मिक कम सामाजिक प्रक्रिया ज्यादा है लेकिन इसे धार्मिक परंपरा के नाम से यह चलन में है । एक बात तय है कि सारी कुरीतियाँ जो परंपरा के नाम पर हैं हर धर्म में जो खुद अब धर्म बन गयी हैं ।
यह माना जाता रहा है कि ईश्वर बलि देने वाले भक्तों की आस्था से प्रसन्न हो जाते हैं । यह एक ऐसा विश्वास है जिसका न कोई प्रमाण या ठोस आधार होता है ,लिहाजा अब इस वैज्ञानिक युग में परंपरा के संदर्भ एवं उसके औचित्य को समझकर ही परंपरा निभाएं । धर्म को उसकी विश्वनीयता बना रहने दें । धार्मिक कर्मकांडों के नाम पर निर्दोष पशुओं को बलि देने से बाज आयें क्योंकि यह अंधविश्वास में न रहे कि बलि से इष्ट संतुष्ट होंगे । जिस प्रकार सती प्रथा का अंत राजराम मोहन राय के प्रयासों द्वारा सम्पन्न हुई ,उसी प्रकार सभी समुदायों को यह विचार करना आवश्यक हो जाता है कि समाज में फैले इस तरह के कुरीति परंपरा के नाम लगातार चल रही उस समाज को सही परंपरा में लाया जाय । आज परंपरा विज्ञान ,शोध ,अनुसंधान, मानवता ,विकास की होने चाहिए जो कि सही मायने में आस्था ऑर परंपरा की परिचायक है ।
- ज्योति रंजन पाठक
शिक्षा – बी .कॉम (प्रतिष्ठा )
पिता –श्री बृंदावन बिहारी पाठक
संपर्क नं -8434768823
वर्तमान पता –रांची (झारखंड )
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