खुशी के भागीदार

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खुशी के भागीदार शहर में चल रही प्रदर्शनी में वसुधा के बनाए कपड़ों की दुकान भी लगी थी। सुबह दस बजे से लेकर रात दस बजे तक वह दुकान पर ही होती थी। ग्राहक आते रहते। कुछ खरीदते, कुछ केवल देखकर छोड़ देते। वह सबको बहुत ध्यान से देखती।

खुशी के भागीदार


शहर में चल रही प्रदर्शनी में वसुधा के बनाए कपड़ों की दुकान भी लगी थी। सुबह दस बजे से लेकर रात दस बजे तक वह दुकान पर ही होती थी। ग्राहक आते रहते। कुछ खरीदते, कुछ केवल देखकर छोड़ देते। वह सबको बहुत ध्यान से देखती। जानने की कोशिश करती कि उन्हें क्या पसंद अा रहा है। कौन से डिज़ाइन हैं जो लगातार पसंद किए जा रहे हैं, और कौन से डिज़ाइन में सुधार की जरूरत है। प्रदर्शनी एक ही हफ़्ते के लिए लगी थी। पूरे हफ्ते वसुधा की  यही दिनचर्या रहने वाली थी। पति ऑफिस काम से शहर के बाहर थे। बेटा भी पढ़ाई पूरी होने के बाद दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था। लड़की पढ़ाई के लिए हॉस्टल में रहती थी।

सुबह अपने लिए खाना बनाती और टिफिन लेकर प्रदर्शनी में अा जाती। उसके डिज़ाइन किए कपड़ों की काफी तारीफ हो रही थी। पुराना स्टोक बिक चुका था। लगातार नए ऑर्डर मिल रहे थे। जितना समय दुकान पर बीतता वह बहुत खुश रहती। लेकिन घर आते ही अकेलापन उसे कचोटने लगता। उसे महसूस होता कि उसकी
सफलता में कोई भागीदार नहीं है। जिन लोगों को सफल बनाने के लिए उसने इतने वर्ष अपने हुनर को दबाकर रखा, उन्हें उसकी सफलता में कोई रुचि नहीं है। फोन पर भी सामान्य बातचीत होती। एक बार भी वसुधा को नहीं लगा कि उसके पति या बच्चे प्रदर्शनी के बारे में जानने को उत्सुक हैं।

प्रदर्शनी
प्रदर्शनी
वसुधा रोज़ अपेक्षा करती कि उसके परिवार के सदस्यों में से कोई तो किसी दिन उसकी सफलता के बारे में चर्चा करेगा परन्तु ऐसा नहीं हुआ। उसकी इच्छा ही बनी रही कि कोई उसके लिए उत्साहित हो। उसकी प्रगति देखकर उत्तेजित हो। वसुधा दुकान पर जाने से पहले प्रतिदिन भगवान के सामने हाथ जोड़ती। उन्हें धन्यवाद कहना नहीं भूलती। अपने माता पिता अब उसे बहुत याद आने लगे थे। वो दिन वो घटनाएं रह रह कर याद आती जब उसके अच्छे प्रदर्शन पर घर में खुशियों की बारिश आती थी। मां की नम आंखें, पिता की आंखों की चमक उसके मस्तिष्क में ठहर गई थी। पिता के कहे आखिरी शब्द भी उसे याद थे। " वसुधा घर संभालने में  स्वयं को भूल मत जाना। एक दिन वापस खुद से मिलना पड़ेगा।" पिता होते तो आज कितने खुश होते। कितने कम समय में उसने शहर में अपनी पहचान बना ली थी। कुछ महीने ही हुए थे और उसे लगता था जैसे बहुत पहले से वह काम कर रही है। उसने कभी काम छोड़ा ही नहीं था। बस मन में एक ही टीस थी। उसकी खुशियों में खुश होने वाले अब दुनिया से जा चुके थे।

प्रदर्शनी ख़त्म हो गई थी। वसुधा की दिनचर्या फिर से पहले की तरह हो गई थी। अब थोड़ा आराम मिलने लगा था। पति का फोन आया था। काम ख़त्म करके वो आज वापिस आ रहे थे। वसुधा ने उनकी पसंद का खाना बनाकर फ्रिज में रख दिया और दुकान पर चली गई। जो नए ऑर्डर मिले थे उन्हें पूरा करने की जल्दी थी। दिन में कोई फोन नहीं आया। उसने फोन मिलाया लेकिन मिला नहीं। वह व्यस्त थी इसलिए सोचा घर जाने के बाद ही बात कर लेगी। हो सकता है बैट्री डाउन हो इसीलिए फोन नहीं मिला हो।

शाम को दुकान बंद करके घर पहुंची। दरवाजा अंदर से बंद था। पतिदेव अा चुके हैं उसने अपने मन में सोचा। दरवाजा उन्होंने ही खोला।अंदर गई तो एक अच्छी सी खुशबू आ रही थी। धीमी आवाज़ में संगीत बज रहा था। वसुधा कुछ समझ पाती तभी किसी ने पीछे से अपनी हथेलियों से उसकी दोनों आंखें बंद कर दी। उसने छूकर पहचान लिया। बेटी और बेटा दोनों की शरारत थी। तुम दोनों बिना बताए कब अा गए उसने दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर प्रश्न किया। उसके आश्चर्य की सीमा नहीं थी। तब तक पतिदेव भी उसके लिए पानी का गिलास लेकर वहीं अा चुके थे। तीनों ने एक स्वर में बोला " शहर की सबसे बड़ी ड्रेस डिजाइनर का स्वागत है।" तालियां बज रही थी और वसुधा की आंखों से लगातार आंसु बह रहे थे। उसे समझ अा गया था कि अपने माता पिता की खुशी की तुलना इन लोगों से करना कितना गलत था। मां बाप बच्चों की सफलता के लिए अथक प्रयास करते हैं इसलिए उनकी खुशी अतुलनीय होती है।




- अर्चना त्यागी
व्याख्याता रसायन विज्ञान
एवम् कैरियर परामर्शदाता
जोधपुर ( राज.)


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