हॉटस्पॉट इलाके में कोरोना ड्यूटी

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महिला पुलिसकर्मियों ने कोरोना काल में अपने कर्तव्यों का बखूबी पालन कर यह साबित किया कि बेटियां समाज की बोझ नहीं शान हैं। इनकी बहादुरी और हिम्मत उन सभी संकीर्ण मानसिकता वालों के लिए एक संदेश है जो बेटियों को गर्भ में ही मार देने जैसी घिनौनी साजिश को अंजाम देते हैं।

अपनी जान पर जोखिम, ताकि बची रहे आपकी जान


इस वर्ष का स्वतंत्रता दिवस पिछले तमाम वर्षों से अलग तरह से मनाया जा रहा है। हालांकि कोरोना काल की काली छाया के बावजूद जश्ने आज़ादी की धूम फीकी नहीं पड़ रही है। आज़ादी के इस जश्न में एक तरफ जहां स्वतंत्रता सेनानियों को याद किया जा रहा है वहीं कोरोना योद्धाओं का भी सम्मान किया जा रहा है। कोरोना को हराने और देश को सुरक्षित रखने में स्वास्थ्यकर्मी और पुलिस बलों ने जो योगदान दिया है, उसका पूरा भारतवर्ष ऋणी रहेगा। विशेषकर महिला पुलिसकर्मियों के अतुलनीय योगदान को देश कभी भुला नहीं सकेगा। उच्च अधिकारियों से लेकर कांस्टेबलों तक ने अपने छोटे बच्चों से दूर रहकर जिस तरह से कोरोना हॉटस्पॉट पर काम किया है, वह देश और समाज के प्रति उनके जज़्बे को दर्शाता है। इनमें से कई महिला कांस्टेबल केवल एक पुलिसकर्मी ही नहीं बल्कि ममतामयी माँ भी हैं, इसके बावजूद उन्होंने परिवार से ऊपर अपने फ़र्ज़ को तरजीह दी।

सुबह 8 बजे कोरोना हॉटस्पॉट इलाके में पहुँचकर रात 8 बजे तक वहीं तैनात रहना। गर्मी, धूप और संक्रमित हवा के बीच कभी हांथों को सैन्टाइज़ करना, तो कभी चेहरे पर लगे मास्क या रुमाल को पलभर के लिए निकालकर पसीना पोछना और फिर बांध लेना। दूसरों को संक्रमण से बचाने के लिए घरों में रहने की बार बार अपील करना, अपने नन्हे बच्चों को छोड़कर महज मोबाइल पर बात करके उन्हें समझा देना कि बेटा रो मत, मम्मी जल्दी घर आएगी। ममता और देश सेवा की मिश्रित मिसाल हैं देश की ये महिला पुलिसकर्मी, जो हॉटस्पॉट इलाकों में अपनी जान पर खेलकर ड्यूटी करती रहीं।

ग्रेटर विशाखापट्टनम में नगर निगम की कमिश्नर आईएएस अधिकारी सृजना गुम्माला देश सेवा की ख़ातिर अपने 1 महीने के शिशु को लेकर नौकरी पर आ गई थीं। मातृत्व अवकाश ठुकरा कर अपने नवजात शिशु के साथ ही दफ्तर पहुंचने वाली इस प्रशासनिक अधिकारी की हिम्मत को आज देश सलाम कर रहा है, लेकिन देश सेवा के जज़्बे में नारी शक्ति में कोई कमी नहीं आई। देश की असंख्य महिला पुलिसकर्मी देश प्रेम और जज़्बे की अदभुत मिसाल पेश करती रहीं। अपने अपने शहर के कोरोना संक्रमण प्रभावित हॉटस्पॉट इलाकों में 12 घंटे ड्यूटी करने वाली यह महिला पुलिसकर्मी अपनी जान की परवाह किए बिना हजारों लोगों की जान बचाने के लिए दिन रात मुस्तैद रहीं। कोई 1 साल के बच्चे को अकेला छोड़कर तो कोई बीमारी के बावजूद 12- 12 घंटे हॉटस्पॉट क्षेत्रों में ड्यूटी देती रहीं। हर पल कोरोना संक्रमण के खतरे में रहकर ड्यूटी देश के प्रति इनके जज़्बे और ईमानदारी को दर्शाता है।

दिल्ली से सटे मेरठ जैसे छोटे शहरों में भी कोरोना काल में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने वाली महिला पुलिसकर्मियों के हौसले देखने लायक थे। यहां लगभग 457 महिला पुलिसकर्मियों ने कोरोना के दौरान देश की सेवा का अपना संकल्प पूरा करते हुए मुस्तैदी के साथ ड्यूटी दी। इनमें 436 कांस्टेबल, 18 दारोगा और 3
महिला पुलिसकर्मी
महिला पुलिसकर्मी
इंस्पेक्टर के पद पर तैनात थीं। ड्यूटी के दौरान भी बच्चों के अकेलेपन की चिंता के उमड़ते बादल और दर्द को याद करते हुए सब इंस्पेक्टर लतेश बताती हैं कि मेरे दो बच्चे हैं, जिनकी ड्यूटी के दौरान भी मुझे फ़िक्र सताती रहती थी। कोरोना के क्रूर साया से दूसरों की सुरक्षा के दौरान बार बार यह ख्याल आता था कि घर पर बच्चे सुरक्षित रहें। ज़रा सी लापरवाही उन्हें भी संक्रमित कर सकती थी। ऐसे संकट की घड़ी में छोटे बच्चों को माँ की ज़रूरत है, लेकिन फिर कर्तव्य ममता से बड़ी होती है। इसलिए अपना कर्तव्य निभाने को प्राथमिकता देती रही। स्कूल बंद होने से परेशानी कम रही। लेकिन दिक्कत तो होती थी। रात 9 बजे घर जाकर सबसे पहले नहाती थी ताकि किसी भी प्रकार के संक्रमण से खुद को और बच्चों की सुरक्षा हो सके।  फिर बच्चों के लिए खाना बनाती थी और उनके साथ समय बिताती थी। इस तरह रात 1 बजे सोती और फिर सुबह 5 बजे उठ कर उसी जोश और जज़्बे के साथ ड्यूटी के लिए तैयार हो जाती थी। याद रहे कि संक्रमण के दौरान लतेश की ड्यूटी मेरठ के हॉटस्पॉट इलाके हरनामदास में हुई थी। कोरोना ड्यूटी की चुनौती को याद करते हुए वह बताती है कि जब थाने पर ड्यूटी होती है तो इतनी दिक्कत नहीं होती। लेकिन फिल्ड ड्यूटी में एक महिला पुलिसकर्मी को सबसे अधिक वॉशरूम की दिक्कत होती है। हॉटस्पॉट इलाकों में हर जगह संक्रमण का खतरा था। ऐसे में वाशरूम के लिए कहीं भी जाना खतरे से खाली नहीं होता था।

हॉटस्पॉट इलाके में कोरोना ड्यूटी कर चुकी कॉन्स्टेबल मीनू बताती है कि कोरोना से बचना सभी के लिए जरूरी है, लेकिन लोग सुरक्षित रहें यही हमारी ज़िम्मेदारी है। संक्रमण काल के दौरान 12-12 घंटे की ड्यूटी करती थी। सरकार की ओर से वर्दी भी दो ही मिली है। ऐसे में रोज़ाना उसे धोना संभव नहीं होता था। इसलिए एक वर्दी 2 दिन पहनती थी। घर आने पर वर्दी बाहर अलग स्थान पर रख देती थी। दिन भर की संक्रमित इलाके में पहनी गई पसीने की वर्दी ही दूसरे दिन भी पहनने की मज़बूरी थी। लोग अपने घरों में अंदर सुरक्षित हैं। लेकिन हम पुलिसकर्मी जो हॉटस्पॉट इलाके में ड्यूटी कर रहे थे। उन्हीं कॉलोनियों के गेट पर ही खाना खाते और पानी पीते थे। सुरक्षा का ख्याल रखते हुए सैनिटाइजर प्रयोग कर लेते हैं। सुबह 8 बजे से पहले जो खाना बन जाये वही घर से ले आया करते थे। एक तरफ जहां मीनू पुलिस की नौकरी कर देश की सेवा कर रही हैं वहीं उनके पति भी फौज के माध्यम से मातृभूमि की रक्षा कर रहे हैं। ऐसे में मीनू की नौकरी के दौरान सास ससुर घर का पूरा ख्याल रख रहे हैं। मां की ममता और सामाजिक ज़िम्मेदारी की दोहरी भूमिका निभाने वाली महिला कॉन्स्टेबल अनिता ने भी इस दौरान अपना कर्तव्य बखूबी अदा किया। हॉटस्पॉट इलाके में 12 घंटे ड्यूटी करने वाली अनिता पिछले 9 वर्षों से उत्तर प्रदेश पुलिस में नौकरी कर रही हैं। वह कहती हैं कि हॉटस्पॉट क्षेत्र में तैनाती से डर नहीं लगता था, लेकिन हर पल मन में बच्चों की चिंता रहती थी। मेरा शरीर ड्यूटी पर होता था, लेकिन मन घर पर नन्हे बच्चों के साथ होता है। देश की इस सच्ची सिपाही अनिता अपने दो छोटे बच्चों को छोड़कर समाज को कोरोना से बचाने में दिन रात लगी रहीं। छोटे बच्चों को घर पर सास के भरोसे छोड़कर अनिता सुबह 8:00 बजे ही ड्यूटी पर निकल जाती थी और फिर सीधे रात में 8:00 बजे के बाद घर पहुँचती थी। इस दौरान सासू मां का पूरा सहयोग होता था। मीनू बताती हैं कि ड्यूटी के दौरान बच्चे रोते थे तो वीडियो कॉल करके उन्हें सांत्वना दिया करती थी। ख़ास बात यह है कि मीनू की तरह अनीता के पति भी फौज में हैं।

लतेश, मीनू और अनिता की तरह देश के कई हिस्सों में हज़ारों महिला पुलिसकर्मियों ने कोरोना काल में अपने कर्तव्यों का बखूबी पालन कर यह साबित किया कि बेटियां समाज की बोझ नहीं शान हैं। इनकी बहादुरी और हिम्मत उन सभी संकीर्ण मानसिकता वालों के लिए एक संदेश है जो बेटियों को गर्भ में ही मार देने जैसी घिनौनी साजिश को अंजाम देते हैं। ममता से पहले अपने सामाजिक कर्तव्यों को प्राथमिकता देने वाली बेटियों पर देश को हमेशा नाज़ रहा है। घर के साथ साथ मुस्तैदी से ड्यूटी निभाने वाली इन महिलाओं ने साबित कर दिया कि औरत कमज़ोर नहीं बल्कि हर वह फ़र्ज़ बखूबी निभा सकती है जिसे समाज केवल पुरुषों का एकाधिकार समझता रहा है। बस ज़रूरत है इन्हें एक अवसर प्रदान करने की। (यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2019 के अंतर्गत लिखी गई है)



- शालू अग्रवाल
मेरठ


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