बीमार आकांक्षाओं की खोज

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फ्रांस के क़ौमी दिवस पर फ्रेंच एम्बेसी के राजदूत के निवास स्थान के एक चौड़े विशाल लॉन पर मिली एक दावत में मैं लॉन के एक ख़ाली कोने में सबसे अलग बैठा हुआ था, तो वह मेरी ओर बढ़कर आई। न जाने क्या सोचकर या शायद किसी गष्लतफ़हमी के तहत इससे पहले तो ऐसा कभी हुआ न था।

बीमार आकांक्षाओं की खोज

क्या ये सब ज़िल्लते, यंत्रणाएँ, अपमान, मानसिक यातनाएँ, अनाड़ीपन, भयव्वहीनता के नगण्य भाव मेरे हिस्से में आने वाले थे? दोष भी किसे दें, मेरी ऐसी दयनीय दशा के लिये। कैसे तो मैं अपनी छोटी-छोटी ख्वाहिशों, उम्मीदों, नाकामियों, निराशाओं और नाउम्मीदों में ज़िंदा था। जीता रहा ऐसे ही; पर यह अहसास? शायद मेरे चेहरे की तरह, मेरी रूह, मेरे वजूद और सोच में भी सलवटें पड़ गईं हैं या शायद मैं ग़लत मौक़े, ग़लत वक़्त और ग़लत जगह पर पैदा हुआ हूँ या मौजूद हूँ। 

पर यह कोई ख़ास नई या हैरान करने वाली बात तो नहीं है मैं जो कुछ भी सोचता हूँ वह कह नहीं सकता। ये तो शुरू से ही था औरों के सवालों के जवाब, उनकी सोच विचार और राय पर जवाब और उन जवाबों की दलीलें बाद में ही दिमाग़ में आती हैं। 

‘‘ऐसे जवाब देता तो यह दलील देता।’’ सामने बात करते तो जैसे साँप सूँघ जाता है। होश गुम हो जाते हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता कि क्या कहूँ, कौन सा जवाब दूँ। 
मेरे लिये लोगों का धिक्कार, नफ़रत, नज़रअंदाज़ी और अहमियत न देने का कारण तो मान लें, मेरा अनाड़ीपन
मुश्ताक़ अहमद शोरो
मुश्ताक़ अहमद शोरो
और पागलपन ही हो पर मेरे साथ ऐसा क्यों है? कोई कितनी भी बेइज़्ज़ती करे, ज़लील करे, ठिठोली करे, ताने मारे, पर बदले में देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं। पहले तो मन ही मन मैं उस आदमी को अपने हाथों ज़लील और अपमानित करने की फ़िल्म बार-बार चलाता था, पर अब ज़िंदगी के उस पायदान पर कौन बैठकर लेखा-जोखा करे। बचा भी क्या है अब हिसाब किताब के लिये! शोलों की प्रतीक्षा की पीड़ा, संताप व यातना जो मौत की सज़ा क़रार क़ैदी अपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात महसूस करता है, इसे इस क़ैदी से ज़्यादा और कौन कैसे जान, समझ, महसूस कर सकता है?
मैं जो अपने वजूद के पहले दिन से अंधेरों में भटकता, खिसकता, ठोकरें खाता साफ़-शफ़ाक, उजली रोशनी और उजाले की खोज करता रहा, मिला क्या? अंधकूप, प्रकाशरहित काली रातें मुक़द्दर बनती रहीं। मुक़द्दर, तक़दीर, भाग्य पता नहीं क्या है! पर सच में अजीब दस्तूर है कि एक जैसी ही परिस्थितियों में, एक जैसे अवसर पाने पर भी कोई जीत जाता है, कोई हार बैठता है। कोई बच जाता है तो कोई ज़िंदगी से हाथ धो बैठता है। एक ही बस के हादसे में कोई मर जाता है तो किसी को खरोंच भी नहीं आती और मैं जिस किसी काम में हाथ डालता हूँ तो बस गड़बड़ पैदा करने का सबब बन जाता हूँ। सीधा-सरल काम तो मुझसे कभी हुआ ही नहीं है। मेरा वजूद ही एक ‘क्रिमिनल जोक’ है। 

क्रिमिनल!....क्राइम...क्या है, क्राइम? क्रिमिनल, अपराधी बनना आदमी का अपना चुनाव तो नहीं। इन्सान तो बिल्कुल ख़ाली और कोरा है। उसके पास देने के लिए अपना कुछ भी नहीं है। वह तो सिर्फ़ समाज को वही लौटाकर देता है, जो समाज उसे देता है और यह समाज! इस समाज के पास तो क्रिमिनल, अपराधी, अशक्त मरीज़ या पागल पैदा करने के सिवा है भी क्या? यह रचना एक बड़ा कारखाना है, गुनहगार और दुर्बल मरीज़ पैदा करने का अपनी पैदाइश के लिये सज़ाएँ भी समाज खुद ही तय कर बैठा है। 

ज़िंदगी मैं नहीं गुज़ार रहा, ज़िंदगी ही मुझे धीरे-धीरे जी रही है। कभी न कम होने वाली यातनाओं में, ना उम्मीदों और मायूसियों के कभी न ख़त्म होने वाले सिलसिले में ज़िंदगी के हाथों मैंने हर क़दम पर, हर मोड़ पर मार खाई है और मेरे हिस्से में अपने ही ज़ख्मों को चाटने के सिवा आया ही क्या है? 

आगे क्या होगा? भले कुछ भी हो पर बेहतरी की उम्मीद बेवकूफ़ी है। कभी-कभी धोखे और नख़लिस्तान भी बेहतर होते हैं। कुछ वक़्त के लिये आदमी में जीने की तमन्ना तो पैदा हो जाती है। जब वह ज़िंदगी में आई तो मैं समझ बैठा कि कुछ भी हो वह मेरे लिये किसी घने दरख़्त की छाँव है। मैंने सोचा, उस पेड़ के तने के सहारे उसके साँवली घटाओं जैसे बालों में मुँह छुपाकर, बाक़ी की बची ज़िंदगी गुज़ार लूँगा, कुछ भी सोचे बिना उन दुखों, उन यातनाओं, उन बैग़रत व्यवहारों और ज़िल्लतों को बाजू रखकर, पर वह छायादार पेड़ था, टिक न पाया। 

ख्वाहिशों और आशाओं की भीड़ों में रौंदते, कुचलते हुए भी, उस भीड़ से अलग रह पाना कितना कठिन है, अपने बदसूरत पाजीपन और मामूली वजूद को भुलाकर चाहा मैंने भी था कि कोई हो जो टूटकर मुझे चाहे, किसी और के नाम से जुड़ी हुई न हो। सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे लिये हो और उसकी आँखों में सिर्फ़ मैं ही समाया रहूँ। उसकी आँखें भी उसकी तरह कुँवारी हों और मैंने अपने सपनों को उसके रूप में वास्तविक रूप धारण करते हुए पाया। 

उसने कहा. ‘‘.उसका पहला प्यार कोई था, जो उसे छोड़कर चला गया। इसीलिये वह अपने आप में खोई रहती है। वैसे भी औरत को प्यार से ज़्यादा सामाजिक शिनाख़्त की ज़रूरत होती है। वह तो सिर्फ़ शादी के चक्कर में है। उसका दिल, सोचें, ख़याल बंटे हुए हैं। वह टुकड़ों टुकड़ों में जीती है।’’ 

लफ़्ज़ न थे, बम के धमाके थे। मेरे पाँवों तले ज़मीन खिसक गई और मैं खुद को ज़मीन और आसमान के बीच में लटका हुआ महसूस करने लगा। ये सदमे भाग्य हैं। दुख फिर भी हुआ, पीड़ा और तकलीफ़ का कारण तो इतना महत्वपूर्ण भी नहीं था, फिर भी जाने क्यों? पता नहीं मैंने अवकाश क्यों लिया.सुकून पाने से ज़्यादा यातना और मानसिक संताप यूँ घेर लेते हैं, जैसे मधुमक्खी के छत्ते में हस्तक्षेप करने से मधुमक्खियाँ घेर लें। दोष उसका नहीं था, हस्तक्षेप मैंने ही किया था। 
उसने कहा. 
‘‘एक बात कहूँ?’’ 
मैं चुप! 
मेरी किसी प्रतिक्रिया के न होने पर उसने कहा.
‘‘शादी औरत के लिये बीमा-पालिसी है, जिसका प्रीमियम वह सेक्स की सूरत में अदा करती है।’’ 
मैंने ही कहा था उस बात के भद्देपन के बहलाने के लिए.‘‘नहीं, ऐसा भी नहीं है। औरत का बच्चों में भी तो मोह होता है, वह भी तो असामान्य है...!’’ 
अब और कुछ तो याद नहीं, बस इसी तरह कुछ बकता रहा यह साबित करने के लिये कि सब कुछ नार्मल है। कुछ भी अचानक और सदमे जैसा नहीं है, सब ठीक है, ऐसा ही जैसा था। 
चौराहे पर मेरा खड़ा होना स्वाभाविक है, जब मंजिल का अता-पता न हो। मेरा पीड़ादायक सफ़र तो जन्म से शुरू हुआ है, मरने पर ख़त्म होगा। मौत भी जाने कैसे और किस हालत में आएगी। वह भी दर्दनाक ही होगी३शायद, नहीं३निश्चित ही भयानक होगी। 
सज़ाएँ तो काट रहा हूँ ‘सेसफस’ को सज़ा दी गई थी कि वह भारी पत्थर कंधे पर उठाकर पहाड़ की चोटी पर चढ़े और जब वहाँ पहुँचे तो पत्थर हाथ से छूटकर फिर पहाड़ की धरातल पर आ जाये और वह उस निष्फल कार्य पर हर वक़्त अफ़सोस करता रहे.बेमक़सद परिश्रम की सज़ा। सेसफस की तरह मुझे भी न जीतने का संताप, एवम् बिना किसी मंजिल के सफ़र करने की सज़ा मिली हुई है। मेरी रूह की दर्दनाक चीखें गूंगे बहरे कानों तक नहीं पहुँच सकती, सब बेकार है। 
यह रात भी अनेक अद्वितीय रातों में से है, जिसमें रातों की नींद उड़ जाती है और उसकी जगह अनिद्रा ले लेती है। अक्सर ऐसा होता है, नींद भी रूठे हुए महबूब की तरह होती है, ज़िद्दी, कठोर, मिन्नतें न मानने वाली। जागरण आँखों में यूँ बस जाता है जैसे ख़ाली वीरान और उजड़ी जगहों को भूत-प्रेत अपना निवास बना बैठते हैं। अब होगा यूँ कि सूरज निकलने के बाद ऊँघता सा, बेहाल होकर बेहोशी की हालत में आज का सारा दिन और रात, कल भी बेकार चला जाएगा। कोई काम-धाम करने की कोई सुध-बुध न रहेगी। यह ऐसा ही होता रहा है पर करने के लिये ऐसा कुछ है भी तो नहीं! 
अब इस ज़िंदगी के लिये बैठकर क्यों सोचा जाय, कौन सा आराम और सुकून मिला है और फिर ज़िंदगी कौन से निर्बाध ढंग से गुज़री है? यह जीवन तो क्यों-क्यों के सवालों में ही बीत गया। शराब क्यों पीते हो? गंदी वेश्याओं के पास क्यों जाते हो? ऐसे क्यों हो? वैसे क्यों हो तुम? पर कभी किसी ने ये नहीं पूछा कि तुम ज़िन्दा किसलिये हो? मर क्यों नहीं जाते? 
कोई भी मेरे अंदर झाँककर मुझमें छुपा हुआ, डरा हुआ मासूम बच्चा न देख पाया है! मेरे सख़्त चेहरे और व्यवहार के पीछे छुपे हुए कमज़ोर दुर्बल शख़्स को तो वह भी नहीं देख पाई। हमेशा मुझे पत्थर दिल ही कहती रही। ज़िंदगी के जख़्मों की ख़लिश को उसने महसूस नहीं किया, जो मुझसे जुड़ी थी। 
‘‘तुम्हारे रवैये में भी निराशा है, तुम हमेशा ‘निगेटिव’ सोचते हो। ‘पाज़िटिव’ रवैया तो तुम्हारे पास से भी नहीं गुज़रता।’’ 
मैंने कब कहा और सोचा है कि जीवन का फ़क़त एक ही पहलू है। मैं तो सिर्फ़ उस ज़िंदगी की बात कर रहा हूँ जो मेरे हिस्से में आई है। वर्ना सुबह की उज्जवल किरणों में जीने की आशा किसे नहीं होती। हर इन्सान ख्षुशी चाहता है और दुख से छुटकारे की चाह रखता है। पर क्या यह मुमकिन है? इन्सान के नियंत्रण में है। सब कुछ ऐसा ही है। 
अब लगता है ज़िंदगी का समस्त लेखा-जोखा हो चुका है। एक तरफ़ ही सही, इस जीवन में नफ़े-नुक़सान की तक़रार में बैठकर कौन रोए? लावारिस सवालों का जवाब हासिल होने वाला नहीं, ऐसे जैसे धिक्कारे हुए अहसास दिवालिये और कंगाल मुहब्बत के बदले में नहीं मिलते हैं। 
मैं चाहे कुछ भी कर लूँ पर यह तय है और यही मेरी अलिखित सज़ा है, जिसमें मेरा सारा वजूद एक ऐसी लगन और परिश्रम में लगा हुआ है जिसमें से कुछ हासिल होना नहीं है। कोई भी नतीजा निकलने वाला नहीं। 
फ्रांस के क़ौमी दिवस पर फ्रेंच एम्बेसी के राजदूत के निवास स्थान के एक चौड़े विशाल लॉन पर मिली एक दावत में मैं लॉन के एक ख़ाली कोने में सबसे अलग बैठा हुआ था, तो वह मेरी ओर बढ़कर आई। न जाने क्या सोचकर या शायद किसी गष्लतफ़हमी के तहत इससे पहले तो ऐसा कभी हुआ न था। 
‘‘हैलो, कुछ अपने बारे में भी तो सुनाओ?’’ 
वह कुछ आश्चर्य में थी। 
‘‘मैं...बस एक आम आदमी हूँ.ऊ...हाँ, ख़ूबियों की गणना में ख़ामियाँ शायद मुझमें बहुत हैं!...? शायद इसीलिये अपने बारे में कुछ ठीक से कहा नहीं जाता। अपने बारे में निर्णय सही नहीं होता। जीवन में नाकामियाँ बहुत हैं, कामयाबियाँ नहीं के बराबर। उपलब्धियों की तुलना में विफलताएँ ही विफलताएँ हैं। मेरे साथ ऐसी कोई भी बात जुड़ी हुई नहीं है, जो मुझे औरों से अलग पहचान दे। ज़िंदगी में कोई भी हासिलात नहीं। बस यूँ समझ लो कि इस धरती पर छः अरबों की आबादी में मैं एक हूँ, ऐसे ही आम! और तो कुछ महत्वपूर्ण नहीं सुनाने जैसा।’’ 
‘‘तुम तो शर्मीले हो और अपने आप में खोए हुए हो!’’ 
‘‘मुझे मालूम नहीं पर प् ंउ चंतंसलेमक ूपजी मिंतण् चौबीस घंटे ही डर में जीता हूँ, कुछ अनजाना सा डर। अंधेरे का डर और...’’ 
‘‘कभी इस बात पर ग़ौर किया है कि तुम्हारी समस्या क्या है? तुम ऐसे क्यों हो, निराश-मायूस?’’ 
‘‘सोचा तो कई बार है मगर मालूम नहीं...ॅमसस प्ए हनमे प् ंउ वचचतमेमक इल ं मिमसपदह व`ि ेवउमजीपदह उपेपदह पद उल सपमिए पदजमदेमसल ेन`िमितपदह तिवउ ं संबा व`ि पदपिउंबलण् इसके सिवा मुझे पता नहीं, कुछ और भी हो! मेरी समझ के बाहर।’’ 
‘‘सच क्या है?’’ 
‘‘सच तो ये है, जिसकी हमेशा तलाश रही है, पर कभी मिला नहीं है। किसी को भी नहीं, गौतम बुद्ध को भी नहीं...!’’ 
वह कुछ देर चुप मेरे मुँह को तकती रही और फिर बिना कुछ कहे, अपनी पहचान दिए बिना, आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुई भीड़ का हिस्सा बन गई और मैं वहीं अकेला ही बैठा रहा। 
अकेला तो सारी उम्र रहा हूँ। किसी को अपना बनाना भी तो मुझे नहीं आया है। ता-उम्र रहते-रहते अब हालत ऐसी हुई है कि कोई अपने आप मेरी तरफ़ बढ़ने की कोशिश करता भी है तो मैं खुद दूर भाग जाता हूँ। शायद डर से, शायद बेयक़ीनी में या शायद बेएतबारी में, पर मुझमें कुछ ऐसा है भी नहीं कि कोई मेरे साथ सारी उम्र बिता सके। मूढ़ और अनाड़ी तो हूँ ही! 
अब शायद वक़्त भी नहीं है मेरे पास रिश्ते-नाते जोड़ने का, और न ही साहस, शायद वक़्त और साहस दोनों मेरे पास नहीं। शायद...! 
अब तो लगता है ज़िंदगी से लड़ने के लिये मेरे पास कोई हथियार ही नहीं बचा है। 

- लेखक: मुश्ताक़ अहमद शोरो
अनुवाद:देवी नागरानी  


मुश्ताक़ अहमद शोरो ( बीमार आकांक्षाओं की खोज)
जन्म: 10 मई 1952, नूर मुहम्मद गाँव, तालुका: सुजावल, ज़िला ठठा, सिन्ध. 1973 में यूनिवर्सिटी से ग्राजुएशन किया और 1997 में पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री हासिल की। हैदराबाद सिन्ध से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘आखाणी’ के संपादक रहे हैं। ज़िंदगी की शुरुआत रेडियो पत्रकार के रूप में की। अब वे विश्वविध्यालय में परमर्शदाता के रूप में कार्यरत हैं।
प्रकाशित दो कहानी संग्रह: एक “थके जज़्बों की मौत” -1975 में, और दूसरा  “टूटे फूटे बिखरते अक्स” (2003)। उन्होने अनेक कॉलम, लेख और ड्रामे भी लिखे। सिन्धी कहानी के समकालीन तत्वों पर अपना मत रखा। उनकी पहली कहानी “रूहरिहाण” नामक मासिक पत्रिका मैं छपी थी। अब तक उन्होने 40 कहानियाँ लिखी हैं, और एक नॉवेल जो अभी सम्पूर्ण नहीं हुआ है। कहानी लेखन में एक सशक्त नाम, उनकी अपनी एक अलग पहचान है ।                                                                        
पता: फ्लैट न॰ 166 A, सिन्ध  यूनिवरसिटि कर्मचारी आवास की सोसाइटी में, फेज़-1, जामशोरो, सिन्ध में रह रहे हैं 


देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत), 12 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 12 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, व् मीर अली मीर पुरूस्कार, राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद व् महाराष्ट्र सिन्धी साहित्य अकादमी से पुरुसकृत। 
सिन्धी से हिंदी अनुदित कहानियों को सुनें @ https://nangranidevi.blogspot.com/ contact: dnangrani@gmail.com 


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फ्रांस के क़ौमी दिवस पर फ्रेंच एम्बेसी के राजदूत के निवास स्थान के एक चौड़े विशाल लॉन पर मिली एक दावत में मैं लॉन के एक ख़ाली कोने में सबसे अलग बैठा हुआ था, तो वह मेरी ओर बढ़कर आई। न जाने क्या सोचकर या शायद किसी गष्लतफ़हमी के तहत इससे पहले तो ऐसा कभी हुआ न था।
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