वल्लभाचार्य और कृष्ण भक्ति विष्णु स्वामी की परंपरा में वल्लभाचार्य हुए।वे वैशाख कृष्ण ११ संवत १५३५ में पैदा हुए थे। वल्लभाचार्य संवत १५५० के आस पास ब्रज मंडल आये थे।ये शुद्ध अद्वैतवाद के प्रवर्तक थे।वल्लभाचार्य ने ब्रह्म को सगुनात्मक और अनेक गुणों ,धर्मों से युक्त बताया।ये श्रीकृष्ण को सत-चित्त आनंद रूप मानते थे। मनुष्य को कृष्ण भक्ति करनी चाहिए किन्तु उसकी प्राप्ति ईश्वर के अनुग्रह या कृपा पर निर्भर है ईश्वर के उसी अनुग्रह को पुष्टि कहा गया है।
वल्लभाचार्य और कृष्ण भक्ति
विष्णु स्वामी की परंपरा में वल्लभाचार्य हुए।वे वैशाख कृष्ण ११ संवत १५३५ में पैदा हुए थे। वल्लभाचार्य संवत १५५० के आस पास ब्रज मंडल आये थे।ये शुद्ध अद्वैतवाद के प्रवर्तक थे।वल्लभाचार्य ने ब्रह्म को सगुनात्मक और अनेक गुणों ,धर्मों से युक्त बताया।ये श्रीकृष्ण को सत-चित्त आनंद रूप मानते थे। मनुष्य को कृष्ण भक्ति करनी चाहिए किन्तु उसकी प्राप्ति ईश्वर के अनुग्रह या कृपा पर निर्भर है ईश्वर के उसी अनुग्रह को पुष्टि कहा गया है।वल्लभाचार्य द्वारा चलाया गया यही उपासना का मार्ग पुष्टि मार्ग कहा गया।शुद्धद्वैत का व्यावहारिक रूप पुष्टि मार्ग है। श्रीमद्भागवत में इस पोषण तदनुग्रह अर्थात भगवान की कृपा कहा गया है।भगवान को प्राप्त करने के दो उपाय है -
- मर्यादा मार्ग या साधना मार्ग
- पुष्टि मार्ग मर्यादा मार्ग में शाश्त्रों द्वारा बताये गए साधन मुख्य है।
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वल्लभाचार्य और कृष्ण भक्ति |
वल्लभाचार्य इसे अनुपयुक्त मान कर पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन करते हैं।इनके अनुसार भगवान स्वयं अपने भक्तों पर कृपा और मुक्ति प्रदान करते हैं।पुष्टि ४ प्रकार की होती है -
- प्रवाह पुष्टि
- मर्यादा पुष्टि
- पुष्टि पुष्टि
- शुद्ध पुष्टि
इनके अनुसार कृष्ण पूर्ण ब्रह्म ,उनकी शक्ति राधा और गोपियाँ है। जीव अंगों ब्रह्म का अंग है। अंग अंगी को प्राप्त करने के लिए व्याकुल रहता है। इन्होने देशभर में भ्रमण कर अपने सिद्धांत का प्रचार किया। इनके चार प्रमुख शिष्य हुए - सूरदास ,परमानन्द ,कुम्भनदास और कृष्ण दास। इनकी मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी अनेक शिष्य हुए। इनमें चार विशेष प्रमुख है - नंददास ,चतुर्भुज दास ,गोविन्ददास और छीत स्वामी। इन्ही आठों शिष्यों को अष्ट छाप कहा गया है।
ब्रजमंडल श्रीकृष्ण की जन्मभूमि श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीला भूमि थी।इसी कारण निम्बार्क भी वृन्दावन आये और अपने शिष्यों को कृष्णभक्ति की दीक्षा दी।इनकी भक्ति में माधुर्य भक्ति की प्रधानता है। संवत १५९० में हित हरिवंश ने वृन्दावन आकर राधा को उपास्य मानकर राधावल्लभ संप्रदाय चलाया।सबके अंत में हरिदास जी संवत १८९४ में वृंदावन पहुंचे और इन्होने हरिदासी संप्रदाय चलाया। इस प्रकार कृष्णभक्ति वल्लभसम्प्रदाय ,निम्बार्कसंप्रदाय ,चैतन्य,राधा वल्लभ ,हरिदासी संप्रदाय के कवियों द्वारा चारों ओर प्रचारित प्रसारित की गयी।
बढ़िया लेख
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