विश्व हिन्दी दिवस 10 जनवरी

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विश्व हिन्दी दिवस 10 जनवरी अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस world hindi day 10 जनवरी पर विशेष आलेख - किसी भी देश की सामाजिक व्यवस्था में काल, भाव, भाषा, उसके शब्दों और लेखकों के बीच गहरा अंतर्संबंध होता है। समयकाल के साथ साथ भावों में आने वाले परिवर्तनों को लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषाई शब्दों से स्पष्ट अनुभूत किया जा सकता है।

हिंदी शब्दों के संरक्षण में लेखकों का उत्तरदायित्व


विश्व हिन्दी दिवस 10 जनवरी world hindi day अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस 10 जनवरी पर विशेष आलेख - किसी भी देश की सामाजिक व्यवस्था में काल, भाव, भाषा, उसके शब्दों और लेखकों के बीच गहरा अंतर्संबंध होता है। समयकाल के साथ साथ भावों में आने वाले परिवर्तनों को लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषाई शब्दों से स्पष्ट अनुभूत किया जा सकता है। हिंदी लेखकों द्वारा समयानुसार हिंदी शब्दों के प्रयोग में आए बदलाव इस तथ्य को प्रमाणित करने के सबसे उपयुक्त उदाहरण कहे जा सकते हैं। हिंदी को अक्सर ही अपने तथाकथित क्लिष्ट शब्दों के लिए काफी परिहासों और दोषारोपणों से गुजरना पड़ता रहा है। यहां सबसे बड़ी पीड़ा की बात यह है कि विशेषतौर पर हिंदीभाषी और हिंदी संलग्नी लोग ही हिंदी के शब्दों की क्लिष्टता का मुद्दा उठाते और बनाते पाए जाते हैं। इनसे उकताकर या घबराकर या उपेक्षित होकर बहुतेरे हिंदी लेखकों ने हिंदी के ऐसे शब्दों से अपनी लेखनी को दूर कर लेने में अपना भला मान लिया है। यही कारण है कि वर्तमान में अधिकांश साहित्यिक विधाओं में हिंदी के उन शब्दों के दर्शन लगभग दुर्लभ हो गए हैं, जो हिंदी को प्रांजल बनाते हैं। 

एक और कारण यह भी देखने में आ रहा है कि पिछले कुछ दशकों से भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तेजी से बढ़े एकलपरिवारवाद, पश्चिमीआकर्षण और अतितकनीकीकरण से आपसी नैसर्गिक भावों का विलोप सा होता जा रहा है। कहीं न कहीं लेखकगणों को भी इस भावविलोपता प्रस्तुत करने के लिए हिंदी के मधुर एवं मोहक शब्दों की आवश्यकता भी नहीं पड़ रही है। जब लोगों में भाव और भावनाएं ही नहीं रहेंगी, तो भाषाई शब्दों का उपयोग कौन और कैसे करेगा? प्रांजल हिंदी भावनाओं के धागों से मधुर संबंधों को बुनती है, प्रेम को उकेरती है और लोगों को निकट लाने का उत्तरदायित्व लेखकों से पूरा करवाती है। हाल यह है कि कुछ समय से लेखकवर्ग एक ओर समाज में भाव खोज रहा है, वहीं दूसरी ओर तथाकथित भाषा ठेकेदार हिंदी के सरलीकरण के मुद्दे को गर्माकर लेखकों को पशोपेश में डालने का काम कर रहे हैं। 
विश्व हिन्दी दिवस

सरलीकरण के नाम पर ये लोग कितनी ही उद्दण्डता से हिंदी की विनम्रता को जब-तब आहत करते पाए जाते हैं। एक सीधी सादी हमारी प्यारी हिंदी को सरलीकरण की प्रसव पीड़ा से बार बार गुजारा जाता है, लेखक और अब तो पाठक भी जैसा चाहते हैं वैसा उसे तोड़ मरोड़ देते हैं, संकरित और संक्रमित बना देते हैं। हाल ये है कि दशकों से हिंदी ने मानो अपने ही शब्दों को निहारा नहीं है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि हिंदी की मानक शब्दावलियों के वृहतखण्ड निदेशालयों और मंत्रालयों की दीर्घाओं में आज भी संरक्षित मिल जाएंगे। पर यह संरक्षण मात्र जीवाश्मीकरण से अधिक और कुछ नहीं रह गया है। 

हिंदी शब्दों के जीवंत संरक्षण का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व उसके लेखकों का बनता है। जब तक हिंदी के बिसराए जा रहे साहित्यिक शब्द विविध विधाओं में प्रयुक्त नहीं होंगे, तब तक प्रचलन में नहीं आ सकेंगे और प्रयोग एव प्रचलन दोनों के लिए लेखकों को ही आगे आना होगा। आज के संदर्भ में बात करें तो जब भी कुछ मुठ्ठीभर लेखकगण और कविगण अपनी रचनाओं में हिंदी के स्वर्णकालीन साहित्य के शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो उन पर हिंदी की क्लिष्टता का आरोप लगाया जाने लगता है। ये दोष लगाने वाले लोग प्रायः वे ही होते हैं जो अंग्रेजी के कठिन से कठिन शब्दों को शब्दकोषों में ढूंढ ढूढंकर और फ्रेंच या अमेरिकी अंग्रेजी या जर्मन और फ्रांसिसी भाषाओं का प्रयोग अपने लेखन और भाषण में करने से गौरवांवित अनुभव करते हैं। उनको क्लिष्टता सिर्फ हिंदी के शब्दों में ही दिखाई देती है, क्योंकि हिंदी अपने पांडित्य के प्रदर्शन में विश्वास नहीं रखती है। खैर, यह लोगों की अपनी अपनी सोच, समझ, बौद्धिकता, वैचारिक दरिद्रता और विरोध की भावग्रस्त मानसिकता के विमर्श का विषय है। यह वही विमर्श है जो दशकों से हिंदी के प्रचार प्रसार के नाम पर चले आ रहे हिंदी सम्मेलनों, कार्यशालाओं, संगोष्ठियों में लोगों को स्तरीय जलपान के नए नए आयाम उपलब्ध कराता आ रहा है।
क्या पाठकगण भी ऐसा ही समझते हैं कि हिंदी लेखकों को अब कठिन माने जाने वाले शब्दों का प्रयोग बंद कर देना चाहिए? मैंने पहले ही कहा कि भाव और शब्द आपस में जुड़े होते हैं। हिंदी इन दोनों भावों और शब्दों की समृद्धि की भाषास्वामिनी है और जो सचमुच हिंदीप्रेमी हैं, हिंदी के शब्दों को वास्तव में संरक्षित करना चाहते हैं, तो वे निःसंदेह उनका वैसे ही प्रयोग करते रहें, जैसे आज भी विश्व की दूसरी भाषाओं के साहित्यकार अपनी भाषाओं में कर रहे हैं। हिंदी के युवा साहित्यकार यदि चंद फब्तियों से घबराकर अथवा अपनी लोकप्रियता को दांव पर न लगाने की चेष्टा से बचकर हिंदीभाषा के भावातिसिक्त शब्दों को उपेक्षित करने लगेंगे, तो बेचारे प्रांजल शब्द कहां जाएंगे? 

बहुत से विश्लेषकों का मानना रहा है कि टेलिविजन सीरियलों, कार्टूनों और फिल्मों ने भी हिंदी को उसकी प्रांजलता से दूर किया है। उनका यह तर्क एक सीमा तक सच भी हो सकता है क्योंकि हिंदी में चलताऊ शब्दों का प्रयोग सिर्फ इसलिए किया जाने लगा कि लोग इन मनोरंजन कार्यक्रमों को अधिक से अधिक देखें। हांलाकि ऐसे कार्यक्रमों की पटकथा लिखने वाले लेखकों की भाषाशैली इस तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है, सिवाय इसके कि यह उनकी निम्न सोच के अलावा और कुछ नहीं है। अब एक बात समझ में नहीं आती कि ऐसे लेखकों के लिए आम लोगों को कम आंकना एक समस्या है या उस स्तर पर हिंदी को न लिख पाने में उनको कठिनाई आती है। 

एक समय था, जब सिर्फ दूरदर्शन धारावाहिक आते थे, जिनमें महाभारत, भारत एक खोज और चाणक्य जैसे कई धारावाहिकों में शुद्ध हिंदी का प्रयोग हुआ करता था, तब भी वे उतने ही लोकप्रिय हुआ करते थे। यह वही समय था जब आमलोगों द्वारा अपने माता, पिता, भ्राता, काका और मामा जैसे रिश्तों के संबोधनों में पीछे "श्री" प्रत्यय लगाकर संबोधन करना प्रचलन में आने लगा था। लगभग उसी कालखण्ड में अनेक हिंदी पत्रिकाओं और यहां तक कि समाचार पत्रों तक में प्रयुक्त होने वाले हिंदी के साहित्यिक शब्दों को क्लिष्टता की श्रेणी में तो कदापि नहीं रखा जाता था। समय के साथ साथ भावों ने करवट ली और भाषाई शब्द भी करवट बदलने लगे। हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का समावेश और बिल्कुल रोजमर्रा के प्रचलित शब्दों ने हिंदी के स्तरीय शब्दों को हाशियों पर डालना शुरु कर दिया। आज हाशियों में पड़े अनगिनत हिंदी शब्द बाहर निकलने को कुलबुला रहे हैं। वर्तमान में गूगल और दूसरी साइटों पर अन्य भाषाओं के साथ हिंदी के तथाकथित क्लिष्टतम शब्द कम से कम डिजिटल तौर पर संरक्षित तो हो गए हैं। 

विज्ञान की भाषा में किसी भी जीव प्रजाति अथवा संसाधन का संरक्षण एक ऐसी प्रक्रिया माना जाता है, जिसे उस संसाधन या प्रजाति विशेष को भविष्य में खराब होने या किसी खतरे से बचाने के लिए किया जाता है। किसी प्रजाति अथवा प्राकृतिक संसाधन की संरक्षण स्थिति की संभावना यह शुभ संकेत देती है कि वर्तमान में या निकट भविष्य में उनको विलोपन से बचाया जा सकता है। जीवों की संकटग्रस्त प्रजातियों को तीन श्रेणियों यथा गंभीर रूप से विलुप्तप्राय, विलुप्तप्राय और असुरक्षित प्रजातियों में विभाजित किया जाता है। इनकी संरक्षण स्थिति के आकलन के लिए उस प्रजाति अथवा संसाधन की शेषता, एक विशिष्ट कालखण्ड के दौरान उनकी समग्रता, संरक्षण की संभावी सफलता और विलुप्तता हेतु ज्ञात जोखिम उत्तरदायी माने जाते हैं। इस दृष्टिकोण से हिंदी के अप्रचलित बनते जा रहे शब्दों को भी ऐसी ही किन्हीं श्रेणियों में बांटकर आकलन करना होगा, क्योंकि कहीं विशिष्ट हिंदी शब्दों के संरक्षण का अभाव हमें हिंदी के विलुप्त होने के खतरे से आगाह तो नहीं कर रहा है? 
डॉ. शुभ्रता मिश्रा
डॉ. शुभ्रता मिश्रा

विज्ञान में तकनीकी और प्रायोगिक संरक्षणों में अंतर होता है। जैसे प्राकृतिक संसाधनों, वनस्पति, भूमि, जल और अन्य संपदाओं के संरक्षण में तकनीकी और लोकसहभागिता के अपने स्तरीय उत्तरदायित्व होते हैं। भाषा संरक्षण पर भी विज्ञान का यही नियम लागू होता है। तकनीकियों के माध्यम से जहां एक ओर प्राचीन हिंदी पांडुलिपियों की सहज पुनःप्राप्ति और उनका भण्डारण किया जाना शासकीय प्रतिबद्धता होनी चाहिए। वहीं हिंदी विशेषतौर पर उसके विलुप्तता की कगार पर खड़े शब्दों के संरक्षण में लेखकों को इस नियम का अक्षरशः पालन करते हुए अपना लेखकीय धर्म निष्ठापूर्वक निभाने की आवश्यकता आज की मांग है। प्रायः प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, आवंटन और संरक्षण की नीतियां निर्धारित की जाती हैं और इन संरक्षण नीतियों का पालन करने वाले संरक्षणवादी कहलाते हैं। भारतीय संविधान में हिंदी के लिए बनाई गई राजभाषा नीति तो है परंतु हिंदी के शब्दों के संरक्षण के संदर्भ में आज के लेखकवर्ग को हिंदी संरक्षणवादी की भूमिका निभानी होगी। 

यूं तो हिंदी भाषा, उसके तथाकथित क्लिष्ट शब्द और उनको उनको प्रेम करने वाले हिंदीप्रेमी एवं हिंदी लेखक अक्सर ही अपनी भाषा के साथ होने वाले दुर्व्यवहार से आहत होते रहते हैं। फिर भी एक विश्वास सदैव गहरा बैठा हुआ है कि कितने भी कुठाराघात लोग कर लें पर वे हिंदी का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। हिंदी में अपने शब्दों की वो भाषाई शक्ति है, जिसके बल पर वो सदैव संभल जाती है, खड़ी भी रहती है और आगे खड़ी भी रहेगी। बस आवश्यकता है तो यह कि हिंदी के समर्पित लेखकगण उसके इस आत्मबल को कभी अपघटित न होने दें। इस हेतु हिंदी के शब्दों का जीवंत सरंक्षण करने के लिए वे अधिक से अधिक अपनी विधाओं में इनका प्रयोग करते रहें। हिंदी साहित्य का शब्द स्वर्णकाल, प्रसाद, महादेवी और निराला का शब्दकाल भारत की हिंदी पुस्तकों में पुनः प्रकट होने के लिए वर्तमान लेखकों को लालायित नयनों से देख रहा है। 

हिंदी शब्दों के उपहास और निम्नमूल्यांकन से हिंदी को उबारना हिंदी लेखकों का संकल्प और कर्तव्य होना चाहिए। लेखकों द्वारा संरक्षण और प्रचलन के लिए किए जाने वाले हर संभव प्रयास हिंदी शब्दों को मुख्यधारा में ला सकते हैं। अस्तु, लेखकों और पाठकों की सहभागिता हिंदी के प्रांजल शब्दों के संरक्षण और सुरक्षा के लिए अनिवार्य होनी चाहिए, क्योंकि किसी भाषा को संरक्षित करने या बढ़ावा देने का सर्वश्रेष्ठ उपाय उसे व्यापक स्तर पर दैनिक जीवन में उपयोग में लाना ही है।



- डॉ. शुभ्रता मिश्रा

COMMENTS

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  1. हम सभी में एक ही खून है. सलाह दे सकते हैं. अमल नहीं कर सकते.

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