राजभाषा एवं राजभाषा कर्मियों की स्थिति

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राजभाषा एवं राजभाषा कर्मियों की स्थिति राजभाषा हिंदी एक वैधानिक भाषा है, दूसरी भाषा में कहें तो राजभाषा हिंदी अपने भीतर अनेक अधिकारों को समावेशित किए हुए हैं। नियम, कायदे, कानून के आधार पर राजभाषा हिंदी एक मजबूत तथा प्रबल भाषा तो हैं ही साथ ही साथ इसमें प्रोत्साहन का प्रावधान भी है परन्तु दण्ड़ का प्रावधान नहीं है।

राजभाषा एवं राजभाषा कर्मियों की स्थिति


राजभाषा हिंदी एक वैधानिक भाषा है, दूसरी भाषा में कहें तो राजभाषा हिंदी अपने भीतर अनेक   अधिकारों को समावेशित किए हुए हैं। नियम, कायदे, कानून के आधार पर राजभाषा हिंदी एक मजबूत तथा प्रबल भाषा तो हैं ही साथ ही साथ इसमें प्रोत्साहन का प्रावधान भी है परन्तु दण्ड़ का प्रावधान नहीं है। शायद कभी- कभी यही एक कारण उभर कर आता है कि लोगों की इसके प्रति उदासीनता का रूख देखने को मिलता है। बाकि जो कसर बच जाती है, वह धारा 3(5) पूरा कर देती है। यह ऐसी धारा है जिसकी वजह से हमारे देश में अंगे्रजी का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकेगा।
प्रायः केंद्रीय सरकार के मामलों में और इसके ग क्षेत्र, इसमें भी विशेषकर दक्षिण भारत की ओर इसका प्रत्यक्ष एवं प्रमाणित उदाहरण देखने को मिलता है। सरकार द्वारा समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता हैं ताकि कर्मचारियों जो कि हिंदीतर भाषी है, उनकों इसका फायदा मिल सकें। वास्तव में जब प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारंभ होता हैं तो यही अनुभव देखने को भी मिलता है। परन्तु प्रशिक्षण कार्यक्रम के समापन पर ही यह बात उभर कर आ जाती हैं कि कई कर्मचारियों द्वारा इस प्रशिक्षण में प्रवेश केवल वेतनवृद्धि तथा मनोरंजन के लिए ही लिया गया था तथा प्रशिक्षण के साथ ही उनका उद्धेश्य भी समाप्त होने लग जाता है। कुछेक कर्मचारियों के व्यवहार से प्रभावित होकर, ऐसे कर्मचारियों की संख्या लगातार बढ़ रहीं है।  
राजभाषा
प्रशिक्षण उपरांत भी उनके द्वारा हिंदी में कार्य नहीं किया जाता है, न ही हिंदी को वे लोग व्यवहारिक रूप में प्रयोग में लाते है। प्रशिक्षण पश्चात् यदि हिंदी अधिकारी/अनुवादक द्वारा ऐसे कार्मिकों का नाम यदि किसी हिंदी कार्यशाला हेतु नामांकित करने हेतु लिख दिया जाता हैं, तो इनका व्यवहार उस हिंदी कार्मिक के प्रति इस प्रकार हो जाता है मानों हिंदी कार्मिक द्वारा कोई कठोर पाप कर दिया गया हो। छोठे छोटे गुट तैयार होकर उसके प्रति सोच बदलने लग जाते है। इतना करने पर भी यह नहीं कि कार्यशाला में जाना चाहिए, बल्कि नियंत्रण अधिकारी के समक्ष जाकर तरह-तरह के बहाने तैयार कर लेते है, किसी की तबियत खराब हो जाती है, तो किसी के घर मंें कुछ पारिवारिक कारण उभर आते है। यदि उन्हें आदेश से पूर्व ही पता चल जाए कि उनका नाम नामांकित किया जा रहा है, तो वे अवकाश पर चले जाते है। आखिर हिंदी के प्रति इतना भय क्यों? अभी इसका उत्तर खोजा ही जा रहा है।
       
प्रशिक्षण लेने वाले कुछ कर्मचारियों की यह विवशता भी होती है कि उन्हें हिंदी जानना चाहिए क्योंकि उनके बच्चें विद्यालयों में हिंदी पढ़ते हैं परन्तु माता-पिता को हिंदी का ज्ञान न होने के कारण उन्हें इसका जितना फायदा मिलना चाहिए उतना नहीं मिल पाता है। कैसे भी सही परन्तु सरकारी कागजादों में हिंदी जानने वालो की  संख्या या प्रशिक्षण प्राप्त कर्मचारियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, कारण चाहे कुछ भी हों। यहां गौर करने वाली बात यह हैं कि सिर्फ प्रशिक्षण प्राप्त करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही हैं न कि प्रशिक्षण प्राप्त करने के उपरांत हिंदी में कार्य करने वालो की। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण, उपरोक्त वर्णित क्षेत्रों द्वारा भरी जाने वाली राजभाषा की प्रगति रिपोर्ट में हिंदी में कार्य करने वाले कार्मिक ;हिंदी अनुवादक को छोड़करद्ध काॅलम में संख्या हमेशा शून्य ही दर्शायी जाती है। इसी संदर्भ में डाॅ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा कही गई पंक्तियां याद आती हैं:-

‘‘संविधान कितना ही अच्छा क्यों न हो, 
यदि उसको व्यवहार में लाने में अच्छे इंसान न हों 
तो संविधान निश्चय ही बुरा साबित होगा। 
इसके विपरित अच्छे लोगों के हाथों में 
कितना ही बुरा संविधान भी अच्छा साबित हो सकता है।’’

जब मेरी पहली तैनाती एक अनुवादक के रूप में चैन्ने (चैन्नई), तमिलनाडु में हुई तो मेरे समक्ष भी एक विचित्र उदाहरण आया। एक गैर हिंदी भाषी कर्मचारी द्वारा आगे आकर मुझसे कहा गया कि मुझे भी हिंदी जाननी हैं। मैंनें जवाब दिया कि ‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है कि आप हिंदी सिखना चाहते हो, परन्तु आज आपको यह कैसे महसूस हुआ, कुछ तो हुआ होगा जिससे आपको हिंदी न जानने की कमी महसूस हुई?’’ 
उस कर्मचारी द्वारा बताया गया कि ‘‘पिछले महीनें मैं कुछ कर्मचारियों के साथ दिल्ली किसी कार्य से गया था। उन सब लोगों में सिर्फ मैं ही हिंदी अच्छी जानता था, वो भी हिंदी के कुछ शब्द जानने के कारण उनकों लगता था कि मैं हिंदी अच्छी जानता हूॅं। जैसे ही हम लोग स्टेशन पर पहुंचें, परेशानियों ने मुझे घेर लिया तथा जैसे ही स्टेशन से बाहर आया तो आॅटो वाले से मैनें बोला कि मुझे रेड फार्ट जाना है। आॅटो वाला बोला जाना-आना है। मुझे सिर्फ जाना समझ आया, तो मै बोला यस। जब वहाॅं पहुॅंचे तो उसने डबल किराया ले लिया। मैंने बोला इतना क्यों, तो वो बोला आप ही ने तो कहा था जाना-आना है, तो रिर्टन फेयर लगेगा। इतना ही काफी नहीं था कि हमने नाश्ता किया, दुकानदार ने कहा था कि बीस रूपये। नाश्ता करने के बाद जब बीस रूपये देने लगा तो वो बोला-तीस रूपये बोला था। कुल मिलाकर हर जगह हिंदी नहीं आने के कारण रूपये लूटाता रहा। अब मुझे हिंदी जानना हैं क्योंकि अभी 2 महीने बाद मुझे फिर दिल्ली जाना है।’’ 
 
उसकी पूरी व्यथा सुनते ही सारा माजरा मेरी समझ में आ गया, हिंदी सिखना उसकी मजबूरी थी न कि उसका शौक। परन्तु मुझे इस बात से बड़ी प्रसन्नता हुई कि उसकी इस बात का असर उसके आस-पास के लोगों पर हुआ और हिंदी उनके लिए मजबूरी बनने से पहले ही जरूरत बन गई और इस प्रकार हिंदी न आने की दिल से पीड़ा उसको हुई। इससे हिंदी सिखने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई।
वहीं दूसरी ओर राजभाषा कार्मिकों की स्थिति दक्षिण भारत को छोड़कर या दक्षिण भारत में भी कहीं कहीं को छोड़कर अन्यत्र तो सही हो सकती हैं, परन्तु जहाॅं सिर्फ गैर हिंदी भाषी कर्मचारियों की संख्या और उन्हीं में एक राजभाषा कार्मिक की नियुक्ति होती है, तो उसकी क्या स्थिति होती है, यह समझ पाना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है। इस स्थिति को वही समझ सकता हैं जिसने या तो वहां कार्य संपादित किया है या फिर वहां की स्थिति से परिचित है। कभी-कभी तो पूरा दिन बिना हिंदी बोले ही निकल जाता है, फिर हिंदी सुनना तो बहुत दूर की बात है। वहां राजभाषा कार्मिक की स्थिति ऐसी प्रतीत होती है जैसे हाथ होते हुए भी बगैर हाथ वाला आदमी। यहां विरोधाभास जरूर है परन्तु सारे अधिकार होने के बावजूद उसके हाथ बांध कर रख दिए जाते है। इन स्थानों पर राजभाषा कार्मिक सिर्फ एक विकल्प के रूप में होता है। सारे कर्मचारियों के दिल और दिमाग में पहले से धारणा बनी होती है कि अरें यहां हिंदी का काम ही कितना होता है, इन्हें तो दूसरें कामों में व्यस्त कर दिया जाना चाहिए। जहां अनुवादकों द्वारा राजभाषा हिंदी का कार्य कम या नाममात्र करवाया जाता हैं तथा दूसरे कार्य में व्यस्त ज्यादा रखा जाता है, वहां पर यदि किसी अनुवादक से यह पूछ लिया जाए कि हिंदी अनुवादक के क्या कार्य, कत्र्तव्य व दायित्व होते है? बस इतना ही पूछना मतलब उसके नए, ताजा जख्मों पर नमक के साथ मिर्च छिड़कने बराबर सा प्रतीत होता है। जहां अनुवादक अधिक समय व्यतीत कर चुकें अर्थात् वरिष्ठ हो चुके, वहां उनसे इस बात का उत्तर मांगना, मतलब पुराने घांवों को कुरेदना बराबर प्रतीत होता है। धीरे धीरे स्थिति बदलती जाती है, और इसी कारण राजभाषा कार्मिकों की यह व्यथा उन्हें उन्हीं के कार्य के प्रति उदासीन बना देती है। यदि राजभाषा कार्मिक द्वारा उन लोगों पर राजभाषा हिंदी के प्रति जरा भी बल डाला जाता हैं तो सब एकजुट होकर उसकी टांग खींचने पर उतर आते हैं। ऐसे में अधिकारियों की भी मजबूरी साफ नजर आती हैं कि सब कुछ जानते हुए भी वे कुछ नहीं कर पा रहे है। शायद वे जानते है कि परिणाम अच्छे नहीं होगें। परन्तु या तो डर रहेगा या जीत। फैसला तो करना ही होगा। किसी भी प्रकार का कोई फैसला नहीं कर पानें के कारण नतीजा हम सभी जानते है और वर्तमान में देखने को भी मिल रहा है।
ऐसा भी नहीं हैं कि राजभाषा कार्मिक के लिए ऐसे स्थानों पर कार्य करना या नियुक्ति पाना एक सजा मात्र है। अगर कोई ऐसा सोचता हैं तो बिल्कुल गलता सोचता है। यहां पर सेवाएं देना मतलब अपने आप को आम आदमी से अलग खड़ा कर लेना बराबर ही है। एक नई भाषा सिखने का अवसर, अंग्रेजी भाषा पर अच्छी  पकड़़ और साथ ही साथ हिंदी भाषा पर भी प्रभुत्व जमाने का मौंका होता है, ऐसे स्थानों पर कार्य करना। हो सकता है, वर्तमान में न सही, परन्तु भविष्य में इसके सकारात्मक परिणाम अवश्य प्राप्त होगें।
       
राजभाषा हिंदी को कोई मजबूरी, आवश्यकता, पीड़ा नहीं बनाते हुए हमें यह प्रयास करना चाहिए कि गैर हिंदी भाषी कर्मचारी राजभाषा हिंदी का प्रयोग दिल से करें तथा यह सनातन सत्य साबित होगा कि इसके सकारात्मक परिणाम भी उन्हीं को प्राप्त होगें। अधिकारियों का भी राजभाषा कार्मिकों को भरपूर साथ मिले। राजभाषा कार्मिक को कभी भी ऐसा महसूस न हो पाए कि राजभाषा हिंदी के लक्ष्य पूर्ति के कार्य में वे अकेले ही प्रयासरत है तथा हर असफल कदम के लिए वे ही जिम्मेदार है। इस कदम से राजभाषा कार्मिकों का मनोबल भी बढ़ेगा तथा एक नई सोच के साथ राजभाषा हिंदी का सफल कार्यान्वयन हो सकेगा। इसी संदर्भ में हेनरी डेविड थोरो द्वारा कहा भी गया है:-

‘‘यदि आपने हवाई किले बनाए हैं,
तो आपका कार्य व्यर्थ नहीं होगा।
वे वहीं होगें, जहां उन्हें होना चाहिए,
अब उनके नीचे बुनियाद रख दीजिए।’’

- विजय नामा
अनुवाद अधिकारी
रक्षा लेखा विभाग,
भारत सरकार, जयपुर।
7000646489, 9413002619

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