भूत ,गृह रोगादि शान्ति के उत्तम उपाय भूत प्रेत से छुटकारा पाने के लिए उपाय भौतिक जगत में रहने वाले जीव के जीवन में सुख -शान्ति भोग -विलास, वैभव ,उत्साह ,पतन आते ही हैं | सुख-दुःख जैसे तमाम बाधाओं से बचने का उपाय हम खोजते रहते हैं |
भूत ,गृह रोगादि शान्ति के उत्तम उपाय
भूत प्रेत से छुटकारा पाने के लिए उपाय भौतिक जगत में रहने वाले जीव के जीवन में सुख -शान्ति भोग -विलास, वैभव ,उत्साह ,पतन आते ही हैं | सुख-दुःख जैसे तमाम बाधाओं से बचने का उपाय हम खोजते रहते हैं |
भूत बाधा निवारण हनुमान मंत्र
भूत बाधा निवारक हनुमान मन्त्र देखें- ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं के द्वारा नमो भगवते महाबल पराक्रमाय भूत प्रेत पिशाच - शाकिनी -डाकिनी -यक्षणी -पूतना -मारी -महामारी ,यक्ष राक्षस भैरव बेताल गृह राक्षसआदिकम क्षणेन हन हन भंजन भंजन मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर रूद्रवतार हुं फट स्वाहा |
पूर्वकाल में जनकल्याणार्थ नारायण द्वारा नारद ऋषि को जो बताया गया था उसे बताने का प्रयत्न कर रहा हूँ -अब शान्तिर्यतो - ताभि : समिद्धिरजूहुपात द्विज:
शमी समिद्धि :शाम्यन्ति भूत रोग ग्रहादय :|
यानी नारायण ने नारद जी से कहा - शान्ति प्राप्ति हेतु द्विजों को हवन करना चाहिए तथा समी की समिधा से हवन करने पर भूत रोग और गृह ग्रह की शान्ति होती है |
० आर्दाभि : क्षीरवृक्षस्य समिद्धि : जुहुपात द्विज:
अध्याक्ष ---------------------------------------
(मा.ना.वि.का तत्व दर्शन २-६१ )
राजन दूधवाले वृक्षों की आर्द समिधा से हवन करने से ग्रहादि शांत होते हैं|भूतरोगादि के लिए भी सम्पूर्ण समिधियाँ प्रयोग कर सकते हैं |
सूर्य रत्न माणिक (RUBY)
रत्न को राशियों अनुसार जानकार से ज्ञान करके धारण जर्ना चाहिए|संस्कृत में इसे माणिक्य, पद्मराग, हिंदी मेंमाणक, मानिक तथा अंग्रेज़ी भाषा में रूबी कहते हैं। सूर्य रत्न होने से इस ग्रह रत्न के अधिष्ठाता सूर्यदेव हैं।
विधिपूर्वक लहसुनिया धारण करने से भूत प्रेतादि की बाधा नहीं रहती है। संतान सुख, धन की वृद्धि एवं शत्रु व रोग नाश में सहायता प्रदान करता है।
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तू कामान सकलानभीष्टान
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्राश्रयतां प्रयान्ति |-
(सिद्ध सम्पुट मन्त्र, श्री दुरहासप्तशती )
रोग नाश के लिए उपरोक्त मन्त्र का विधि पूर्वक जाप भी कल्याण देने वाला है |सम्पदाओं का भी प्रभाव मानव जीवन पर पडता ही हैजिस प्रकार की सम्पदा का जीवन में उपभोग करेंगे उसका उस सम्पदा के अनुकूल फल सफलता - असफलता का भोग इस जन्म अथवा पुनर्जन्म में अवश्य ही भोगना होता है | जहां आसुरी सम्पदा बंधन का हेतु है वहीं दैवी सम्पदा मोक्ष देने वाला होता है | एक जगह बाल्मीक जी ने लिखा है - हे लक्ष्मण ऐसी विदग्धता पूर्ण बातचीत ऋगवेद यजुर्वेद और सामवेद को जाने बिना कोई नहीं कर सकता | निश्चय ही इन्होंने व्याकरण भली प्रकार से पढ़ा है क्योंकि इतनी बातें कही परन्तु इनके मुख से अशुद्ध शब्द नहीं निकला |
हनुमान जी |
ग्यानी पुरुष भी अपना स्वभाव छोड़ने में अपने आप में असमर्थ होता है जिसके फलस्वरूप वह भूत ग्रह रोगादि भोगता है | जबकि उसमें धर्म- अधर्म का ज्ञान होता है | तब तो हम सोच सकते हैं , मानव की साधना और पुरुषार्थ भला क्या अर्थ रखते हैं और यहां मनुष्य की दुर्योधन जैसी स्थिति होती है | एक बार की बात है ,दुर्योधन से पूछा गया धर्म -अधर्म का भेद नहीं जानते ! इसपर दुर्योधन ने उत्तर दिया जानता हूँ यथा -
जानामि धर्म न च में प्रवृत्ति :
जानामि धर्म न च में निवृत्ति|
केनापि देवेन हृदिस्थितेन
यथा नियुक्तो s स्मि तथा करोमि ||
(गीता तत्व चिंतन,पृष्ठ ९८ )
धर्म जानता तो हूँ पर मेरी प्रवृत्ति उधर नहीं होती |अधर्म भी जानता हूँ उससे अलग नहीं हो पाता | कोई देव मेरे ह्रदय में है, वह जो कराता है, जहां ले जाता है वहीं जाता हूँ | जब दुर्योधन जैसा व्यक्ति अपनी दुर्बलता के लिए हृदय में बैठे देवता की दुहाई देता है तो सामान्य जन क्यों नहीं देगा |
रावण का राम के प्रति शोच को इसी क्रम में - रावण राम को साक्षात भगवान का औतार तो मानता ,कहता भी है -
खर दूषन मोहि सम बलवन्ता ,
तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता |
रावण का ज्ञान बता तो देता है कि ईश्वर का अवतार हो गया है और जब विचार उसके मन में उठता है , चलो ईश्वर अवतारी के पास जॉय और उसकी उपासना करें तो वहीं स्वार्थ आड़े आ जाता था | बुद्धि तर्क देती -'होइहिं भजन न तामस देहा'यही खोज और तर्क रावण को ईश्वर के पास जाने से रोक देता था | परवासता का उदाहरण ही है ज्ञानी का स्वभाव द्रोणाचार्य ,भीश्म्पितामह भी स्वभाव परतंत्रता बस ,अधर्म जानकार भी दुर्योधन का पक्ष लेकर युद्ध कराते हैं| यही नही धर्म की दुहाई भी देते हैं युद्ध क्षेत्र में यह परावसता नहीं टीओ और क्या ही सकता है | यही कारण था भगवान अर्जुन से राग द्वेष पर विजय पाने हेतु प्रवृत्त करते हैं |स्वामी आत्मानंद जी ने लिखा है -'इन्द्रिय का अपने अपने विषयों के प्रति रागद्वेष स्वाभाविक है|'किसी को इस रागद्वेष में नहीं जाना चाहिए क्योकि राग और द्वेष कल्याण में विघ्न डालने वाले होते हैं | भगवान ने कहा है अच्छी चीजें देख आसक्त होना राग है और भद्दी चीजें देखने की चेष्टा न होना द्वेष है | मीठा शब्द न सुनना राग है न सुनना द्वेष है | शास्त्र का कथन है जो सर्वाथ सत्य सिद्ध है -नारायण में लग्न से भव बाधा पास नहीं फटकती |
-सुखमंगल सिंह ,
अवध निवासी
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