काव्य प्रयोजन Kavya Prayojan काव्य प्रयोजन काव्य प्रयोजन पर विचार कीजिए काव्य प्रयोजन संस्कृत काव्य प्रयोजन का अर्थ kavya prayojan means kavya prayojan what do you mean by kavya prayojan what do you mean by kavya prayojan प्राचीन भारतीय आचार्यों ने काव्य-प्रयोजनों पर विचार करते समय दोनों बातों को ध्यान में रखा है।आचार्यों ने काव्य के अनेक प्रयोजन बताये हैं।
काव्य प्रयोजन
Kavya Prayojan
काव्य प्रयोजन काव्य प्रयोजन पर विचार कीजिए काव्य प्रयोजन संस्कृत काव्य प्रयोजन का अर्थ kavya prayojan means kavya prayojan what do you mean by kavya prayojan what do you mean by kavya prayojan - काव्य-प्रयोजन से दो अर्थ ध्वनित होते हैं- कवि द्वारा काव्य-रचना क्यों की जाती है और सहृदयों द्वारा काव्य का अनुशीलन क्यों होता है ? इस प्रकार काव्य-प्रयोजन पर दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है-
- कवि की दृष्टि से और
- भावक की दृष्टि से।
प्राचीन भारतीय आचार्यों ने काव्य-प्रयोजनों पर विचार करते समय दोनों बातों को ध्यान में रखा है।आचार्यों ने काव्य के अनेक प्रयोजन बताये हैं। सबसे संक्षिप्त और सरल निरूपण वामन का है।उनके अनुसार काव्य के मात्र दो प्रयोजन हैं -
काव्यं सद् दृष्टार्थ प्रीति कीर्ति हेतुत्वात।
इनमें से प्रीति अर्थात् आनन्दानुभूति को काव्य का दृष्टि प्रयोजन और कीर्ति को काव्य का अदष्टार्थ प्रयोजन माना है।इस निरूपण में यद्यपि कवि और भाव के आधार पर काव्य प्रयोजनों का स्पष्ट वर्गीकरण परिलक्षित नहीं होता, किन्तु विचार करने से प्रतीत होता है कि कीर्ति और प्रीति कमशः कवि और भावक के पक्ष में बाधित होते हैं। काव्य-रचना करके कवि यश का भागी बनता है और काव्य के सेवन से सहृदय को आनन्द की सिद्धि होती है।
वामन से पूर्व काव्यशास्त्र के आदि प्रणेता भामह ने विस्तार के साथ काव्य प्रयोजनों का वर्णन किया था। सम्भवतः उन्हीं के विस्तृत निरूपण से कीर्ति और प्रीति को ग्रहण करके वामन ने अपने ग्रंथ में काव्य प्रयोजनों का कथन किया। भामह द्वारा निरूपित काव्य-प्रयोजन इस प्रकार हैं -
धर्मार्थ काम मोक्षेसु वैचक्षण्य कलासु च।
करोति कीर्ति प्रीति च साधुकाव्य निबन्धनम्।।
अर्थात उत्तम काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-रूप चारों पुरुषार्थों तथा समस्त कलाओं में निपुणता और कीर्ति एवं प्रीति अर्थात् आनन्द को उत्पन्न करने वाली होती है। भामह के परवर्ती प्रायः सभी आचार्यों ने उनके द्वारा वर्णित उपर्युक्त काव्य प्रयोजनों को आदरपूर्वक अपनाया है।
काव्य-प्रयोजनों का सम्यक् विवेचन मम्मट ने अपने काव्य प्रकाश में किया है। उनके द्वारा निरूपित काव्य के छह प्रयोजन निम्नलिखित हैं -
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिवृत्तये कान्ता सम्मितयोपदेश युजे।।
इनमें से तीन को मुख्यतः कविनिष्ठ और अन्य तीन को पाठकनिष्ठ प्रयोजन कहा जा सकता है। यश से, अर्थकृते तथा शिवेतरतक्षये भामह- ये तीन मुख्यतः कवि के उद्देश्य से और व्यवहार विटे सद्यःपरिनिवृत्तये और कान्तासम्मितयोपदेश युजे ये तीन मुख्यतः पाठक की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण काव्य प्रयोजन कहे जा सकते हैं। मम्मट ने स्वयं उदाहरण देकर उसे अधिक स्पष्ट कर दिया है। उनके अनुसार काव्य-रचना से कालिदास को यश की प्राप्ति हुई तो एक अन्य कवि धावक ने राजा श्रीहर्ष के नाम से काव्य लिखकर उनसे प्रचुर धन प्राप्त किया। मयूर ने सूर्य की स्तुति में काव्य-रचना करके कष्ट रोग से मुक्ति पायी। ये तो हुए कवि की दृष्टि से काव्य के मुख्य तीन प्रयोजन।शेष तीन व्यवहारविदे, सद्य:परिनिवृत्तये और कान्तासम्मिततपोपदेशयुजे का अनुभव तो हर सहृदय पाठक स्वयं कर सकता है।
आधुनिक काल में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तीव्रगति से विकास होने के साथ काव्य की जो महत्ता थी, आधुनिक युग में उस पर प्रश्न-चिह्न लग गया और जीवनोपयोगी विद्याओं की तुलना में साहित्य अथवा काव्य को हेय माना जाने लगा। काव्य केवल फुरसत के क्षणों में मनोरञ्जन का साधन मात्र बनकर रह गया।ऐसी स्थिति में उसे पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए आलोचकों को काव्य की नवीन व्याख्या करनी पड़ी। आचार्य शुक्ल ने लोकमंगल को काव्य का प्रयोजन सिद्ध किया।इसके लिए उन्हें रामचरितमानस के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास से प्रेरणा प्राप्त हुई।तुलसीदास ने मानस में एक स्थान पर लिखा था -
भाषा भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कह हित होई।।
शुक्ल जी ने इसी से प्रेरणा लेकर 'लोकमंगल की नवीन व्याख्या की।उनके अनुसार काव्य के अनुशीलन से मनुष्य के हृदय का शेष सृष्टि के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाता है और इस प्रकार वह स्वार्थ के संकीर्ण बन्धन से मुक्त होकर सबमें आत्मरूप का दर्शन करता है। यही काव्य का महत्प्रयोजन है।
डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी मानव-कल्याण अथवा लोक-कल्याण को काव्य का लक्ष्य अथवा प्रयोजन सिद्ध किया है। अपने एक निबन्ध में वे लिखते हैं- "मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गतिहीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो आत्मा को तेजोदीप्त न कर सके, जो दूसरे को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।"
आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने आत्मानुभूति को काव्य-प्रयोजन माना है।डॉ० नगेन्द्र आत्माभिव्यक्ति को साहित्य का प्रयोजन मानने के पक्षपाती हैं। डॉ० गुलाबराय ने साहित्य के प्रयोजन पर विचार करते समय सभी आचार्यों के मतों का समन्वय कर दिया। अधिकांश आधुनिक विचारका के मत में मानक्-कल्याण ही साहित्य का प्रयोजन है। फिर भी इस सम्बन्ध में सबको एक मत कर पाना सम्भव नहीं है।कारण यह कि समय के साथ-साथ सभी चीजें बदलती हैं, काव्य का लक्ष्य भी तदनुरूप परिवर्तित होता रहता है।दूसरे यह कि मनुष्य-मनुष्य में रुचि और प्रवृत्ति का भेद होता है अतः उनके द्वारा निरूपित काव्य प्रयोजनों में भी भेद का होना स्वाभाविक और अनिवार्य है।
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