जन्म शताब्दी वर्ष गिरिजा कुमार माथुर

SHARE:

Girija Kumar Mathur जन्म शताब्दि वर्ष गिरिजा कुमार माथुर 1943 ई0 में तार सप्तक का प्रकाशन अपने आप में अनोखी घटना थी। उससे भी अनोखी घटना है तार सप्तक के तीन कवियों गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल का जन्म शताब्दी वर्ष एक होना |

 जन्म शताब्दी वर्ष- गिरिजा कुमार माथुर


1943 ई0 में तार सप्तक का प्रकाशन अपने आप में अनोखी घटना थी। उससे भी अनोखी घटना है तार सप्तक के तीन कवियों गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल का जन्म शताब्दी वर्ष  एक होना | भारत भूषण अग्रवाल का जन्म 2 अगस्त 1919, नेमीचंद्र जैन का जन्म 16 अगस्त 1919 तथा गिरिजाकुमार माथुर का जन्म 22 अगस्त 1919 है। यह अद्भुत संयोग ही है एक ही वर्ष एक ही महीने में जन्मे इन तीन प्रमुख कवियों का साथ तार सप्तक में एक सूत्र में आया। अज्ञेय ने तार सप्तक से प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की विभाजक रेखा खींचकर साहित्य प्रेमियों का काम आसान  ही नहीं किया बल्कि इन तीन कवियों की अमूल्य धरोहर को  भी दिया। 

जहां तक इन तीनों कवियों की बात है यह तीनों कवियों ने छायावादी काव्य चेतना से अपना कवि जीवन प्रारंभ किया। इन तीनों कवियों पर मार्क्सवाद का प्रभाव रहा है  पर रूढ या सैद्धांतिक रूप में यह मार्क्सवादी घोषित नहीं किए जा सकते हैं। इन तीनो रचनाकारों का रचनाकाल प्रगतिवाद के आसपास से प्रारंभ होकर नई कविता तक जाता है। इन तीनों रचनाकारों में हमें छायावाद की कल्पना प्रवण दृष्टि तो दिखती है प्रगतिवाद का सामाजिक यथार्थ और प्रयोगवाद की बौद्धिक दृष्टि भी मिलती है। एक और रोचक तथ्य यह है कि यह तीनों रचनाकार सिर्फ कवि ही नहीं रहे है बल्कि संपादक आलोचक तथा अन्य विधाओं को भी इन्होने बखूबी सम्मृद्ध किया है।
गिरिजाकुमार माथुर
गिरिजाकुमार माथुर
आलोचकों और माथुर जी पर शोध करने वाले शोधार्थियों ने इन्हे छायावाद से लेकर प्रगतिवाद और नई कविता का प्रहरी बताया है। वास्तव में प्रगति और प्रयोगवाद से लेकर नई कविता का दौर घुला मिला है। गिरिजा कुमार माथुर के काव्य में आधुनिक कविता का पूरा इतिहास दिखता है। माथुर जी प्रयोगवाद के केंद्र में तो आते है पर छायावाद से लेकर नई कविता तक वह लगातार सृजन करते रहे है और किसी भी वाद से अपने को पृथक रखा। यही कारण रहा कि वह आलोचकीय उपेक्षा का शिकार रहे पर प्रतिभा के कारण चर्चा में सदैव बने रहे। प्रसाद जी की तरह माथुर जी ने भी काव्य का प्रारम्भ ब्रज भाषा से करते है जिसमे कवित्त और सवैया प्रधान है। निराला की भाँति छंद बद्धता से लेकर छंद मुक्त्ता माथुर जी में है पर अपनी संगीतमयता और लय को त्याग किए बिना।

गिरिजाकुमार माथुर के काव्य में व्यष्टि बोध व्यापक तौर पर है। माथुर जी के व्यष्टि बोध की परिणति समाजोन्मुखी है।  सामाजिक यथार्थ चित्रण में माथुर जी नागार्जुन के समकक्ष ठहरते है। एशिया का जागरण, पहिए आदि कविताएं सामाजिक अन्याय,दमन और अत्याचार के विरुद्ध लिखी गयी है। मुक्तिबोध की भाँति एक अंतर्मुखी बौद्धिक दृष्टि माथुर जी के कव्य में निरंतर बनी रहती है जो इनकी सामाजिक दृष्टि को धार देती है। डॉ. नगेंद्र कहते है कि  “ हिंदी कविता में नवीन सामाजिक चेतना क समावेश करने में माथुर जी का योगदान कम नही है। उन्होने इसे व्यापक नैतिक धरातल पर ही ग्रहण किया है, रूढ़ सिद्धांतवाद के रूप में नही।“
तत्कालीन युग में दर्शन, समाज और राजनीति में व्यक्तिवाद समाहित था जिसके फलस्वरूप माथुर जी के काव्य में आत्म तत्व अनायास ही आ गया है। परंतु आत्म तत्व में माथुर जी ने वही स्वीकार किया है जो सकारात्मक है। जो प्रकृति विरूद्ध है उसे अस्वीकार किया है।
 माथुर जी आस्था और विश्वास के कवि के रूप में प्रसिद्धि है क्योंकि पलायन इनके काव्य में कहीं दृष्टिगत नहीं होता है।  अक्सर माथुर जी के प्रेम चित्रण में आलोचकों ने ऐंद्रियता और मांसलता देखा है परंतु मेरा दृष्टिकोण है कि माथुर जी का प्रेम एक साधारण गृहस्थ का प्रेम था। इस प्रेम की परिणति परिवार में होती है और समाज की धूरी परिवार है। स्वयं माथुर जी मानते है कि उनकी कविता में परिवार प्रेम जो मनुष्य की आंतरिक शक्ति है उसका चित्रण है। परिवार विखण्डन को वह जीवन मूल्यों का ह्रास मानते है। यह प्रेम संघर्ष के लिए प्रेरित करता है -----
शक्ति दो मुझको सलोनी प्यार से 
लड़ सकूँ मौत की तलवार से 
माथुर जी ने अनेक गीति काव्य की रचना की है जिसमे प्रेम और श्रृंगार का रंग है। पर प्रेम की ये रचनाएं जीवन के प्रेरक तत्व है जो लौकिक धरातल पर उभरती है ------
“कैसे हर निकष झूठा पड़ जाता है
सिर्फ प्यार रह जाता है
कैसे छोटा सा मोह
बड़ा सत्य बन जाता है”
यह प्रेम प्रकृति के साथ  संश्लिष्ट होकर और भी निखर कर आता है वह कहते हैं ----
धुले मुख सी धूप यह गृहणी सरीखी 
मंद पग धर आ गई है
  यह ढाल कर निज प्यार 
वह हर  वस्तु की बनती समस्त मिठास
  होठों पर पिया के 
माथुर जी के यहां प्रकृति आंचलिकता में ज्यादा उभर कर आई है। जिस प्रकार रेणु जी आंचलिक उपन्यासकार के रुप में प्रसिद्ध हुए वैसा ही आचंलिक चित्रण हमें माथुर जी के काव्य में होता है। साधारण शब्दों में हम उन्हे आचंलिक गीतकार/कवि कह सकते है। मंजीर, धूप के धान, ढाकवनी और दीयाधारी आदि कविताओं में आचंलिकता की अनुपम छँटा है। इन रचनाओं में अंचल की सोंधी गंध है, अंचल के मधुर गीत है और अंचल के सुंदरतम बिम्ब है। इनकी कविताओ में जंगल है, नदी है, खेत हैं और मिट्टी है और यह सब जुड़े है इनकी जन्म भूमी मालवा से। यहाँ कविता में बेतवा और सिंधु नदी मधुर गीत गाती है। जंगल अपनी नैसर्गिक सौंदर्य से मनुज को बुलाते है। खेत किसानी जीवन को कविताओ में गढ़ते है। मिट्टी से जुड़कर माथुर जी अपने देश से जुड़ते हैं, देश प्रेम से जुड़ते हैं। 
माथुर जी के यहां पंत की तरह प्रकृति और मनुष्य का समीकरण है और इसके साथ ही साथ प्रकृति का स्वतंत्र अस्तित्व भी है जो उन्हे शमशेर, निराला और भवानी प्रसाद की प्रकृति संवेदना से जोड़ता है। तभी तो वह कहते हैं ---- 
धूप फूल दोना ले आती
  रात ओढ़े कामरी 
सूरजमुखी हुआ दिन  छुकर
माथुर जी के यहाँ प्रकृति का प्रयोग केवल पारिवारिक बिम्ब के लिए नही किया है बल्कि पूँजीवादी विकृति के विरोध में भी किया है। प्रकृति के हर रूप और हर रंग  को माथुर जी ग्रहण करते है। कही यह प्रणय का आलम्बन है तो कहीं यथार्थ के खुदरे धरातल का बिम्ब है तो कहीं भविष्य के प्रति सचेतता है तो कही चेतन सत्ता में अपनाव है। प्रकृति का यह चित्रण अद्भुत और अनूठा चित्रण द्रष्टव्य है -------
स्लीवलेस ब्लाउज पहने
छरहरी चाँदनी
पेड़ो की चमकदार जालीयों तले
बेफिक्र मस्ती से
हल्के कदम रख चलती
मुँह में मंद मंद इलायची चबाती
प्रकृति का किसानी रूप माथुर जी को अधिक भाता है। सौंदर्य के संदर्भ में वह श्रम सौंदर्य को चित्रित करते है ---
लालिमा साँझ की सिमट सारी
जा रही सँवरते मैदानों में
जैसे घर लौटती किसान बहू
काम दिन भर का कर के खेतो में
लाल मुँह हो रहा है मेहनत से
 समकालीन परिप्रेक्ष्य की समस्याएं माथुर जी को ज्यादा प्रासंगिक बनाती हैं। यहाँ पर “दफ्तर में काम चोर अफसर में / घिस्सैल क्लर्क में / कमेटियों की बेहिसाब चक्की में /पीसती रही देश में / किस्मत की रद्दी “ का चित्रण है जो एक मध्यवर्गीय मनुष्य की सामान्य सोच से जाकर मिल जाता है। माथुर जी को देश और व्यक्ति की दशा का कष्ट है पर वर्तमान पीढ़ी ही भविष्य का निर्धारण करेगी। यह गहराई से अनुभूत करते है और कहते है ----
इसी जिंदगी की सिक्त
कड़वी कटीली अनुभूति
मन में और पचने दो
हमारे दर्द सुख और संघर्ष को
मजबूत छाती पर
नई पीढ़ी सँवरने दो

 अपनी समकालीता के कारण ही वह स्वतंत्रता आंदोलन से अछूते नहीं रह सके। आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना और हम होंगे कामयाब एक दिन जैसे गीत हर भारतीय की जुबान पर थिरकते रहें है और आगे भी यह गाए जाते रहेंगे ----
आज जीत की रात 
पहरुए सावधान रहना
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना

आज के वैज्ञानिक और टेक्नोलॉजी के वातावरण को माथुर जी हिंदी में ले आते हैं, पहली बार ही नहीं बल्कि प्रखर रूप में। पृथ्वी कल्प, हब्स देश,कल्पांतर आदि अनेक रचनाएं विज्ञान की नई संभावनाओं और उसकी यांत्रिकता को काव्य चेतना बनाती हैं। विज्ञान की नई संभावनाओं ने प्रकृति और समाज के सन्तुलन को बिगाड़ा है इसीलिए वह मनुष्य को मशीनीकरण के प्रति आगाह करते हैं ----
 आविष्कारों के सुख साधन
 सब अस्त्र बन गए शोषण के
 तुमने बेहिसाब
 चर डाले सारे सुगंध जंगल
 ढोक लिया नदियों का पानी
 बना लिया समुद्रों को तेल का कुप्पा
आज के वैग्यानिक आपाधापी के युग में जीवन कृत्रिम और बनावटी हो गये है। यह प्रभाव मध्यवर्ग पर अधिक पड़े है। लोहे के दिल दिमाग जैसी कविताएं इसी भाव की उपज है।
पृथ्वी कल्प रचना अंतरिक्ष युगीन बिम्ब है जिसमे पृथ्वी पर मानवीय जीवन के अर्थ को सृष्टि की निरंतरता के संदर्भ में देखा गया है। यह हिंदी साहित्य की अनूठी रचना है जो काव्य नाटक और फैंटेसी शिल्प में लिखी गई है। डॉ. कैलाश वाजपेयी का मानना है कि पृथ्वी कल्प प्रथम रचना है जिसके माध्यम से हिंदी कविता में वैग्यानिक चेतना का सूत्रपात हुआ है। इस रचना में माथुर जी वैग्यानिक आधार पर मानव का विकास, मानव की आदिम कथा, प्रकृति और दार्श्निकता के पक्षों को पाठक वर्ग के समक्ष रखते है।  
वर्तमान समय की हिंसा प्रकृति का शोषण और मनुष्य का माशीनीकरण कल्पांतर काव्य का मुख्य उपजीव्य है। कल्पांतर का मुख्य संदेश है आर्थिक साम्य के मूल आधार पर लोकतांत्रिक सांस्कृतिक मुक्ति। माथुर जी मनुष्य, विग्यान और यंत्र का साम्य चाहते थे ताकि संतुलन बना रहे। 
व्यक्ति और समाज, जीवन की लय, प्रकृति की रागमयता और सौंदर्य की चाह माधुर जी के काव्य की पहचान हैं। आजादी के ख्वाब बुनते कवि की रचना आजादी के मोहभंग, बढ़ती संवेदनहीनता, देश विभाजन आर्थिक बेचैनी और उससे उपजी निराशा और भविष्य की चिंता आदि अनेकानेक बिंदुओ को तलाशती माथुर जी की कविताएं ऐसी महसूस होती है जैसे जिंदगी को कविता के माध्यम से पढ़ा जा रहा हो। व्यास, शलाका और साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित माथुर जी ने नाटक जनम कैद, नई कविता : सीमाएं और संभावनाएं जैसी उत्कृष्ट आलोचना भी की है तथा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा प्रकाशित गगनांचल पत्रिका का संपादन करके साहित्य की सेवा की है। तथ्य तो और भी है पर लेख की अपनी सीमा है। इस जन्मशताब्दि वर्ष में हम कुछ श्रद्धा सुमन अर्पित कर सकते है पर पूरा मुल्यांकन नही कर सकते है। 


         

-डॉ शुभा श्रीवास्तव  
          गोलघर कचहरी वाराणसी 221002 
             ई मेल आई डी--- shubha.srivastava12@gmail.com

COMMENTS

Leave a Reply

You may also like this -

Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy बिषय - तालिका