रेत में सीपियाँ

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रेत में जिंदगी तलाशती कविता अपनी यादों , अनुभवों का एक लम्बा सफ़र तय करते हुए प्रकाश मंगलेश सोहनी जी की दूसरी कविता संग्रह – रेत में सीपियाँ की समीक्षा करते हुए मैंने पाया की इस संग्रह की कवितायेँ रेत में जिंदगी तलाशने का दुष्कर कार्य कर रही हैं |

रेत में जिंदगी तलाशती कविता          

       
अपनी यादों , अनुभवों का एक लम्बा सफ़र तय करते हुए प्रकाश मंगलेश सोहनी जी की दूसरी कविता संग्रह – रेत में सीपियाँ की समीक्षा करते हुए मैंने पाया की इस संग्रह की कवितायेँ रेत में जिंदगी तलाशने का दुष्कर कार्य कर रही हैं | वैसे कविता अपने समय से संघर्ष करते , जिंदगी की हकीकत से दो – चार होते हुए मुक्ति के लिए छटपटाते लोगों की जुबान होती हैं , वहीँ कवि के वैचारिक हौसले की संवेदनाओं के हिंडोलों में इसे डूबते – उतराते पढ़ना मुझे अच्छा लगा |
      रेत यानि शून्य , मिट्टी की लाश जिसमे कवि अपनी ठोस  संवेदनाओं के धरातल में कविता का महल खड़ा करता है जो उसकी जुबान बनकर प्रस्फुटित हो रहा है | कवि का मन इस संग्रह में सीढ़ी , आइना , राख , रेत , नदी और यादों के आस –पास ज्यादा भ्रमण करता है | 
जिंदगी मुट्ठी भर नहीं होती क्योंकि जब भी वह समय के साथ यादों की सीढ़ी में हरेक पदचाप के साथ उतरता है तो मासूम मुस्कुराहटों के साथ गीत गुनगुना उठता है यही इसमें जिंदगी की सकारात्मकता को प्रकट करती है – 
मुस्कुरा कर कहा उसने /मै तुम्हारा गुजरा हुआ /सबसे प्यारा लम्हा हूँ / मेरा ही साया 
पुल से ही तो /क्योंकि है रौनक किनारों की /नदियों के धारों की /जिंदगी के कछारों की ... | 
         छोटी – लम्बी कुल ६१ कविताओं को समेटे इस संग्रह में प्रकृति चित्रण एवं ऋतु संकेत भी सुन्दर तरीके से जिंदगी के मौसम में अपनी छटा बिखेर देते हैं – 
- मौसम के छतों से / अजनबी नींव पर जाने कब / उग आता है एक पेड़ / हरा – भरा..|
- शीत लहर बुनती है कहर भी / कुहासे भी .... सर्द हवाओं में ... |
- हटा नहीं सकते मौसम धरती से ..../ धरती मेरी इन्ही चित्रकारों की शुक्रगुजार ... |
- बन जाये रांझण पानी की / भरी रहे सदा / बांटे शीतलता समान .. |
- काश हर परिंदे को / नक्शों में पता हो / वजूद नीली बावडियों का ..| 
       
रेत में सीपियाँ
रेत में सीपियाँ
कविता रिश्तों के सफ़र में अजनबी आहटों से भी निडर होकर आगे बहती है जो यादों के इर्द – गिर्द सिमट जाति है | वर्तमान वक्त में रिश्तों को सहेजना सिर्फ कविताओं तक ही सीमित होने लगी है , ऐसे समय में ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं – 
आँगन दरकना चाहता है / एक से अधिक टुकड़ों में /... बंटकर ही दम लेगा .. / पीढ़ियों से जुडी पीढियां ... | 
दादी ने सीख दी थी की / मौसम कितना भी ख़राब हो / खुली जरुर रखना खिड़की / रास्ता , क्योंकि वहीँ से नजर आता है ... | 
माँ की इच्छा थी / बन जाये उससे एक क्यारी / जिसमे फैले लता / पुष्पों लदी बने एक छायादार मचान .. | 
           आपकी कविताओं में चित्रात्मकता का सुन्दर समावेश लिए एक अकेलापन स्पष्ट रूप से आपकी यादों के चादर को बार – बार झिंझोड़ता हुआ नजर आता है , कभी – कभी तो यह आश्चर्यजनक रूप से दार्शनिक अंदाज में भी प्रस्तुत होता है – 
समय जब भी उतरा / यादों की सीढ़ियों से / तब हर पदचाप में / वो ही गाता रहा .. 
नहीं जानती तू /मै सिर्फ राख थी /हूँ और रहूंगी / ...जला दे मुझे या उठाकर चूम ले 
जाने कैसी रेत है / मछलियों को मरने नहीं देती /संभालकर रखती है गोद में |
काश की सीपियों के होते पर /और वो रेत से बाहर निकलकर ... साहिल पर /  बना देती सड़क मोतियों की | 
             रेत में सीपियाँ अपने साथ दर्द के एक कारवाँ का गुबार छोड़ जाता है | प्रायः कविताओं में काश और टीस उभरकर अनायास समक्ष प्रस्तुत होते हैं ,तो कहीं काल्पनिकता की दुनिया से होकर गुजरने लगती है – 
.... कोंपलों में दर्द .../ सिसकते रहे खामोश .. /कोख की टहनियों में.. |
  मीठी – मीठी आंच की तरह / कलेजे में सुलगा था कभी / जल रहा है आज तक |
  रिसते रहे घाव / बहती रही नदी /ढोती रही बहाव ..|
  आजकल लगा हूँ गढ़ने / झूठे एहसासों को / क्योंकि सच्चे एहसास / फिसलते जा    रहे है हाथों से |
  मन के भीतर पड़े / इतिहास की पाण्डुलिपि / टपकती रही आँखों से / पन्ना दर  पन्ना |
           वर्तमान वक्त की रस्सी को पकड़कर संघर्ष की नदी में आपकी कवितायेँ शनैः – शनैः आगे बढ़ती हैं जहाँ ये अव्यवस्थाओं का मुक्त स्वर से विरोध करने की परंपरा को सजीव बनाए रखी है और बताया है की - आदमी पर बाजारवाद से ज्यादा खतरा विडंबनाओं और उसके एकाकीपन है – 
बेबसी के कुंडे पर / समय पड़ा हुआ है / ताला वर्तमान का /सदियों से जड़ा हुआ |
पत्थरों को तोड़ता हूँ / पत्थर ही पाटा हूँ /तराशता हूँ तो छिपी प्यास |
जाने क्यूँ इस रेत को / सुकून मिलता है /मछलियों के साथ तड़पने में /तिल – तिल मरने में |
             सोच जरा , माटी , लौ के सहारे , पुल , तलाश , देह की घनेरियाँ और जतन  कवितायेँ पूरी तल्लीनता के साथ पढ़ने को आमंत्रित करती हैं | आपकी कविताओं को बहुत दूर चलना पड़ा है थोड़ी दूर चलने के लिए  क्योंकि दो लफ्जों में जिंदगी गायी नहीं जा सकती थी | कवितायेँ महज यादों के सहारे उबाऊ सी लगी , वर्तमानी  हकीकत और समस्याओं को समाज के समक्ष समाधान सहित प्रस्तुत करना एक कवि का दायित्व होता है , उसकी कमी परिलक्षित हुई है | कवितायेँ अब सिर्फ किताबों की जागीर ना होकर , सोशल मिडिया की महारानी बन चुकी है ऐसे समय में कविताओं को किताबों में और मुखर होने की जरुरत है तभी वह पाठकों को आकर्षित कर सकेगी | मुद्रण में  कई पन्नों पर सिर्फ दो – तीन पंक्तियाँ ही है शेष पन्ने कोरे है जो चुभते हैं |            
           
कवि को उसकी यादों , अनुभवों और साहित्यानुराग के लिए साधुवाद और बधाई , पाठक आपकी कविताओं को अवश्य पसंद करेंगे ऐसी उम्मीद है | यह संग्रह एक शंखनाद है जो उस साजिश का विरोध करती है जो कविता को हिंदी साहित्याकाश में अकेला , बेसहारा समझकर ख़त्म करना चाहते हैं || 
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समीक्षा -   रेत में सीपियाँ , 
कविता संग्रह – २०१७ , पृष्ठ – ९५ , मूल्य – ९५ = ०० रु. , श्री प्रकाशन दुर्ग –छत्तीसगढ़  समीक्षक – रमेश कुमार सोनी ,बसना ,छत्तीसगढ़ ,कवि – प्रकाश मंगलेश सोहनी – रायपुर                    
                                    



-रमेश कुमार सोनी                     
राज्यपाल पुरस्कृत शिक्षक एवं साहित्यकार 
बसना , छत्तीसगढ़ , मोबाईल – ९४२४२२०२०९  

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