औरत

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बेटा जवान हो गया, पति ने तो कभी मुझे सम्मान दिया नहीं किन्तु बेटे से जरूर मैं सम्मान पाने की आशा रखती थी |

        औरत 

"आज फिर वहीं किटकिट | रोज की ऐसी जिल्लत से तो भगवान तू मुझे अपने पास क्यों नहीं बुला लेता ? आखिर तेरे दर पर तो मेरे लिए कोई जगह होगी |" 
इस तरह की बातें रचना रोज ही सोचती है | जब कभी उसके साथ घर-परिवार का सदस्य  कुछ कह दे वह किसी और दुनिया में चली जाती है | नितांत अकेली, रोती रहेगी और अपने आपको कोसती रहेगी | उसके दुःख में वह
औरत
चित्र साभार -गूगल.कॉम 
किसी को शामिल करना भी नहीं चाहती | वह सोचती है यदि किसी को कुछ बता दिया तो लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे | यही न कि रचना की कोई वैल्यू नहीं करता | खैर किसी तरह  उसने अपनी आदतानुसार पांच छ: घंटे भगवान् की मूर्ति के पास बैठ कर खुद को ,पति को कोसती रही | थोडा मन शांत हुआ तो अपने कमरे में जाकर सो गई | भला आँखों में नींद भी कहाँ थी उसे अपनी बीती जिन्दगी याद आने लगी और वह अपने आप से ही बतियाने लगती है |
           जब माँ की कोख से मेरा  जन्म हुआ तो माँ के द्वारा ही बताया हुआ याद करती है कि उसे कोई पसंद नहीं करता था , जब वह रोती थी तो कोई उसे पुचकारता नहीं था | थोड़ी बड़ी हुई बस घर के एक कोने में बैठी रहती थी | कोई रोती का टुकड़ा दे देता उसे चबाती रहती | ये सब बातें उसे अन्दर से तोड़ देती थी | उसका जुर्म क्या है -- लड़की होना | घर में सब ने लडके की कामना  की और उसका आ जाना | इसमे उसकी क्या गलती थी ?
           जब मुझे थोड़ी  समझ आई तो मैंने अपने आपको बिलकुल ही अकेला पाया | मैं अन्तर्मुखी बन गई | मैं अपने आपसे बात करती और भगवान के चित्रों को देखकर उनसे बात करती | मेरी बहन हमेशा अपनी सहेलियों के बीच रहती और मैं उसके पीछे किन्तु वह पसंद नहीं करती थी मेरा इस तरह उसके पीछे आना | मेरी बहन को  मेरी दादी,दादा,पिताजी,घर -बस्ती परिवार के अन्य लोग सभी उसे पसंद करते उसे प्यार से खाना खिलाते उसका प्रत्येक कार्य करते और जब मैं कुछ कहती तो मुझे झिड़क कर दूर कर देते | बचपन से ही किसी के साथ अपनी बात कह पाऊं इतनी हिम्मत ही नहीं रही क्योंकि जब कभी मैं बोलती मुझे चुप करा दिया जाता | 
          धीरे धीरे मैं तरुण हुई ,लेकिन मुझमे कोई बदलाव नहीं आया क्योंकि मेरे प्रति माहौल जो नहीं बदला | मेरी पढाई भी बस ठीक ठाक हुई | घर की जिम्मेदारी संभालती हुई, घर के छोटे-छोटे काम करते हुए कब मैंने अपने ऊपर सभी काम की जिम्मेदारी ली पता नहीं चला किन्तु इस चीज से किसी को कोई अंतर न पड़ा न पड़ने वाला था | 
          लोग घर में ताने देने लगे कि बड़ी लड़की को कब तक घर में बिठाकर रखोगे तब घर वालों को सुधि हुई उन्होंने मेरी शादी करा दी | मैं भी सपने बुनने लगी कि चलो कम से कम अब मेरा पति मुझे समझेगा | स्वप्न तो शादी के बाद टूटा | ससुराल में भी मुझे किसी से बोलने की अनुमति नहीं थी | बस काम और बचा खुचा खाना | मेरे तथाकथित स्वामी उन्हें मेरे से कोई सहनुभूति नहीं थी बस मैं उनकी माँ को, परिवार के सदस्य को खुश रखु तो मैं ठीक वरना ...... आगे क्या बताऊँ | मेरे पति  की माँ खुश होना जानती ही नहीं थी | जब देखो तब वह कमियाँ निकालने में जुटी रहती | और मौका तलाशती कि कब अपने बेटे से मुझे पिटवाए | 
           समय कब रुकता है वह भी अपने गति से आगे बढ़ता जाता है | मैं भी माँ बनी नन्हा मुन्ना मेरे जीवन में भी आया | उसके सहारे मैंने अपने दिन काटने शुरू किए | मेरे जीवन में बच्चे के कारण बहार आई और मैं सुधबुध खोकर उनको बड़ा करने में लग गई | अब मेरे सामने सिर्फ एक ही लक्ष्य कि जो काम मैं न कर पाई उसे मैं बेटे के जरिये करूँ | मेरी बड़ी ख्वाहिश थी कि पढूँ किन्तु मैं नहीं पढ़ पाई, उस ख्वाब को मैं बेटे के माध्यम से पूरा करना चाह रही थी | और मैं कर भी रही थी |
            बेटा जवान हो गया, पति ने तो कभी मुझे सम्मान दिया नहीं किन्तु बेटे से जरूर मैं सम्मान पाने की आशा रखती थी | मेरा ये सपना तब टुटा जब मैंने अपने बेटे से कुछ पूछना चाह रही थी,मैं उससे बात करना चाह रही थी और उसका अनजान बनना मुझे अन्दर तक तोड़ गया | 
       किस पर भरोसा करें, जन्म देने वाले माता-पिता पर,जीवन भर साथ निभाने वाले साथी पर या अपनी कोख से पैदा  की हुई औलाद पर | सच में किसी ने क्या खूब कहा --"हाय औरत तेरी यही कहानी, आँचल में दूध और आँखों में पानी |" 

यह रचना जयश्री जाजू जी द्वारा लिखी गयी है . आप अध्यापिका के रूप में कार्यरत हैं . आप कहानियाँ व कविताएँ आदि लिखती हैं . 

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