बदलता समाज

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बचपन में माँ बाबूजी सिखाया करते थे, जरूरत पड़े तो डाँट - डपटकर या फिर पीट - पीट कर, कि कोई तुमको अपशब्द कहे , गाली दे या मारे – पीटे तो तुम उस पर, न तो मुँह चलाओगे, न ही हाथ उठाओगे. बस तुम चुपचाप घर आकर हमें बताओ या फिर उनके घर जाकर बड़ों को बताओ. बाकी जो करना है बड़े आपस में समझ लेंगे - समझा लेंगे.

बदलता समाज
बचपन में माँ बाबूजी सिखाया करते थे, जरूरत पड़े तो डाँट - डपटकर या फिर  पीट - पीट कर, कि कोई तुमको अपशब्द कहे , गाली दे या मारे – पीटे तो तुम उस पर, न तो मुँह चलाओगे, न ही हाथ उठाओगे. बस तुम चुपचाप घर आकर हमें बताओ या फिर उनके घर जाकर बड़ों को बताओ. बाकी जो करना है बड़े आपस में समझ लेंगे - समझा लेंगे.
आज माहौल बदल गया है. समाज में जीने के तरीके बदल गए हैं. अब सिखाया जाता है कि मार खाकर रोते – धोते घर न आया करो. जो करना है कर लो. पीट कर आओ - पिट कर मत आओ. बड़ों को बताकर तो बाद में जो होना है वह है – कि आओ हाथ मिलाओ, बेटा ऐसा नहीं करते, मार पीट अच्छी बात नहीं है. मिल जुल कर रहो खेलो मजे करो ठीक...मार पीट लड़ना झगड़ना अच्छी बात नहीं है. जो मार खा कर आया था, उसके मन में भड़ास तो रह ही गई . वह इंतजार करेगा अगले मौके का. अब शायद पिटने की बारी दूसरे की होगी. लेकिन क्या यह सही है ? हम अपने बच्चों को क्या ठीक सबक दे रहे हैं ?
इसका सही जवाब शायद यही है कि इस बदले हुए समाज में इससे बेहतर रास्ता कोई नहीं है. अब समाज में होड़ सी लगी है. हर कोई दहला ही रहना चाहता है, नहला नहीं. समाज में अब पैसा – ताकत ही सर्वोपरि है. नियम, संस्कार धर्म, जिम्मेदारियाँ सब पीछे रह गई हैं.
समाज के किसी भी खेल का उदाहरण ले लीजिए. खेलों में तकनीक अब पीछे छूट गई है, ताकत  (फोर्स), दम (स्टेमिना) और पैसा (मनी) अब ज्यादा जोरों पर हैं. हर खेल में पैसा आ रहा है और इसलिए थ्रोट – कटिंग (ग्रीवाच्छेदन) की नैतिकता घर कर गई है. जीतना है कैसे भी.... यहीं पर “खेल खराब” हो जाता है... जीतना तो है किंतु खेल के नियमों के तहत, अच्छा खेलकर. खेल की इज्जत होनी चाहिए. न कि जीत की. पहले अच्छे तकनीक वाले खिलाड़ी ही जीतते थे, इसलिए खेल की तारीफ या जीतने वाले की तारीफ के मायने एक ही होते थे. किंतु अब ऐसा नहीं है. हो सकता है अच्छे खेलने वाले हार गए हों, क्योंकि दूसरों के पास और खूबियाँ थीं, जैसे उनके निर्णायक जो अपनी टीम को (या किसी टीम विशेष को) जिताने के तरफदार थे.  या फिर ताकत के दम पर दूसरों को धमका रखा था. या फिर पैसे ले देकर जीत हार का फैसला पहले ही कर लिया गया था.
अभी जो नागपूर का क्रिकेट टेस्ट मैच हुआ था, उसमें दोनों टीमों के बीच तनाव हुआ - पिच को लेकर. कहा गया कि पिच भारतीय गेंदबाजों की बहुत सहायता कर रही थी. कपिल देव को भारतीय क्रिकेट टीम में सदस्यता और सफलता इसलिए मिली कि तब विश्वभर की क्रिकेट पिचें तेज गेंदबाजों का साथ देते थे और हमारे पास उनके मुकाबले का तेज गेंदबाज नहीं था. तब तो किसी ने पिच पर कोई आलोचना नहीं की थी. गवास्कर तो शायद ताजिंदगी बिना हेलमेट के ही खेले. अब क्या कोई खिलाड़ी बिना हेलमेट के क्रिकेट में बेटिंग करने की सोच सकता है ?  क्रिकेट के मैदान में खेल के दौरान दुर्घटनाओं में अब तो मौतें भी हो चुकी हैं. क्या यही खेल है और खेल क्या इसीलिए हैं ?
भारत पाकिस्तान का (क्रिकेट या हॉकी) मैच किसी युद्ध से कम नहीं होता . लोग खेल को भूलकर पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों की लड़ाई लड़ते हैं. कोई पाकिस्तानी खिलाड़ी यदि बढ़िया खेल गया तो उसे भद्दी गालियाँ देना भी सुना गया है. पाकिस्तान यदि मैच जीत गया तो एक कोने से भारतीय भला – बुरा कहने लगते थे, अंपायरों को कोसा जाता था. हम खेल का मजा लेना भूलकर भारत पाकिस्तान की लड़ाई लड़ पड़ते थे. क्या यही खेलों का मकसद है. यदि है तो इन खेलों को तो बंद ही कर देना चाहिए. कहाँ गई वो मानसिकता जिसे हम स्पोर्ट्समेन स्पिरिट कहते थे ?  स्पिरिट शायद वाष्पित हो गई.
क्या यह सब काफी नहीं है कि कहा जाए कि हमारा सब्र घटा है. या कहिए कि हमारा पेशेंस कम हुआ है. मेरी समझ में यदि कोई गलती नहीं है तो इसे ही कहते हैं कि हम कम सहिष्णु हो गए हैं. हाँ ध्यान रहे कि इसका मतलब यह नहीं ही होता कि हम असहिष्णु हो गए हैं. सहिष्णुता का कम होना अ-सहिष्णुता का बढ़ना हो सकता है - असहिष्णु होना नहीं होता.
क्या पेले के खेल के दौरान वैसे फाउल हुआ करते थे जैसे मेराडोना के समय या जिदान के समय में हुए ? हाँ , यह भी सच है कि मेराडोना के स्वर्णिम पंजा वाली घटनाएं भी नहीं होती थी न ही जिडान वाली हेड – बट की घटनाएं. किंतु यह अपने आप में इकलौती व अनोखी घटनाएँ है जिसका असर फिर भी उन खिलाड़ियों पर पड़ा.
पहले हम कहा करते थे कि मुसलमान कट्टर होते हैं. इसके लिए मेरे पास केवल एक ही कारण है कि उनमें अपने धर्म के प्रति बहुत अधिक आस्था है. कहीं पर भी यानी स्कूल में, बस स्टैंड पर, रेल सफर में, किसी सभा में यानी कहीं पर भी – नमाज का वक्त हुआ नहीं कि वे सब खड़े होकर नमाज के लिए निकल पड़ते हैं या फिर वहीं जगह को साफ कर नमाज अता करने लग जाते हैं. लेकिन कोई यह बताए कि एक धर्म निरपेक्ष देश में यदि कोई धर्मावलंबी अपने धार्मिक कर्तव्य निभाता है, तो क्या वह कट्टर हो जाता है. उसे तो यह छूट संविधान को धर्मनिरपेक्ष बनाकर हमने ही तो दे रखा है. फिर हमें तकलीफ क्यों हो ? तब हिंदू कट्टर नहीं होते थे क्योंकि उनका धर्म उन्हें छूट दे रखा है कि जब चाहें मंदिर जाएँ या न जाएं. शायद पाकिस्तान से हमारे रिश्तों की वजह से या फिर स्वतंत्रता के समय हिंदू – मुसलमान की तर्ज पर भारत – पाक बँटवारा होने के कारण मुसलमान हिंदुओं के दुश्मन से हो गए. हैदराबाद , तेलंगाना में देखा था – गणोशोत्सव का भव्य विसर्जन. भारी भरकम जुलूस में हिंदू और मुसलमान दोनों का भरपूर समावेश था. ऐसा लगा ही नहीं कि यह हिंदू त्योहार है. मुझे बहुत अच्छा लगा – इतना कि मिलनसारिता को देखकर मेरी आँखें छलक गईं. मैं आज भी उस दृश्य मानसिक तौर पर दीदार करता हूँ. हाँ ऐसे बहुत से किस्से मैंने सुन रखे हैं, जहाँ हर बात पर हिंदू – मुस्लिम दंगे भड़क जाते हैं.
अब जब से (सन 1977) - लोकनारायण जी की जनता पार्टी का उद्गम हुआ (प्रमुख तौर पर आज की भाजपा), जिसमें हमने भी सदस्य जोड़े थे कि काँग्रेस की एमर्जेंसी समाप्त की जाए – तब से हिंदू संगठन मुखर हुए. आर एस एस , शिवसेना, हिंदू महासभा, राम सेना, हनुमान सेना इत्यादि हिंदू धर्म को खुले आम बढ़ावा देने लगे. इसमें किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. धीरे धीरे यह बयार तेज होती गई. निकाय अपनी भाषा को बदलने लगा. अब तो इनका मुँह खुल गया है जो चाहे कहते हैं, और सरकार मूक श्रोता या दृष्टा के रूप में उसे सहारा दे रही है. या तो फिर सरकार समझती है कि वे अब भी हद के भीतर ही हैं या फिर सरकार भी उसका साथ देती है. सचाई क्या है यह सरकार ही जानें. जब तक कोई इस पर खुले आम वक्तव्य नहीं देगा – यही असमंजस सी स्थिति बनी रहेगी.
अब आती है बात अन्य हालातों पर. पहले हर घर में तीन से पाँच बच्चे होते थे. माताएं केवल गृहिणी होती थीं. सारे बच्चों का संपूर्ण देख - रेख मां के पास ही होता था. पति (पिता) केवल पैसे कमाने व बाहर के काम में ही व्यस्त रहते थे. लेकिन माताएं हर बच्चे को सँभालते हुए, घर का काम भी करती थी. कभी न सुना न देखा कि दूध पीते बच्चे को – बोतल से दूध न पीने के कारण, मां ने पीटा. आज ऐसे वाकए देखने को मिलते हैं. क्या यह सहिष्णुता की कमी होना नहीं है?  आज हमारी बेटियों को बच्चों को सँभालने के न वे गुर आते हैं न हीं उनमें उतना सब्र है कि बच्चों की थोड़ी शैतानी सह सकें. तुरंत ही गुस्सा कतर जाती हैं.
स्कूल में बच्चे जब होम वर्क (गृहकार्य) बिना किए आते थे तो – इस आदत को मिटाने के लिए शिक्षक बच्चों को डाँटते थे और इस पर भी न माने तो मारते भी थे. जग जाहिर है कि यह डाँट और मार बच्चे को शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचाना नहीं बल्कि उसे पढ़ने के लिए प्रेरित करना होता था. तब अभिभावकों के पास समय होता था वे समझते कि इसका मकसद क्या है. कम से कम माताओं का पूरे समय बच्चों पर ध्यान होता था. किंतु आज ऐसा नहीं है. दोनों अभिभावक नौकरी पेशा वाले हो गए हैं. उनके पास बच्चों के लिए बहुत कम समय रहता है. समय की इस कमी को अक्सर अभिभावक दूसरी सुविधाएँ देकर पूरा करने की कोशिश करते हैं. उनमें ज्यादा पॉकेट मनी देना भी एक है.
इसलिए स्कूल में शिक्षक बच्चों को डाँटे- मारे यह अभिभावकों को बर्दाश्त भी नहीं है. ऐसे में बच्चे वैसे ही जिद्दी हो जाते हैं और साधारण डाँट - डपट से उन्हें कोई फर्क भी नहीं पड़ता. बच्चों का इन डाँट-पाँट से बिफरना नौकरी पेशा अभिभावकों के नाक में दम कर देता है . उनके लिए यह समझना जरूरी नहीं रह जाता कि शिक्षक की कार्रवाई बच्चे के लिए अच्छी है या बुरी. वे बस चाहते हैं कि बच्चा बिफरे ना. इसलिए अभिभावक शिक्षकों के विरुद्ध इसकी शिकायत करने से नहीं कतराते. अंजाम यह कि आज शिक्षक बच्चों को दंड देने से विचलित होता है, चाहे वह बने या बिगड़े. इसीलिए वह अपनी नैतिक जिम्मेदारी यानि बच्चों को शिक्षा देने के लिए हर संभव प्रयास करने से भी चूक जाता है. बताईए कि सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए बच्चों को अनचाही सुविधाएँ देकर शाँति खोजने वाले ये अभिभावक क्या कम सहिष्णु नहीं हो गए हैं, जिससे बच्चों का भी भविष्य बिगड़ रहा है?  क्या यह कहना जायज है कि कक्षा के विद्यार्थियों का परीक्षाफल खराब आने की जिम्मेदारी शिक्षकों पर थोपी जाए ?  उसे तो शिक्षा देने के लिए आवश्यक अधिकारों से वंचित ही कर दिया गया है.
अब ऐसे वक्तव्य आ रहे हैं कि सारे मुसलमान पाकिस्तान जाएं. विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के हिंदुओं को भारत की नागरिकता देने के लिए भारत तैयार है. गोमाँस भक्षक देश द्रोही करार दिए जा चुके हैं. गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने के लिए वक्तव्य आ ही गए हैं. बढ़ती असहिष्णुता के बारे में कहने वाले देश-द्रोही करार दिए जा चुके हैं. दुनियाँ में वे कहीं भी हों, चाहे जिस भी देश की नागरिकता प्राप्त कर चुके हों, भारतीय मूल के होने मात्र से भारत में उनकी उपलब्धियों को अखबारों में प्राथमिकता दी जा रही है. उनको राष्ट्रीय समाचारों में भी प्रमुखता से बताया जा रहा है..क्या कभी पहले ऐसे होता था.
मान लिया कि मूलतः भाजपा व काँग्रेस विरोधी पार्टियाँ हैं. एक दूसरे को नीचा दिखा कर राजनैतिक लाभ लेना न्यायोचित माना जा सकता है. लेकिन क्या भाजपा के हर काम में काँग्रेस को ही दोषी ठहराना उचित है. मुझे तो लगता है कि भाजपा का हर काम काँग्रेस को नीचा दिखाने के लिए ही होता है. चाहे विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने खुद ही उसका विरोध किया होगा. ऐसे ही क्या सरकार चलती रहेगी.
आज हिंदूओं के प्रति किसी भी प्रकार का छोटा मोटा मुद्दा उछालकर देश में सनसनी पैदा की जा सकती है – पर यह कितना उचित है रामसेना, हनुमान सेना, शिव सैनिकों के जिस तरह से क्रिया-कलाप हो रहे हैं – उनका कितना औचित्य है कोई सोचता है क्या ? बिहारियों की डी एन ए की बात करना कितना संयमशील था या तर्क संगत वक्तव्य था क्या ? सानिया मिर्जा को पाकिस्तानी कहना कितना उचित है, उसकी नागरिकता आज भी भारतीय ही है. उनकी उपलब्धियों पर तो हम गर्व करते हैं किंतु उनके पाकिस्तानी से विवाह करने पर उसे परदेशी करार देते हैं. क्या सानिया देश की पहली नागरिक है जो परदेशी से ब्याह रचा रही है. बाकी उन सबको परदेशी तो नहीं कहा गया फिर सानिया को ही क्योँ ? केवल इसलिए कि वह एक “पाकिस्तान” से वैवाहिक संबंध में बँधी है. भारत पाकिस्तान के बीच की दुश्मनी, क्या नागरिकों के तन मन को भी बंधित करती है.
आमिर के वक्तव्य पर तो देश बल्लियों उछल गया. उसने  कहा था कि असहिष्णुता बढ़ गई है. देश में सहिष्णुता तो कम हुई ही है. इसका मतलब तो यही ना कि असहिष्णुता बढ़ी है. हाँ हम असहिष्णु नहीं हो गए, हमारी असहिष्णुता बढ़ी है. वैसे गौर फरमाएं तो सहिष्णुता या असहिष्णुता का बढ़ना या घटना अच्छी या बुरी बात कही नहीं जा सकती, जब तक घटना विशेष की जानकारी न हो. किसी बच्चे को चोट लग गई हो और हम सहिष्णु होकर बैठे हैं तो वह गलत है और कोई बेमतलब गालियाँ निकाल रहा है और हम सहिष्णु होकर बैठे हैं तो भी गलत है. बीबी की हर बात पर भड़क जाना भी तो असहिष्णुता है. कहीं सहिष्णुता का बढ़ना फायदेमंद है तो कही नुकसान दायक. वैसे ही असहिष्णुता के साथ भी है.
अब इस देश में हिंदू धर्म को अपनाने के लिए या प्रमुखता बढ़ाने के लिए जो कुछ जिस भी तरह से किया जा रहा है और उस पर पदस्थ राजनीतिक नेताओं के तत्समर्थक वक्तव्य और सरकार का पूरी तरह सहिष्णु होना तो दर्शाता है कि सरकार का इससे कोई सरोकार नहीं है और इस आँदोलन को सरकार का मौन समर्थन प्राप्त है. बात जायज तो है कि हमारे संविधान में सभी धर्मों को प्रचार करने की छूट दी हुई है लेकिन दूसरे धर्मावलंबियों की बेइज्जती कर नहीं.
जहाँ काँग्रेस पर टिप्पणी करना उचित हो वहाँ परहेज न करें किंतु जहाँ परहेज करना उचित है वहाँ टिप्पणी भी न करें. अब तो भाजपा के हर काम के पीछे काँग्रेस की ही असफलता होती है. यानी भाजपा को कोई काम करने के लिए उसी काम में काँग्रेस का असफल होना जरूरी सा हो गया है. यदि काँग्रेस किसी काम को करने में पहल न की हो तो असंभव है कि भाजपा के हाथ उस काम के लिए आगे बढ़ें, क्योंकि उनकी पहली शर्त ही पूरी नहीं होती. प्रधानमंत्री विदेशी भूमि पर कह आए कि कुछ समय पहले लोगों को भारतीय होने में शर्म आती थी. कितना शर्मनाक वक्तव्य है. लेकिन देखिए देश चुप रहा . सहिष्णुता बढ़ी है लेकिन गलत राह पर. दो क्षणों के लिए मान लीजिए कि राहुल गाँधी ने ऐसा किया होता तो क्या अखबार व टीवी चेनल इसी तरह चुप रहते ??  यहाँ तो मजबूरी थी वक्तव्य देने वाला देश का प्रधानमंत्री और शोर मचाने वाले किसके विरोध में शोर करते -
रंगराज अयंगर
प्रमुख नेता था. दो चार ने जो आवाज उठाई तो ना जाने क्या क्या टिप्पणियाँ की गईं - सारे हद पार कर दिए. आमिर को तो देश द्रोही तक कह डाला. आमिर के साथ शाहरुख व रहमान ने भी तो सहमति जताई थी तो आमिर ही क्यों बना उनका निशाना ? क्योंकि सलमान भाई की तरह आमिर ने मोदी के साथ पतंग नहीं उड़ाई थी..है ना..!!! वैसे ही कल तक अनुपम तो विरोध में कहते देखे गए किंतु किरण के नेता बनते ही अनुपम सही में अनुपम हो गए. अब तारीफों के पुल बाँधते रहते हैं - चाहे जो भी बात हो.
भारतीय नागरिकता पाने के बाद अदनान सामी भी बोल पड़े, जो पहले इसलिए चुप थे कि उनकी नागरिकता मिलने वाली बात खटाई में न पड़ जाए. सभी को केवल अपनी चिंता है .. औरों की किसी को नहीं.
लेखकों- साहित्यकारों ने जब पुरस्कार वापस किए तो उन पर न जाने क्या क्या लाँछन लगाए गए. यहाँ तक कहा कि पैसों से और चापलूसी कर, मिन्नत कर पाए पुरस्कार तो लौटाए ही जाने थे. हद है लोगों के सोच की. जनता ऐसा नहीं कहती केवल कुछ विशेष समूह कहते हैं. सही में इस सेना का प्रकोप भयंकर है. किसी ने कहा यह कांग्रेस द्वारा सरकार को बदनाम करने की साजिश है. कुछ ने कहा इससे विश्व में हमारी बदनामी होती है, फिर भी इस बदनामी को रोकने के लिए सरकार ने कुछ करना उचित नहीं समझा. समूहों में भी आपसी समन्वय की कमी दिखी.
आश्चर्य इस बात का है कि जिनको पुरस्कार लौटाए जाने पर विश्व में भारत की पराकाष्ठा पर आँच आती दिखी, उन्ही लोगों को “भारतीय होने पर शर्म” की बात पर कोई तकलीफ नहीं हुई. एक तरफ अल्प-सहिष्णुता और एक तरफ अति - सहिष्णुता. दोनों ही खतरनाक है. यह अतिवृष्टि व अनावृष्टि की तरह ही है.
उधर इकरार खत्म होने के पहले ही समूह प्रचार करने लग गए कि आमिर को इनक्रेडिबल इंडिया से हटा दिया गया है. फिर खबर आई कि जिस कंपनी से करार किया गया था, वह समाप्त हो गया है और उसकी पुनरावृत्ति नहीं की जा रही है. फिर खबर आई कि उस करार की गई कंपनी ने आमिर से अलग करार किया था और सरकार से आमिर की सीधे कोई करार नहीं था. फिर खबर आई कि आमिर की जगह लेने वालों में प्रमुख अमिताभ हैं. इन सब प्रचारों से क्या निर्णय लिया जाए. खोदा पहाड़ और निकली चुहिया वो भी मरी हुई. करार था ही नहीं तो हटाया कैसे ?  ..यानी करार वाली कंपनी पर दबाव डाला गया.. क्यों जब करार तो खत्म ही होने वाला था ? यानी किसी ने कुछ नहीं किया अलावा शोर शराबे के .. मात्र रोटियाँ सेंकी गई. यह क्या है ??? किसी को बदनाम करने की साजिश, क्यों कि वह सरकार के विरोध में बोल गया. यानी अब जनता का यह अधिकार भी छिन रहा है.
उधर जब बिहारियों के डी एन ए को ललकारा गया तब ये भावुक देशभक्त क्या सो रहे थे. किसी ने तो आवाज नहीं उठाई क्यों भला ? जहाँ सहिष्णु होना चाहिए वहाँ न होना और जहाँ नहीं होना चाहिए वहाँ सहिष्णु होना, दोनों ही अपनी - अपनी जगह गलत हैं. अभी हैदराबाद के साहित्यिक पर्व में नयनतारा सहगल अपनी बात कहती रहीं और राज्यपाल अपनी बात करते रहे. दोनों के वक्तव्य पूरी तरह विरोध में थे, लेकिन वे आपस में दोषारोपण (आरेप-प्रत्यारोप) नहीं कर रहे थे. अपनी बात रखने का हर किसी को हक है लेकिन किसी की बेइज्जती करने का हक किसी को नहीं है. यही रवैया आमिर की बात पर भी अपनाना चहिए था किंतु हमसे चूक हो गई. यह क्या बात हुई कि किसी ने कुछ नापसंद कह दिया तो उनकी फिल्में मत चलने दो../ उनकी किताब मत बिकने दो...यही तो जंगल राज है. जहाँ अक्ल से भैंस बड़ी होती है. तकलीफ तब होती है जब पढ़े लिखे भी अक्ल को परे रखकर भैंस को बड़ी मान लेते हैं. जाने क्या मजबूरी है...
जब से केजरी सरकार बहुमत से चुनी गई है...तब से केंद्र सरकार ने शायद कसम खा ली है कि इसे काम नहीं करने देना है. हर कदम पर अड़चनें लगाना उनका धर्म बन गया है.  यह नहीं कि केजरीवाल दूध के धुले हैं किंतु जहाँ सही भी हैं वहाँ भी केंद्र ने साथ नहीं दिया. केंद्र की करतूतों से ऐसा आभास होने लगा है कि उन्हें डर है कि केजरी की सरकार काम कर गई तो उनकी प्रतिष्ठा की वजह से केंद्र सरकार की पार्टी पर राजनीतिक प्रभाव पड़ेगा. इसी लिए ऐन केन प्रकारेण यह तय किया गया कि केजरी सरकार के काम नहीं करने देना है. अब देखिए पानी के बिलों पर आमदनी बढ़ी बताई जा रही है लेकिन सारे लोग व समूह चुप क्यों हैं.
हाल ही के ऑड - ईवेन खेल में इन्होंने क्या - क्या नहीं कहा – सामाजिक पटल पर. जबकि यह एक प्रयोग मात्र था. हाई कोर्ट भी इसके साथ थी किंतु समूह थे कि भड़के हुए थे. उनके पास प्रयोग पूरे होने तक इंतजार करने की भी सहिष्णुता नहीं रह गई थी. यानी वे खौफ मे थे कि यदि यह सफल हो गया तो.....
जयपुर के लिटेररी फेस्टिवल (साहित्यिक पर्व) में करण ने फिर एक बार मुद्दा उछाला. अंजाम - उसने भी खरी खोटी सुन ली. साहित्य अकादमी के अधिकारियों ने स्पष्ट किया कि नयनतारा के साथ सारे वे लोग, जिन्होंने पुरस्कार लौटाए हैं, उन्हें फिर वापस पाने को तत्पर है. जबकि नयनतारा व अन्यों ने खासतौर पर इसे गलत बताया है - कि ऐसा कोई सुलहनामा नहीं हुआ है, न ही किसी ने पुरस्कार वापस लेने की बात कही है. सबसे हस्यास्पद लगा जब साहित्य अकादमी के अधिकारियों ने कहा कि पुरस्कार इसलिए वापस किए जा रहे हैं कि उनके संविधान में इसे वापस लेने का प्रवधान नहीं है. अन्यों से करबद्ध प्रार्थना है कि अपने अपने प्रदत्त पुरस्कारों को वापस लेने या पुनःप्राप्ति का प्रावधान, अपने संविधान में रख लें. अन्यथा आपको भी साहित्य अकादमी जैसे ही झेलना पड़ सकता है. आज तक तो ऐसा प्रावधान किसी भी पुरस्कार वितरण में नहीं रखा गया है.
मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि सरकार ने जो सामाजिक सेना तैयार की है, उसमें इतना खौफ तो है कि किसी भी व्यक्ति, संगठन, राज्य सरकार या धार्मिक संस्थान को कोई काम करने से रोक सकती है या करने को मजबूर कर सकती है. इसलिए इस बाबत मैं इस सरकार की सहृदय सराहना करता हूँ.
ऐसे क्या सरकारें चलती हैं या चलाई जाती हैं. मुझे इस बात का बड़ा ही अफसोस है कि सब नेता कहते हैं कि वे देश की भलाई के लिए कार्य करते हैं लेकिन उनके समझ में शायद नहीं आता या फिर वे समझना ही नहीं चाहते कि कौन सा काम देश के हित में है, कौन सा पार्टी के हित में और कौन सा स्वार्थ साधने में. जब सब की मंजिल एक है और नीयत सही है तो वे एक जुट क्यों नहीं हो पाते.
मेरे पास तो इसका एक ही जवाब है कि उनकी मंजिल एक है यह तथ्य नहीं है...
किसी और के पास कोई साफ सुथरा जवाब हो तो कृपया अनुग्रहीत करें.



यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र - एम.आर.अयंगर.8462021340,वेंकटापुरम,सिकंदराबाद,तेलंगाना-500015  Laxmirangam@gmail.com

COMMENTS

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  1. अयंगर जी आपने बहुत से मुद्दों को छुआ है, जिनमें से राजनीतिक मसलों पर कुछ कहना व्यर्थ है क्योंकि हमें दोनों पक्षों द्वारा सिर्फ उनके हिस्से की आधी तस्वीर दिखाई जाती है और राय बनाने को उकसाया जाता है। हम शतरंज के प्यादों की तरह हाँक दिये जाते हैं। हाँ मगर सामाजिक मुद्दों पर आपसे सहमत हूँ। परिवार नामक इकाई बिखर रही है। इससे बच्चों की परवरिश पर बुरा असर पड़ रहा है। उनमें नैतिक मूल्यों के बजाय आजादी और दिखावे की होड़ लगी है। उपभोक्तावाद हमें उंगलियों पर नचा रहा है। इसका समाधान हमारे अपने हाथ में है, बस हमें महसूस करने की देर है।

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  2. वर्षा जी,
    सबसे पहले स-आभार धन्यवाद कि आपने पढ़ा व प्रतिक्रिया दी. मैं आपके विचारों से सहमत हऊं किंतु सामाजिक प्राणी होने के नाके कभी कभी बहकावे में आ जाता हूँ. पारिवारिक मूल्यों को बाँध के रखने के लिए अभिभावकों की मेहनत पता नहीं कितने गुने हो जाएगी उस पर भी भगवान ही जानेकि निष्कर्ष कितना कामयाब होगा.

    विनम्र
    अयंगर.

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  3. आपके लेखन में बहुत गहराई है,विद्वता की झलक है, परन्तु दुःख इसी बात का होता है कि आप जैसे बुद्धिजीवियों को सिर्फ एक ही पक्ष दिखाई देता है,सारी बातों में हिन्दू गुनाहगार हो गए , और मुस्लिम बरी, ऐसे ही भाजपा और कांग्रेस...परम आदरणीय आयंगर साहब, किसी भी हिदू-मुस्लिम फसाद में शायद दोनों ही बराबर के जिम्मेवार हैं, आप जैसे बुद्धिजीवी अपनी लेखन शक्ति से अगर ये मसला हल करना चाहते हैं तो कृपया दोनों को लताड़ लगाइए,मिलजुल कर हंसी-खुशी सुरक्षित माहौल में भयमुक्त होकर जीना सभी चाहते हैं,पार्टी विशेष को न कहकर गंदी राजनीति और गंदे नेताओं को कोसें ,

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    1. हरीश जी, आपने कलम में गहराई और विद्वत्ता देखी. मुझे आपार हर्ष हो रहा हेै. जहाँ तक लताड़ लगाने की बात है, जितना मुझे उचित लगा उतना तो करता आया हूँ. मुझे एक बात समझने में बहुत तकलीफ होती है. आज सरकार के परमार्थी हर बार काँग्रेस का रोना लेकर क्यों बैठ जाते हैं. यह क्या उनके भेजे में नहीं घुसता कि यदि काँग्रेस ने बेड़ा गर्क न किया होता तो जनता उनको क्यों चुनती. उनके आने का मुख्य कारण ही काँग्रेस का घटियापन है. तब बार बार का रोना क्यों. अपना काम बिना काँग्रेस के नाम लिए क्यों नहीं कर पाती यह सरकार. हाँ मुसलमानों की बात करते हैं तो वह अब तक जग जाहिर हो चुकी है. हिंदू कट्टरवाद नया है इसलिए प्रहार हिंदू कट्टरवाद पर ज्यादा होता है.... होगा ही.

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  4. AYYAR JI APKE VICHARON SE MAI BAHUT PRABHAWIT HUN,KYOUN KI APKE VICHAR HAIN HI AISE KI DIL KO CHHU GAYEE. DHANYAWAD

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    1. अनिल जी,
      सबसे पहले आपका आभार, प्रशंसनीय टिप्पणी के लिए. मैं अपने मन को रोक नहीं पाता, न ही रोकना चाहता हूँ. इसलिए जो भी विचार आते हैं बेझिझक लिख देता हूँ. मेरे लेख पढ़ने के लिए आप मेरे निजी ब्लॉग laxmirangam.blogspot.com
      में लॉग कर सकते हैं. मेरी विनती होगी कि यदि आपको पसंद आए तो ब्लॉग में सम्मिलित होवें.
      सादर ,
      अयंगर.

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हिन्दीकुंज,Hindi Website/Literary Web Patrika: बदलता समाज
बदलता समाज
बचपन में माँ बाबूजी सिखाया करते थे, जरूरत पड़े तो डाँट - डपटकर या फिर पीट - पीट कर, कि कोई तुमको अपशब्द कहे , गाली दे या मारे – पीटे तो तुम उस पर, न तो मुँह चलाओगे, न ही हाथ उठाओगे. बस तुम चुपचाप घर आकर हमें बताओ या फिर उनके घर जाकर बड़ों को बताओ. बाकी जो करना है बड़े आपस में समझ लेंगे - समझा लेंगे.
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