और समय का पहिया रात में

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और समय का पहिया रात में डॉ. हर्षवर्धन सिंह सोता नहीं दौड़ता है सुबह उठता हूँ हर दिन एक नया चेहरा देखता हूँ आईने में

डॉ. हर्षवर्धन सिंह की कविताएँ 

(1)
चेहरा

और समय का पहिया रात में
डॉ. हर्षवर्धन सिंह
सोता नहीं दौड़ता है
सुबह उठता हूँ
हर दिन एक नया चेहरा देखता हूँ
आईने में

ये कौन है ?
मैं या कोई और
दीवारें वही हैं
और कालीन का दाग भी वही

हम,  जो घरों में कालीन  बिछाते हैं
नंगी फर्श पर चलने से छीलते हैं
हर सुबह अपने चेहरे पर नया  दाग पाते हैं
और जब घर से लीपापोती कर बाहर निकलते हैं
तो हर इंसान के चेहरे पर दाग पाते हैं
ये इंसान हैं या कोई और ?
मैं ज़िंदा हूँ या कुछ और?

(2)
ज़िन्दगी 

हम जो अपने घरों में
अलाव जला कर
खुद को लपेटे नरम कम्बलों में
वोदका कि दो घूंट
गले को तर कर
गरीबी कि बात किया करते हैं
कि ज़िन्दगी क्या है ?
इस पर जीरह किया करते हैं !
कि ज़िन्दगी तो खुली सड़कों
और फटे तम्बुओं में जन्मती है
नंगे बदन पर जवान होती है
पेट के साथ रूह को खाली कर
अपना वजन बढाती है
बचपन को सीधे बुढ़ापे
में बदल कर
अपनी रुमानियत दिखाती है
कि ज़िन्दगी क्या है
और जीने के मायने क्या हैं
यह जिंदगी जीने वाले से पूछों


(3)
जीवन का मर्म

यथार्थ और सलाह
आलसियों की है आरामगाहI
यथार्थ से बड़ा भ्रम,
और
सलाह देने से बड़ा कोई नहीं कर्म,
यही है बेटे, जीवन का मर्म!
बाल की खाल,
तिल का ताड़,
हर नेकी में बुराई,
अगर देख तेरी नज़र ये पाई,
तो तू यथार्थवादी है
अर्थात
आलसी है!



(4)
परछाइयां

परछाई पकड़ने की चाह में
खुद को समझने की राह में
खुद की परछाई से ही कर बैठा,
मानसिक लड़ाई!

एक पकड़ता, तो दूसरी दिख जाती
और दूसरी पकड़ता तो
तीसरी, चौथी और न जाने कितनी ही
परछाइयां दिख जाती
ठीक रावण के सर की तरह,
कोई अंत न दिखता था!

सब मेरी ही तो थी
कोई लम्बी,कोई नाटी,
कोई नेक, कोई बुरी
जितनी परछाइयां, उतने रूप
तंग आ गया इन रूपों को देखकर!

पहले तो
समय के हिसाब से
बदलती भी थी
दिन में एक, तो रात में ग्यारह
अब हमेशा एक सी रहती है
दिन हो या रात
मैं चलता हूँ और सतह मेरे
ग्यारह परछाइयां चलती हैं!

(5)
शाश्वत

सरल साधारण भाषा में
बिना अलंकारों के
बात कह सकता हूँ नयी
नहीं ज़रुरत है मुझे
आधुनिकता और आभूषण की
आह! से उपजा था पहला कवि
आह! ही जन्म देता है आज भी एक कवि
(दर्द - एक शाश्वत मूल्य !)
दर्द ही है दवा जिसकी
कवि कहते हैं उसे सभी

मानवता के मूल्यों से वो तुल रहा
आधुनिक जीवन की ज़रूरतों से वो जूझ रहा
नित नयी नैतिकता के पाठ वो सुनता
हकीकत की सिलौटी पर
उनको वो पिसता,
गहरा जंग लगा बलगम सा उसका रंग होता

फिर देखता जब वो
घूर के
इस विश्व की तरफ
पाता वो
देख रहा
अमेरिका, यूरोप, और एशिया
उसकी तरफ .


यह रचनाएं डॉ. हर्षवर्धन सिंह द्वारा लिखी गयी हैं I पूर्व में आपकी  रचनाएं आल इंडिया रेडियो, इंदौर स्टेशन, पर प्रसारित हो चुकी हैं I वर्तमान में आप  यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड, बाल्टिमोर, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका से सम्बद्ध हूँ I वर्तमान पता: १ स्टोनीब्रूक लेन, रिडले पार्क, पेनसिलवेनिया, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका I ईमेल: harshvardhanou@gmail.com

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