क़ाफि़या मौसम का / पुष्पलता शर्मा की कहानी

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पुष्पलता शर्मा तकनीक की दुनिया भी कमाल है । कभी तो इतना व्‍यस्‍त रखती है कि सामान्‍य सी मूलभूत संवेदनाओं को महसूसने से भी रोक देती है ।...

पुष्पलता शर्मा
तकनीक की दुनिया भी कमाल है । कभी तो इतना व्‍यस्‍त रखती है कि सामान्‍य सी मूलभूत संवेदनाओं को महसूसने से भी रोक देती है । दिल की संवेदना के तारों की झंकार दिमाग़ की कीलों के खूँटे तक पहुँच कर बंधने ही नहीं देती तो कभी यकायक पहुँचा देती है अतीत के गलियारे में जहॉं बेबस होकर बस आप सिर्फ़ ख़ुद के साथ होते हैं । तकनीक का ही एक अंश आपको सबसे काट कर अलग कर देता है वर्तमान से भी और इस मशीनी भागदौड़ वाली दुनिया से भी । सब कुछ है आस-पास, वही जेट गति से भागती दुनिया के इर्द-गिर्द मात्र एक क्लिक की दूरी पर । और यह सेकंड से भी कम की एक हरक़त इतनी शक्तिशाली बन जाती है कि भारी पड़ती है तमाम वेगवान साधनों पर भी । आश्‍चर्य है न कि गति की प्रतीक तकनीक ही बरबस जड़ कर जाती है मन मस्तिष्‍क आत्‍मा और शरीर को भी !
आज फिर गु़लज़ार की पुरानी फि़ल्‍म मौसम आ रही थी ( गु़लज़ार का जन्‍मदिन मना रहे थे चैनल वाले शायद ) जिससे रु-ब-रु कराने की अचानक हरक़त थी रिमोट की और मेरी उंगलियों की । एक क्लिक ने मुझे रोक दिया था । ‘’दिल ढॅूंढता..है…. फिर वही....’’ संजीव कुमार अपनी ऑंखों के सामने बीस साल पहले जीया दृश्‍य जी रहा था एक बार फिर । बीस साल पुरानी चंदा को बीस साल नयी चंदा के रूप में देख रहा था ख़ुद के साथ गाते, गुनगुनाते, जि़न्‍दगी के मायने जीते, कल्‍पना के सपनों को बुनते और भविष्‍य को भी जी लेने के विश्‍वास का संबल । बस उस पल का सत्‍य जीते जो उस दृश्‍य में शाश्‍वत लग रहा था । लेकिन सांसारिक चीजें शाश्‍वत कैसे हो सकती हैं ? कहते हैं न कि शाश्‍वत तो एक ही चीज़ है और वह है परिवर्तन ! लेकिन परिवर्तन की दिशा तय करती है कि इस परिवर्तन में शाश्‍वत की जो मूल भावना अवश्‍यम्‍भावी है, वह भी जीवित रही या न रही ।
हालांकि बहुत कम फिल्‍में ही दूसरी, तीसरी, चौथी या उससे अधिक बार देखी जाती है । इससे पहले जब यह फिल्‍म देखी थी तो एक नॉन ग्‍लैमरस सा टेस्‍ट लगा था उसमें । शायद 15-20 साल पहले की बात होगी । वक्‍़त अलग था, उम्र अलग थी और अनुभूति के आयाम भी अलग थे ।
कभी-कभी तो जि़न्‍दगी के कुछ पलों में वर्षों समा जाते हैं तो कभी वर्षों वर्ष एक ही पल को दोहराते चले जाते हैं । संजीव कुमार ने डॉक्‍टर ( नायक ) का किरदार जिस संजीदगी से निभाया और शर्मिला टैगोर ने नायिका चंदा का, परिस्‍थ‍ितियों की मारी, चंदा की बेटी का, और इस ताने-बाने के माध्‍यम से गु़लज़ार ने दिल के रिश्‍तों के तारों को संवेदना के वह प्राण दिए कि बस सब कुछ जीवन्‍त भी लगा और यह भी कि अगर बिगड़ी बने, तो ऐसी बने जो पहचान बन जाए दिल के रिश्‍तों की मज़बूती की । मैं ख़ुद को जी रहा था संजीव कुमार में और चंदा....... ?
चंदा का पाग़ल हो जाना, 20 साल का लंबा इन्‍तज़ार डॉक्‍टर के लिए, उसके लिए जिसे कुछ ही दिनों बाद लौटकर आना था चंदा की सोलह कलाओं के इन्‍तज़ार को पूर्णमासी का चांद बनाकर पूर्ण करना था, पूनम की मदहोश चांदनी का जोड़ा पहनाकर दुलहन बनाना था लेकिन वह नहीं आया था वापस । चंदा के इन्‍तज़ार की इन्‍तेहां हो जाने पर भी, उसके इन्‍तज़ार में पाग़ल हो जाने पर भी, उस अपात्र पति की भी मौत हो जाने पर भी, चंदा की बेटी के जवान हो जाने पर भी, पाग़ल मॉं के अपनी जवान बेटी को संभाल पाने की दुश्‍वारियों के बावजूद भी, उस बेटी के गिद्धों का शिकार बन जाने पर भी । और 20 साल बाद जब चंदा की ऑंखें रहीं, न उसका पाग़लपन और न चंदा तब डॉक्‍टर बाबू लौट पाए हैं अपनी आत्‍मा की आवाज़ सुनकर । चंदा की बेटी जो जिस्‍म का धंधा करने लगी है, उसे 20 साल बाद वापस लाते हैं जीवन की मूल धारा में एक पिता बनकर । अच्‍छा लगा नये सिरे से बार-बार देखे तथ्‍य की संवेदना को महसूस करके, कि रिश्‍ता दिल का हो चाहे ख़ून का, सच्‍चा हो तो चंदा की बेटी (वेश्‍या होकर भी ) चंदा के डॉक्‍टर (नायक) के लिए बेटी ही होती है और वह निभाता है एक पिता का फ़र्ज़ पश्‍चात्‍ताप स्‍वरूप ही सही ।
न जाने क्‍यों जॉन आज फिर फ्लैश-बैक में चला गया था आज पहली बार उसे 20 साल और 14 साल की कहानी एक जैसी लग रही थी । ऐसा नहीं कि उसे अतीत के फ्लैश अचानक हकबक करने की कोशिश नहीं करते थे लेकिन वह हमेशा उन्‍हें झटक दिया करता था और ख़ुद को दिलासा दे देता था कि आई एम अ प्रैक्टिकल मैन और इसलिए आई एम अ सक्‍सेसफुल मैन । सोच रहा था कि मुझ जैसे प्रैक्टिकल आदमी ने कब पीछे मुड़कर देखना शुरु कर दिया । मैंने तो आज तक दादाजी की पुरानी पड़ी पेटी को दुबारा खोलकर भी नहीं देखा कि उनकी व्‍यक्तिगत पेटी में तुलसी और रूद्राक्ष की माला क्‍यों रखी थी जतन से । क्‍यों पुरानी एंटीक सी शिव की मूर्ति बंद पड़ी थी । बचपन में कौतुक होता था कि यह क्‍या है । दादाजी को ईसा और मरियम की मूर्ति के सामने यकायक हाथ जोड़ते और फिर अचानक हाथ हिलाते हुए, कान पकड़ते हुए क्रॉस का चिह्रन बनाते और ईसा से माफ़ी मॉंगते ( जैसे पूजा सामग्री में कोई अशुद्ध चीज़ आ गई हो ) जब भी देखता था, डैडी से पूछता था- वाय दिस डैडी, वॉट हैप्‍पन्ड । और डैडी मेरी बात ख़त्‍म होने के पहले ही मेरे मुंह पर हाथ रखकर चुप रहने का इशारा कर देते और मेरी जिज्ञासा वहीं भीतर जाकर दुबक जाती थी । और बालमन यह समझ जाता था कि कुछ बातें ऐसी भी हो सकती हैं, जिन पर बात न की जाए । मुझे भी यही आदत पड़ गई थी शायद, तथ्‍यों से भागने की । तभी तो इतने सालों में कभी ( चंदा का, नहीं रोज़ी का ) रोज़ी का ख़याल भी आया तो झटक दिया बिलकुल दादाजी के जुड़े हाथों के खु़लकर कान पकड़ने और फिर ऑंखें बंद करके सिर हिलाते हुए पवित्र क्रॉस बनाने की यंत्रवत प्रक्रिया की तरह । मैं भी सोचना ही नहीं चाहता था रोज़ी के बारे में । उसकी ऑंखें ! उफ्फ् । वही तो प्रश्‍न करती थीं तब भी और आज भी, अब भी । उसकी ऑंखें मुझे बहुत ख़ूबसूरत लगती थीं लेकिन जब सवाल करती थीं तो ....... भला प्रश्‍न पूछने वाला भी कभी अच्‍छा लगता है ! और उसकी ऑंखें तो स्‍कैन करके सच जान लेना चाहती थीं । लेकिन हम सच को इतना छिपाने की कोशिश करते ही क्‍यों हैं कि किसी की जि़न्‍दगी ही सवाल बनकर रह जाए । विचारों के प्रवाह से अचानक ध्‍यान-भंग कर जॉन ने अपना माथा झटका और अपने आप से ही बुदबुदा उठा –अरे हट ! यह क्‍या हो गया है मुझे ? इस ‘मौसम’ ने तो बांध ही दिया है मेरे दिमाग को । सहसा अपने मनोविचारों को नियंत्रित करते हुए और एक परिवर्तन के लिए जॉन ने पत्‍नी को आवाज़ दी- भई सुनो ! चाय मिलेगी ? अंदर से आवाज़ आई- आर यू श्‍योर एक कप और पीनी है चाय ? ‘मौसम’ देखते-देखते पहले ही पॉंच कप पी चुके हो ! अचकचाकर जॉन बोला- नो नो डार्लिंग रहने दो अभी । कुछ सेकंड्स की चुप्‍पी के बाद फिर बोला- अच्‍छा ! बना दो एक बार और !! फिर जॉन ने स्‍वयं को व्‍यस्‍त कर लिया कुछ अनावश्‍यक से कार्यों में । जैसे पर्स को साफ़ करना, अनावश्‍यक पेपर्स आदि फेंकना, फिर बुक शेल्‍फ़ के पास जाना, कि़ताबें देखना, फिर पलटकर मैगज़ीन उठाना और अन्‍तत: पढ़े हुए न्‍यूज़-पेपर को फिर से खोलकर बैठ जाना । इसी बीच मैरी आ चुकी थी चाय का कप लेकर और कुछ पूछ रही थी । जॉन को उसकी उपस्थिति दिख तो रही थी लेकिन अहसास नहीं हुआ था । जब मैरी ठीक सामने खड़ी हो गई चाय के कप के साथ तब जॉन की तन्‍द्रा भंग हुई और उसने सिर उठाकर ऐसे देखा जैसे मैरी नहीं कोई आगंतुक खड़ा है और कुछ पूछ रहा है । वस्‍तुस्थिति में आते हुए उसने पूछा कुछ कहा मैरी ? मैरी बोली- वॉट इज़ रॉंग विथ यू ? सुबह से कुछ अनयूज़ुअल बर्ताव कर रहे हो ? वॉट इज़ द प्रॉब्‍लम डियर ? मैरी जॉन की दोस्‍त भी थी पत्‍नी के अलावा, लेकिन जॉन ने कभी जि़क्र नहीं किया था रोज़ी का उससे । क्‍यों करता ? उसने कौन सा रोज़ी को गम्‍भीरता से लिया था ? लेकिन आज क्‍या हुआ ? शेयर करे भी तो क्‍या और कैसे ? मैरी के पिता ने जॉन को गोद लिया था एक तरह से, कहें तो आर्थिक रूप से । उसी दौरान की तो बात है ! मैरी से दोस्‍ती और रोज़ी से प्‍यार । क्‍या कहा मैंने ( जॉन ख़ुद से ही बुदबुदाकर पूछ रहा था – रोज़ी से प्‍यार ? ) यह मैं क्‍या कह रहा हूँ ख़ुद से । मुझे रोज़ी और प्‍यार एक साथ क्‍यों याद आ रहे हैं । रोज़ी को नहीं लेकिन मुझे तो मालूम था न ! कि मुझे रोज़ी से कोई प्‍यार-व्‍यार नहीं था । तो क्‍या मुझे रोज़ी से....... । या होना चाहिए था वह सब सच । आज कुछ और होता न जीवन ! यह ‘मौसम’ मुझे क्‍या सिखा गई ! डॉक्‍टर बना संजीव कुमार मुझमें घुस गया है क्‍या ? और रोज़ी ? कहीं रोज़ी भी तो चंदा नहीं बन गई होगी ? ‘’अब क्‍या फिर से चाय ठंडी करने का इरादा है ! सामने मैरी को खड़ा देखकर अचकचा गया जॉन । कहीं मैरी ने सुन तो नहीं लिया मेरे मन का संवाद ! जॉन ने यंत्रवत चाय का कप ले लिया था मैरी से और फिर न्‍यूज़ पेपर की किसी ख़बर पर नज़र गड़ाकर बहाना कर रहा था मैरी से नज़र चुराने का कि कहीं चोरी पकड़ी न जाए उसकी । मैरी जॉन के बगल में सोफ़े पर बैठ चुकी थी । समझ रही थी कि आज जॉन कुछ तो छिपाने की क़ोशिश कर रहा है । किससे ? मुझसे ? ख़ुद अपने आपसे ? उसने आहिस्‍ता से कहा- जॉन ! कैन आई हेल्‍प यू ? डू यू वांट टू शेयर समथिंग ? टेल मी !!! बट डॉण्‍ट बी क्‍वायट, यू नो- मुझे डर लगता है तुम्‍हारी चुप्‍पी से ? तुम ऐसे ही ख़मोश और डिस्‍टर्ब लग रहे थे 12 साल पहले जब हमारी शादी हुई थी । याद है तीन दिन तुम कुछ नहीं बोले थे । उस वक्‍त तो पापा की मौत का कारण था । आज क्‍या है जॉन, प्‍लीज़ बताओ !
इधर जॉन के कानों में अपना नाम ‘’जॉन’’ जॉन, जॉन जॉन गूंज रहा था । ऐसा तो नहीं था कि मैरी ने पहली बार उसे उसके नाम से पुकारा था ! जॉन देख रहा था मैरी की तरफ़ । उसके कानों में गूँज रहा था । जॉन ! क़ाफि़या ! जॉन ! क़ाफि़या ! मैरी ने ही हथियार डालकर उसका गाल सहलाकर कहा – ओ के बाबा ! वेनएवर यू वांट, टू टेल मी !, बट रिलैक्‍स नाओ प्‍लीज़ !! और चली गई यह समझकर कि शायद जॉन के मर्ज़ की दवा एकांत ही है इस समय ।
जॉन ने राहत की सॉंस ली मैरी के जाते ही । ये क्‍या..... ? शायद अब उसकी सोच की चोरी पकड़ी नहीं जाएगी ! उसे अभिनय तो नहीं करना पड़ेगा मैरी जैसी दोस्‍त और पत्‍नी के सामने ।
अब तक रोज़ी की यादें सारथी बनकर जॉन को अतीत के पंखों पर सवार करके विचरण के उन्‍मुक्‍त्‍ आकाश में उड़ान के लिए तैयार कर चुकी थीं । जॉन ने भी छोड़ दिया था ख़ुद को अतीत के आग़ोश में रोज़ी की यादों की कि़ताब की नाव के साथ । क्‍या कहा कि़ताब ! नाव ! हॉं, कि़ताब ही तो । देखा, पढ़ा, समझा, और छोड़ दिया किसी और की अध्‍ययन की वस्‍तु बनने को । हॉं नाव ही तो । तभी तो किनारे उतरकर नाव को ठौर भी न बांधा और उसकी रस्‍सी छोड़ दी बीच मँझदार में ग़ुम हो जाने को । मैं ग़लत था ? क्‍या व्‍यावहारिक होना ग़लत है ? क्‍या अपने हित के लिए निर्णय कर लेना ग़लत है ? नहीं । लेकिन इस निर्णय में रोज़ी को भी भागीदार बनना ज़रूरी था । जब दो दिलों का एक रिश्‍ता बनता है तो निश्‍चय ही कोई भी एक निर्णय दोनों को साझे ही लेने चाहिए । ग़लती यहां हुई तुमसे । कौन बोला ये ? कोई नहीं था आस-पास । यह अंतरात्मा की आवाज़ थी, जो जॉन को चैन नहीं लेने दे रही थी । यह क्‍या किया मैंने !
कानों में रोज़ी की वही 14 साल पुरानी सुनी आवाज़ गूँज रही थी । ( आज भी कैसे याद है जॉन को रोज़ी की आवाज़ का मॉड्यूलेशन ! ) । ‘’ नहीं कहूँगी तुमको जॉन ‘’ । कहा न ! नहीं कहूँगी ! और एक बात और सुन लो तुम्‍हारे नाम का यह क़ाफिया मेरे और तुम्‍हारे बीच मत लाया करो । तुम जानते हो न ! जान हो तुम मेरी, जॉन नहीं । फि़जि़क्‍स में कहूँ तो एनर्जी । प्राण-ऊर्जा यानी जान के बिना जीवन संभव नहीं । ओ माय ओ-2, ओ-3 ! एक जीवन, एक जान ! कुछ तो डिसाइड करो ! कब तक यूँ ही चलता रहेगा ? जॉन को अपनी कही बातें भी याद आ रही थीं । रोज़ी बस कुछ ही दिनों की बात है, सब तय हो जाएगा । पर जानती हो न ! तुम ही वह हो जिसके साथ मैं जीना चाहता हूँ !
रोज़ी को कह तो दिया, लेकिन अंकल का ऑफ़र जो मम्‍मी-पापा तक भी पहुँच चुका है । कैसे मना करूँ ! आर्थिक मदद दी है मुझे ! आगे भी पूरा करियर पड़ा है अभी ! एक सलीके़ की नौकरी भी नहीं । फि़र मैरी में क्‍या बुराई है ? दोस्‍त भी है वह मेरी ! रोज़ी भी तो पढ़ी-लिखी लड़की है, कहीं न कहीं नौकरी लग ही जाएगी और फिर शादी भी ... । मेरी इग्‍नोरेंस से ख़ुद ही समझ जाएगी । क्‍या हर रिश्‍ते निभे, ज़रूरी है ? पढ़ी-लिखी है, समझदार है । कभी न कभी सोच ही लेगी अपने बारे में । इस रिश्‍ते में सारा नफ़ा-नुकसान जोड़-घटाव करने पर साफ़ लगता है कि रोज़ी को टाटा, बाय-बाय आज नहीं तो कल कहना ही था । मेरा जीवन तो मैरी के साथ ही फल-फूल सकता है, फिर करियर का बोनस तो है ही । किसके रिश्‍ते नहीं होते, किसका अतीत नहीं होता ! फिर रोज़ी को मैंने हिंट तो किया ही था कि मेरी कुछ जि़म्‍मेदारियॉं हैं । उसे समझ जाना चाहिए कि मैं ऐसा क्‍यों कह रहा था । यंग है, पढ़ी-लिखी है, आज नहीं तो कल भूल ही जाएगी मुझे । एक्‍चुअली रोज़ी कुछ ज्‍़यादा ही इमोशनल फ़ूल है । क्‍या लड़के-लड़कियों के अफ़ेयर नहीं होते ? अब एक अफ़ेयर में बँधकर पूरा जीवन तंगी के कड़ाहे में झोंक देना कहॉं की बुद्धिमानी है ? रोज़ी और उसकी फैमिली से मुझे कभी वह आर्थिक- सुरक्षा नहीं मिल पाएगी जो मैरी के साथ मिल सकती है । फिर पूरा परिवार भी तो साथ होगा मेरे ! फ़ायदा ही फ़ायदा । मानता हूँ कि रोज़ी मुझ पर अटूट श्रद्धा, विश्‍वास रखती है लेकिन इसमें मैं क्‍या कर सकता हूँ । क्‍या अपना पूरा जीवन तंगहाली का विकल्‍प चुनूँ ? अपने पैरों पर ख़ुद कुल्‍हाड़ी मार लूँ । नहीं ! मैं ऐसी बेवकूफ़ी नहीं करूँगा । समझ जाएगी एक न एक दिन वह । फिर कौन अपनी पूरी जि़न्‍दगी किसी के लिए ख़राब करता है, और कौन जीवन भर किसी का इंतज़ार करता है ! एक बात और । मान लो रोज़ी न भूल पाए मुझे, तो भी मैं अपना करियर और सुखद भविष्‍य दॉंव पर क्‍यों लगाऊँ ? मैं क्‍यों बलि का बकरा बनूँ ?
इन्‍हीं सब तर्कों से ख़ुद को संतुष्‍ट करके जॉन एक निश्‍चय कर चुका था- रोज़ी को उसकी ‘जान’ को उसके जीवन से हमेशा के लिए अलग कर देने का । लेकिन यह बात कहने की हिम्‍मत नहीं थी हालांकि उसके पैर चल पड़े थे 180 डिग्री के मोड़ की यात्रा पर जहॉं एक छोर पर वह रोज़ी को छोड़कर विपरीत दिशा की ओर मुड़ चुका था और वह दिशा ले जाती थी ‘मैरी’ नाम के दूसरे छोर तक, रोज़ी से अलहदा अलग आयाम का अंतिम बिंदु, जहॉं से वह फिर कभी रोज़ी की दिशा की तरफ वापस नहीं जा सकता था ।
आज देखो न ! 14 साल बीत चुके हैं । कहॉं होगी रोज़ी ? जीवित भी है या नहीं ! ओ गॉड ! क्‍या करूँ । पिछली बार कई साल पहले पुराने दोस्‍तों की एक पार्टी में उड़ती-सी बात सुनी थी कि बीमार है वह । तब भी मैंने इस तरह से अनसुना कर दिया था जैसे कि कोई अनचाही ख़बर चिपक रही हो मुझसे आकर । इग्‍नोर कर दिया था, देखने जाने की कोशिश करना तो दूर रहा । लेकिन आज लग रहा है काश ! उस दिन पूरी बात सुन ली होती । कम से कम उसके वेयर-अबाउट्स तो पता होते ! सूचना रहती तो क्‍या फ़र्क़ पड़ जाता । आज इतनी उलझन तो न होती ! अब उन दोस्‍तों से मिलना भी सालों बाद ही हो शायद या कभी अचानक कोई मिल जाए । सीधे फोन करके भी तो नहीं पूछ सकता उसके बारे में । कोई बेवकूफ़ तो नहीं है आखि़र कि समझ न आए । हालांकि वे भी तो नहीं जानते मेरे और रोज़ी के रिश्‍ते के बारे में । लेकिन उस वक्‍़त भी मैं किसी पचड़े में नहीं पड़ना नहीं चाहता था । अब बीमार थी भी तो मैं क्‍या करूँ । सब अपनी जि़न्‍दगी के फ़ैसलों के लिए ख़ुद जि़म्‍मेदार होते हैं । मैंने भी तो जि़न्‍दगी में फैसले किए । सुविधाजनक रास्‍ते का चयन किया, उसने भी चुन ही लिया होगा अपना रास्‍ता । और न भी चुना हो तो मैं क्‍या कर सकता हूँ । और मैं कोई डॉक्‍टर तो था नहीं कि अपना प्रोफेशनल धर्म ही निभाता देखने जाकर ।
होल्‍ड ऑन, होल्‍ड ऑन ! जॉन की अंतरात्‍मा से आवाज आई- तो फिर आज क्‍या सोच रहे हो ! अगर जो कह रहे हो उससे संतुष्‍ट हो तो आज तुम्‍हारी ऑंखों में नमी क्‍यों है ? अचानक जॉन ने ऑंखों को उंगली से छुआ । अरे ! ये तो सच में गीली हैं ? क्‍या मुझे पश्‍चात्‍ताप हो रहा है । मुझे क्‍यों पश्‍चात्‍ताप होगा ? मैंने कौन सा उसे नुकसान पहुंचाया है ? यंग एज में ऐसा कौन है जिसका किसी से भावनात्‍मक लगाव न रहा हो थोड़ा कम या ज्‍़यादा, गंभीर या अगंभीर, रहा तो ज़रूर होगा ! फिर मैं कोई दुनिया से अछूता तो नहीं । इसी दुनिया का इनसान हूँ, देवता नहीं । ‘तुम क्‍या सच में इनसान हो ? तुम इनसान नहीं आदमी हो । इनसान एक सब्‍जेक्टिव टर्म है, तुम नहीं समझोगे ।‘ कहीं अंतर से आवाज़ आई- लगा मैं नहीं मेरे भीतर से रोज़ी बोल रही है । कम से कम खु़द से तो सच बोलो ! रोज़ी की इस काल्‍पनिक और नेपथ्‍य की आवाज़ ने उसे बेचैन कर दिया था जो जॉन के अंतर से सुनाई पड़ रही थी । अचानक जॉन उठा और कम्‍प्‍यूटर पर उसकी उंगलियॉं थिरकने लगीं । न जाने कितनी देर गूगल पर, फेस बुक पर उसकी सर्च चलती रही। सर्च के की-वर्ड बदल-बदल कर नये-नये पेज ख़ुलते रहे और घंटों की मशक्‍़क़त के बाद उसे किंचित वह मिल गया, जो उसे चाहिए था । पर्सनल तो नहीं लेकिन रोज़ी के ऑफि़स का नंबर । नंबर तो मिल गया । कम से कम यह तो पता चला कि रोज़ी है और यहीं है । अब क्‍या फोन करूँ या ख़ुद जाऊँ ? अगर ख़ुद गया तो माफ़ी मॉंग पाऊँगा, क्‍या वो मुझे माफ़ करेगी ? किस मुँह से कुछ भी बोलूँ कि अचानक सब कुछ ख़त्‍म कैसे कर दिया था मैंने, वह भी बिना रोज़ी की सहमति के ! पहले फोन पर बात करूँ, फिर जाऊँगा मिलने, दिल से पश्‍चात्‍ताप करने कि- जो कुछ हुआ उसके लिए वह गुनहग़ार है और माफ़ी के साथ ही, अगर रोज़ी चाहे तो सज़ा भुगतने को भी तत्‍पर है, वह चाहे जो भी सज़ा दे । बस एक मौक़ा उसे मिल जाए माफ़ी का, अब इस बेचैनी को और सहन नहीं कर पाएगा वह । हालांकि अभी भी उसे यह नहीं पता कि उसका कोई परिवार है या नहीं यानी उसका मैरिटल स्‍टेटस क्‍या है । यह तो पता चल ही चुका है किसी प्राईवेट फ़र्म में काम कर रही है रोज़ी । लेकिन यह जॉब वह तो नहीं, जिसका उसने सपना देखा था ! जिसका जि़क़्र अक्‍सर उन दोनों के बीच हुआ करता था । लाख चाहने पर भी जॉन को रोज़ी के व्‍यक्तिगत जीवन के बारे में कोई ठोस जानकारी नहीं मिल सकी थी । जॉन सोच रहा था कि ये गूगल भी कमाल की चीज़ है, कभी तो, वह सब भी इतना कुछ बता देता है, जिसकी न दरक़ार होती है और न कल्‍पना में चाहत ही । और कभी-कभी कोई स्‍पेसिफि़क जानकारी मिलना या निकालना कितना मुश्किल हो जाता है । आधी रात बीत चुकी थी । आज कब यंत्रवत जॉन ने मैरी को डिनर के लिए मना कर दिया, उसे ख़ुद पता नहीं चला और मैरी ने भी जॉन को डिस्‍टर्ब नहीं किया उसके बाद । यह स्‍पेस ही था दोनों के बीच जिसे दोनों की दोस्‍ती ने मज़बूत किया था ।
जॉन कम्‍प्‍यूटर से उठ चुका था और यंत्रवत् ही बेड-रूम में बिस्‍तर पर जाकर लेट गया था । मैरी को नींद आ चुकी थी इन्‍तज़ार करते-करते और इसका गवाह था जलता हुआ टेबल-लैम्‍प । जॉन ने उसे बन्‍द किया और लेट गया कल सुबह के इन्‍तज़ार में जब वह फोन करेगा रोज़ी के ऑफि़स में और उस सिरे को पकड़ने की कोशिश करेगा जिसे उसने अचानक बीच में ही अपनी ही तरफ़ से काट दिया था । जॉन ने एक निश्‍चय और किया कि वह अपनी इस क़मज़ोरी, इस ग़ुनाह और जीवन के इस पहलू को शेयर करेगा अपनी बचपन की दोस्‍त और पत्‍नी मैरी से । फिर चाहे जो हो- यह प्रायश्चित तो करना ही होगी । रोज़ी की नज़रों से तो गिर ही चुका होगा निश्‍चय ही और अब तैयारी थी कि वह मैरी की नज़रों के सम्‍मान को भी खो दे । शायद उसे यक़ीन था कि मैरी समझ लेगी उसे, आखि़र बचपन से जानती है उसे और शायद संभाल भी ले उसे । लेकिन यह शायद इसीलिए क्‍योंकि अब तक मैरी जॉन की हर चीज़ पर, उसकी इच्‍छा-अनिच्‍छा पर भी अपना सहज अधिकार समझती थी लेकिन क्‍या यह जानकर उसे कुछ अनधिकृत महसूस न होगा ! अपमानित तो महसूस करेगी ही, स्‍वाभाविक है यह । हो सकता है कि जॉन को अपने से अलग ही कर दे । क्‍या अब वह मैरी से अलगाव झेल पाएगा ? और उसकी क्‍या प्रतिक्रिया होगी, इसका अनुमान सुनिश्चित तौर पर नहीं लगाया जा सकता । आखि़र मानव-मन है, कब कैसे प्रतिक्रिया करे, यह तो किसी घटना की गंभीरता, उस के द्वारा पड़े संघात, प्रतिक्रियाओं के दौर का वह संघात-काल और उस व्‍यक्ति-विशेष की मानसिक क्षमता एवं अवस्‍था पर निर्भर करता है । हॉं जो उत्‍प्रेरक तत्‍व ( कैटालिस्‍ट ) भावना या भावुकता है वह उस क्रिया-प्रतिक्रिया की गति और परिणाम निर्धारित करने में सबसे महत्‍वपूर्ण हो जाता है । तो अब, पहले ग़ुनाह का प्रायश्चित पहले और दूसरे का बाद में । पहले वह रोज़ी से बात करेगा और माफ़ी भी मॉंगेगा । अगर वह मिलने की इजाज़त दे देती है तो ज्‍़यादा अच्‍छे ढंग से माफ़ी मॉग पाएगा । और फिर मैरी के पास आएगा । कहीं अपनी और मैरी की बसी-बसायी गृहस्‍थी ख़तरे में न पड़ जाए ! अब चाहे जो हो, जॉन तय कर चुका था कि प्रायश्चित तो करना ही है किसी भी कीमत पर । जॉन सोच रहा था- यह भी ख़ूब रही, जब चाहे ग़ुनाह करो और जब चाहे प्रायश्चित कर लो और कोई भी क़ीमत चुकाने को भी तैयार हो जाओ । आज भी वह वही पुरानी ग़लती तो दोहराने नहीं जा रहा, जो उसने लगभग डेढ़ दशक पहले की थी ! पहले रोज़ी के बिना अपनी जि़न्‍दगी का निर्णय ले लिया और आज मैरी के बिना प्रायश्चित का ही सही लेकिन फिर एकपक्षी निर्णय कर रहा है । उस समय ग़लत था, या आज ग़लत है ? वास्‍तव में कभी-कभी कोई एक ग़लती इतनी ग़लत होती है कि उसके बाद का हर क़दम उस दिशा में या उस दिशा की विपरीत दिशा में भी, किसी भी स्थिति में- सही हो ही नही सकता बल्कि ग़लत पर ग़लत, और फिर एक और ग़लत होता चला जाता है । कोई सोचता ही रह जाए कि रास्‍ता कहॉं था और अब मोड़ कहॉं है । रफ़ू हो सकता है एक कट, लेकिन वापस ताने-बाने में एकसार घुल-मिल की संस्‍कृति जी नहीं सकता फिर से । लेकिन इसका मतलब यह भी तो नहीं न कि ग़लत को शाश्‍वत ग़लत ही रहने तक जीया जाए ? उसे बेहतर रूप देने की कोशिश तो की ही जा सकती है, विकृत रूप को थोड़ा तो सुघड़ करने की ईमानदार कोशिश करनी ही चाहिए । जब जागे, तब सबेरा । कम से कम मेरी आत्‍मा को तो सुकून रहेगा । और क्‍या पता रोज़ी को जिन सवालों के जंगल में छोड़ आया था, उससे बाहर आने में उसका यह अभी भी अपरिहार्य कारण बना हो ? मुझ जैसे आत्‍मकेन्द्रित व्‍यक्ति को चीजें इतना कचोट सकती है तो रोज़ी का क्‍या हाल हुआ होगा ? कैसे झेल पाया होगा उसका कोमल मन इतना बड़ा आघात ! अगर कुछ और साल बाद पता चला तो क्‍या और बड़े अपराध-बोध में मर न जाएगा वह ? फिर हर्ज़ ही क्‍या है ? कुछ अच्‍छा करने के लिए किस और बात का इन्‍तज़ार करना चाहिए ? मन ही मन इसी ऊहा-पोह में डूबते-उतराते रात भर जॉन करवटें बदलता रहा सुबह के इन्‍तज़ार में ।
‘मौसम’ फि़ल्‍म ने उसके अन्‍दर के आदमी को झंझोड़ कर इनसान बना दिया था । वजहें और भी रही होंगी लेकिन ‘मौसम’ का यह अंतिम प्रहार आदम ‘जॉन’ को इनसान कर गया और पुनर्जीवित कर गया रोज़ी के ‘जान’ को । वाक़ई एक-एक बात रोज़ी की उसके कानों में इस तरह गूँज रही थी मानो 14 साल नहीं 14 दिन पहले की बात हो । ओ गॉड ! कैसे कर पाया वह ऐसा दोगलापन ? रोज़ी कैसे झेल पाई होगी अपनी ‘’जान’’ ( जॉन ) का दग़ा ? किसने संभाला होगा उसे ? अनाथाश्रम में पली रोज़ी के रिश्‍ते-नाते भी तो नहीं थे ! जो कुछ था ! बस जॉन यानी उसकी जान । कहती भी थी रोज़ी कि- ‘मुझे अपने जीवन से कोई शिक़ायत नहीं..... तुम जो हो ! हर रिश्‍ते को पूरा करते, हर रिश्‍ते का पर्याय । मॉं-बाप को तो कभी देखा नहीं लेकिन तुमसे मिलने के बाद यही लगता है कि गॉड को मुझे तुम्‍हारे जैसा जीवन-उपहार देना होगा तभी तो उसने मुझसे हर रिश्‍ते को दूर रखा ताकि मैं महसूस कर सकूँ तुम्‍हारी महत्‍ता को और ईश्‍वर के आशीर्वाद को ! मेरी दुनिया की 360 डिग्री का चक्र तुम से शुरु होकर तुम पर ही आकर ख़त्‍म हो जाता है जान !’ उसे तो सपने में भी यह आशंका नहीं थी कि मैं उसे यूँ ही बिसरा कर जीवित भी रह सकता हूँ । उसे गॉड भी कहता जाकर कि मैं बेवफ़ा हूँ, तो वह यकीन न करती । हे मेरे ईश्‍वर ! उसने यक़ीन भी कैसे किया होगा, स्‍वीकार भी कब कर पाई होगी कि मैं …………
जॉन की अंतरात्‍मा उसे धिक्‍कार रही थी कि उसे आज यह सब बातें समझ में आ रही हैं तो उस वक्‍़त कौन से पत्‍थर पड़े थे अक्‍ल पर ! मैरी तो बहुत ही अच्‍छी दोस्‍त थी, उसे समझाता तो आसानी से समझ भी जाती बल्कि उसके और मेरे मम्‍मी-पापा से सिफ़ारिश भी कर देती मेरी इस मामले में । फिर सब-कुछ तो परिवार ने निर्धारित किया था, न ही मैरी की और न ही मेरी ऐसी कोई प्‍यार वाली भावनाऍं थीं एक दूसरे के प्रति ! कहो ! आराम से सब कुछ ठीक हो सकता था समय के साथ जैसा रोज़ी चाहती थी और मैं ? हॉं ! मैं भी । शायद करियर और आर्थिक मसला न होता, तो मैं ऐसा ही करता । ख़ैर अब यह सब सोचने से क्‍या फ़ायदा ! इतिहास लिखा जा चुका है रोज़ी के और मेरे रिश्‍ते के वनवास का और उस वनवास की कहानी में रोज़ी सीता है तो मैं उस सीता का राम भी हूँ और रावण भी । उफ़्फ़ ! कैसे यह रात कटेगी ! अभी भी साढ़े पॉंच ही बजे हैं । अभी उठॅूंगा तो मैरी की नींद भी खुल जाएगी खटपट से । थोड़ी देर और सही । ओफ़्फ़ो ! ये घड़ी के कॉंटे भी एक-एक मिनट की दूरी कितने धीरे-धीरे तय कर रहे हैं ! रोज़ी कहती थी- जान ! पता है, मैं हर दिन मैं तुमसे एनर्जी लेती हूँ, अगले दिन के लिए ! जब तुम सामने होते हो तब भी और सामने नहीं होते हो तब भी । मन ही मन ध्‍यान में ! रोज़ी की किन-किन चीज़ों, चाहतों, आदतों, सपनों, इच्‍छाओं, कामनाओं, सफलताओं और पता नहीं किन-किन आयामों का हत्‍यारा हूँ, नहीं जानता । सोचकर घिन आती है । लेकिन अब वह समय आ गया है उससे मिलकर सब-कुछ के लिए माफ़ी मॉंगना है । वह माफ़ करे या न करे, यह उसका अधिकार है । जॉन को आगे एक-एक मिनट युगों के बराबर लग रहे थे । कब सुबह हो, कब वह ऑफि़स जाए और रोज़ी के भी ऑफि़स पहुँचते ही उससे बात करे ! अगर आज वह नहीं मिली ! हो सकता है, छुट्टी पर हो, या कोई और बात हो ! तो भी उसके कुलीग्‍स से घर का पता और पर्सनल नंबर तो मिल ही जाएगा । यह सब सोचते-सोचते जैसे ही घड़ी ने साढ़े छह बजाए, दैनिक अलार्म बजा जो मैरी अपने उठने के लिए लगाती है । रोज़ सात बजे मैरी के चाय लाने तक जॉन उठता भी नहीं है लेकिन आज बिस्‍तर छोड़ चुका है मैरी के उठते ही । जब तक मैरी चाय ले‍कर आई, नहा भी चुका था। मैरी ने प्रश्‍नसूचक नज़रों से देखा एक सेकेंड, फिर बात पलट दी । और बोली- जस्‍ट गिव मी टेन मिनट्स, ब्रेकफास्‍ट बना देती हूँ ! अब तक उसे समझ आ चुका था कि कोई गंभीर समस्‍या है और अब स्‍पेस के नाम पर उसे टाला नहीं जा सकता । लेकिन ऑफि़स जाने का वक्‍़त हो रहा था उसने सोचा चलो शाम को पूछती हूँ तसल्‍ली से । जॉन के भीतर क्‍या चल रहा है, यह जानना बेहद ज़रूरी हो गया था अब ।
पता नहीं जॉन ने कब ब्रेकफास्‍ट किया, कब गाड़ी में बैठा और 9 बजे वह अपने ऑफि़स के केबिन में था एक यंत्र-मानव यानी रोबोट की तरह । अब उसे इन्‍तज़ार था घड़ी के 10 बजाने का । इस बीच जॉन के दिमाग में रोज़ी, रोज़ी की बातें, गूँजती रहीं । वह योजना बनाता रहा यह कहेगा, वह कहेगा, यह पूछेगा, वह पूछेगा या कुछ नहीं पूछेगा बस कहेगा ’जान बोल रहा हूँ, तुमसे मिलना चाहता हूँ जीवन भर के पश्‍चाताप के लिए, माफ़ी मॉंगना चाहता हूँ अपनी निष्‍ठुरता, छल कपट और धोखे के लिए । घर ....... या ऑफि़स आऊँ !......... और जाने क्‍या क्‍या ।
जॉन ने देखा घड़ी में सुबह के 10.10 बजने में दो मिनट बाकी थे । यही तो समय था, जब वह रोज़ी को फोन किया करता था और रोज़ी कहती थी 10.10 बजे को- स्‍माइलिंग टाइम । दो वजहों से- एक घड़ी के कॉंटों की अवस्थिति इस्‍माइल-शेप की तरह होती है और ख़ासकर दूसरी वजह थी उसकी जान यानी जॉन की आवाज़ रोज़ी के बुत में प्राण फॅूंक कर जीवन देती थी उसे । और रिज़ल्‍ट इन बोनस- रोज़ी के होठों पर 10.10 इस्‍माइल ! ‘’तो हुआ न कम्‍प्‍लीट स्‍माइलिंग टाइम !’’
जॉन की उंगलियॉं रोज़ी के ऑफि़स का नंबर डायल कर रही थीं । अपना केबिन पहले ही अंदर से लॉक कर चुका था जॉन । रिंग बज रही थी लेकिन जॉन का दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था कि उसे विश्‍वास नहीं हो रहा था कि रिंग बज रही है । जॉन अपने कानों को बंद करके ध्‍यान लगाकर रिंग को सुनने की कोशिश कर रहा था जैसे और समझने की कोशिश कर रहा था कि जब रिंग की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ रही है तो रोज़ी की आवाज़ और बातों को ध्‍यान से कैसे सुन पाएगा ! छह-सात रिंग के बाद किसी महिला ने फोन उठाया और कहा यस ! , हाऊ कैन आई हेल्‍प यू ? जॉन समझ चुका था, शायद रिशेप्‍सनिस्‍ट है फोन पर । जॉन ने कहा- कैन आई टॉक टू मिस्‍स रोज़ी प्‍जीज़ ? रिशेप्‍सनिस्‍ट ने पूछा- विच रोज़ी सर, कैन यू प्‍लीज़ टेल मी द सरनेम ? जॉन अचकचा गया । सरनेम ! क्‍या था ? उसे तो रोज़ी का फैमिली स्‍टेटस भी नहीं पता । कुछ गड़बड़ न जो जाए । अचानक ही उसके मुँह से निकला- मैडम, आई थिंक शी वॉ….ज़,.... शी इज़ रोज़ी डिमेलो । राइट सर, जस्‍ट होल्‍ड ऑन प्‍लीज़ ! वाइल आई ट्रांसफ़र योर कॉल । कैन आई नो, हू इज़ कॉलिंग ? रिशेप्‍सनिस्‍ट पूछ रही थी । जॉन ने जवाब दिया- आई एम जॉन दिस साइड, जॉन ब्रिगेंज़ा । उधर से जवाब आया- ओके सर, जस्‍ट अ मोमेंट प्‍लीज़ । फिर कुछ म्‍यूजि़क सुनाई देने लगा जो कॉल वेटिंग में सुनाई पड़ता है । कुछ ही देर बाद वही मीठी आवाज़ ( जो जे़हन में थी ) आई लेकिन उसमें वह जीवन्‍तता और चहक नहीं थी, जिसकी वह उम्‍मीद कर रहा था । एकदम सपाट लहजा, प्रोफे़शनिलिज्‍़म के साथ । येस, मिस्‍टर जॉन, आई एम रोज़ी, हाऊ कैन आई हेल्‍प यू ? जॉन की जान हलक में अटक चुकी थी । जॉन ने बोलने के लिए मुँह खोला लेकिन ग़ले से कोई आवाज़ बाहर नहीं आई । ‘तो क्‍या रोज़ी के मन में जॉन नाम का कोई ख्‍़याल भी नही अब ! नहीं, नहीं, उसे क्‍या पता 14 सालों बाद अचानक मैं उसे फोन करूँगा ! वह भी ऐसे ! लेकिन उसने अपना पूरा नाम भी तो बताया था रिशेप्‍सनिस्‍ट को ! क्‍या जान-बूझकर....... ! इस बीच रोज़ी की आवाज़ आई- हलो ! यस मिस्‍टर जॉन, टेल मी ! कोशिश करके जॉन के मुँह से आवाज़ निकली-रोज़ी ! सुनो ! मैं बोल रहा हूँ जान, जान ब्रिगेंज़ा ! ( जान-बूझ कर जॉन ने अपना नाम ‘जान’ उच्‍चारित किया था, यह बताने के लिए कि यह जॉन कोई अजनबी नहीं ) । इधर रोज़ी समझ चुकी थी कि यह वह ‘जान’ बोल रहा है जिसका पर्याय, अर्थ, मायने हैं-रोज़ी की 14 सालों में 14 हज़ार से भी ज्‍़यादा और तरह-तरह की मौतें । रोज़ी की तरफ से चुप्‍पी थी तीस सेकेंड्स तक और और बिन बोले, बिन देखे ख़ामोशियों के आयाम बात कर रहे थे, संवाद के माध्‍यम, शिक़ायतों की चीत्‍कार और माफ़ी के क़ातर अनुरोध बनकर । अव्‍यक्‍त संवाद किन्‍तु मुखर से भी अधिक मुखर ।
अचानक रोज़ी की वैसी ही संभली और सपाट प्रोफे़शनल आवाज़ आई- यस मिस्‍टर जॉन ब्रिगेंज़ा ! इज़ देयर एनी प्रोफे़शनल मैटर ? जॉन अब तक थोड़ा आश्‍वस्‍त हो चुका था कि शायद अब आगे बात हो जाएगी, लेकिन.... सोचकर बोला- नो रोज़ी ! वॉट कैन बी प्रोफ़ेशनल, आई वांट टू मीट यू, तुम्‍हारा अपराधी जो हूँ । जॉन को लगा अब रोज़ी की टोन में पर्सनल टच आएगा लेकिन रोज़ी अपनी उसी सपाट टोन में जॉन को शॉक दे रही थी । यू डिड नॉट अंडरस्‍टैण्‍ड मिस्‍टर ‘’जॉन’’ रोज़ी ने इस बार ‘’जॉन’’ पर और ज्‍़यादा ज़ोर दिया था । आई एम नॉट द रोज़ी, टू हूम यू वांट टू टॉक टू । गुडबाय मिस्‍टर जॉन । फिर से ‘’जॉन’’ काफ़ी ज़ोर देकर बोला गया था । न जाने कितने वोल्‍ट का क़ाफि़या लगाया गया था ‘जान’ पर; और फोन उस तरफ़ से रखा जा चुका था । पहले तो शायद यह लगा कि स्‍वाभाविक है कोई भी जॉन नाम का क्‍लाइंट हो सकता है लेकिन दूसरी, तीसरी बार भी ‘जॉन’ पहली बार अपना नाम रोज़ी के मुँह से या वैसे भी अजनबी लगा था उसे । जैसे वह खु़द अपना नाम पहली बार सुन रहा हो । जॉन के दिलो-दिमाग़ पर हथौड़े की तरह यह शब्‍द जॉन ! जॉन ! जॉन ! चोट मार रहा था । रोज़ी के उस ‘’जान’’ और इस ‘’जॉन’’ का सफ़र सहन नहीं कर पा रहा था जॉन । कहॉं तो सोचा था कि जानूँगा रोज़ी से कि कैसे बीती, क्‍या बीती उस पर और क्‍या अब खु़श है वह या अब भी कुछ कर सकता है जॉन रोज़ी का दोस्‍त के रूप में ही सही पुराना ‘जान’ बनकर, प्रायश्चित्‍त करके । लेकिन अब तो और बड़े प्रश्‍नों के जंगल में पहुँच चुका है जॉन । अब मैरी से भी क्‍या बात करेगा ! शायद यही उसकी सज़ा है, त्रिशंकु बनना और एक ऐसे आकाश में लटके रहना जिसका न विस्‍तार अपना हो और न धरती का सहारा ही हो ।
इतने वर्षों के अन्‍तराल के बाद भी जो नहीं आ पाया था वह क़ाफि़या अचानक अब जॉन और रोज़ी के बीच पहली और आखि़री बार ख़ामोश, लम्‍बा, गहरा और जो युगीन अजनबीपन का विराम बनकर पसर गया था पूरे अस्तित्‍व पर । और यह विराम इस बार जॉन के न चाहने पर भी लगाया था रोज़ी ने ‘जान’ पर एक क़ाफि़या रखकर। तो अब ‘जान’ जॉन बन गया है । मैं ‘जान’ नहीं, जॉन हूँ, मैं जॉन हूँ, जॉन हूँ । बुदबुदाते हुए जॉन टेबल पर सिर झुकाते जा रहा था कि अचानक एक तेज़ अचेतन सी आई उसे, और वहीं टेबल पर निढाल हो गया वह । चूँकि जॉन ने केबिन अंदर से लॉक कर रखा था, तो ऑफि़स के सब यही समझ रहे थे कि उनका बॉस आराम कर रहा है । लेकिन जब लंच तक भी कोई हलचल न दिखी और चूँकि आजकल के केबिन पारदर्शी होते हैं, कुछ अनहोनी की आशंका जानकर स्‍टाफ़ ने बग़ल के केबिन का दरवाज़ा खोला और जॉन के केबिन में प्रवेश किया था । जॉन का ‘बे-‘जान’ शरीर देखकर आनन-फ़ानन में डॉक्‍टर को बुलाया गया था । और डॉक्‍टर ने भी अन्‍तत: जॉन को बे-जान घोषित कर दिया था । मेडिकल टर्म में जॉन को हार्ट अरेस्‍ट हुआ था ।



यह रचना पुष्पलता शर्मा 'पुष्पी' जी द्वारा लिखी गयी है . आपकी आपकी विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक लेख ( संस्‍कारहीन विकास की दौड़ में हम कहॉं जा रहे हैं, दिल्‍ली फिर ढिल्‍ली, आसियान और भारत, युवाओं में मादक-दृव्यों का चलन, कारगिल की सीख आदि ) लघुकथा / कहानी ( अमूमन याने....?, जापान और कूरोयामा-आरी, होली का वनवास आदि ), अनेक कविताऍं आदि लेखन-कार्य एवं अनुवाद-कार्य प्रकाशित । सम्‍प्रति रेलवे बोर्ड में कार्यरत । ऑल इंडिया रेडियो में ‘पार्ट टाइम नैमित्तिक समाचार वाचेक / सम्‍पादक / अनुवादक पैनल में पैनलबद्ध । कविता-संग्रह ‘180 डिग्री का मोड़’ हिन्‍दी अकादमी दिल्‍ली के प्रकाशन-सहयोग से प्रकाशित हो चुकी है ।

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क़ाफि़या मौसम का / पुष्पलता शर्मा की कहानी
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