अभिव्यक्ति की भाषा

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प्रत्येक व्यक्ति की पहली पाठशाला उसकी माता होती है. इसीलिए उसकी प्रथम भाषा भी मातृभाषा होती है. यहाँ यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि यहाँ मातृभाषा का तात्पर्य पीढ़ियों से चली आ रही पारिवारिक भाषा से नही लगाया जाना चाहिए. मातृ भाषा का सही तात्पर्य उस भाषा से लगाना चाहिए, जिस भाषा में माता अपने आपको व्यक्त करने में सबसे सक्षम पाती है. ज्यादातर हालातों में बच्चे का पहला संवाद भी माता से ही होता है. इसीलिए उसके विचारों का व्यक्त करने का सशक्त माध्यम मातृभाषा ही होती है.

                       अभिव्यक्ति की भाषा

प्रत्येक व्यक्ति की पहली पाठशाला उसकी माता होती है. इसीलिए उसकी प्रथम भाषा भी मातृभाषा होती है. यहाँ यह जानना बहुत ही आवश्यक है कि यहाँ मातृभाषा का तात्पर्य पीढ़ियों से चली आ रही पारिवारिक भाषा से नही लगाया जाना चाहिए. मातृ भाषा का सही तात्पर्य उस भाषा से लगाना चाहिए, जिस भाषा में माता अपने आपको व्यक्त करने में सबसे सक्षम पाती है. ज्यादातर हालातों में बच्चे का पहला संवाद भी माता से ही होता है. इसीलिए उसके विचारों का व्यक्त करने का सशक्त माध्यम मातृभाषा ही होती है.
ऐसे किस्से सुनने में आते हैं कि अपने क्षेत्र से कई वर्षों तक बाहर रहने के कारण मातृभाषा के साथ - साथ वह अपने निवास स्थान की भाषा (स्थानीय) भी सीखता है, जो उसके दैनंदिन की भाषा होती है. घर में मातृभाषा एवं बाहर स्थानीय भाषा का प्रयोग करता रहता है. एक उम्र के बाद स्थानीय भाषा पर उसकी पकड़ मातृभाषा की अपेक्षा अधिक हो जाती है और वह अपने विचारों को मातृभाषा की अपेक्षा, इलाके की भाषा में व्यक्त करने में ज्यादा सक्षम हो जाता है. ऐसा नहीं कि इससे उसकी मातृभाषा बदल जाती है पर उसकी पकड़ मातृभाषा की अपेक्षा दूसरी भाषा में अधिक हो जाती है. जब ऐसों (लड़के / लड़कियों या स्त्रियों) के घर बच्चे होते हैं तो उनकी भाषा पारंपरिक मातृभाषा न होकर, बच्चे की मातृ-भाषा हो जाती है. इस तरह पारंपरिक मातृभाषा केवल रिकार्ड में रह जाती है और पकड़ वाली भाषा कोई और हो जाती है. अच्छा होगा कि हम पारंपरिक मातृभाषा व व्यावहीरिक मातृभाषा में अंतर को समझें एवं व्यावहारिकता को ज्यादा महत्व दें. आज भी कुछ घरों में ऐसा होता है कि बुजुर्ग पारंपरिक मातृभाषा के पक्षधर होते हैं और अपने पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्रों को पारंपरितक मातृभाषा सिखाने पर जोर देते हैं. यह बात वहां तक तो सही होती है जब वह अपनी व्यावहारिकताओं से परे पारंपरिक मातृभाषा सीखता है लेकिन .यदि वह केवल पारंपरिक मातृभाषा ही सीखता है तो यह उसकी उन्नति में घातक हो सकता है. इन बातों पर विचार करना बहुत ही जरूरी हो गया है.
मैंने कईयों को ऐसा कहते सुना है कि – “हम भारतीय हिंदी में सोचते हैं और अपनी साख बनाने की होड़ में अंग्रेजी में बोलते व लिखते हैं. अंग्रेजी में पकड़ कम होने के कारण हम भाषायी गलतियाँ कर बैठते हैं और कभी कभार तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है”. कुछ औरों का मानना है कि – “हर व्यक्ति अपनी मातृभाषा में सोचता है और किसी एक भाषा में जिसमें वह अपने आपको व्यक्त कर सकता है, बात करता है”. मेरा मानना है कि – “सोच की कोई भाषा नहीं होती. बोली (मौखिक) और भाषा (लैखिक) मात्र व्यक्त करने का माध्यम ही है. हमारी पकड़ जिस भाषा पर ज्यादा होगी, उस भाषा में हम अपने आपको भली-भाँति व्यक्त कर पाते हैं”. यदि हिंदी की पकड़ वाला व्यक्ति अंग्रेजी में अपने आपको व्यक्त करने की कोशिश करेगा तो स्वाभाविक है कि उसके विचार उतने साफ व्यक्त नहीं हो पाएँगे, जितना कि वह हिंदी में कर सकता है. इसका कारण मात्र यह है कि हिंदी में पकड़ के कारण पहले वह अपने आप को हिदी में व्यक्त करने की तैयारी कर लेता है और उसके बाद अपने हिंदी वक्तव्यों को अंग्रजी या किसी और भाषा में अनुवाद करने की कोशिश करता है. अनुवाद के दौरान पकड़ की कमी के कारण वह गलतियाँ कर बैठता है. इस समय उसके विचार में यदि ऐसी धारणा हो कि अंग्रेजी में व्यक्त करना शान की बात है, तो वह गलतियाँ करके भी अपने आपको श्रेष्ठ समझेगा, जबकि श्रोता पीठ पीछे उस की बे-अक्ली पर हँसते रहेंगे. हाँ यदि पकड़ दोनों भाषा में समान हो तो वह दोनों भाषाओं में अपने आपको समान रूप से व्यक्त कर पाएगा. यहाँ हिंदी और अंग्रेजी को उदाहरण स्वरूप लिया गया है और यह तथ्य किन्हीं  भी दो या अधिक भाषाओं पर लागू होता है.
हिंदी भाषी राज्य का व्यक्ति जिसकी मातृभाषा भी हिंदी ही है, उसके लिए हिंदी ही सबसे सरल भाषा होगी. लेकिन संभव है कि आँध्र में बस चुके हिंदी मातृभाषी व्यक्ति के लिए तेलुगु भाषा ज्यादा सार्थक सिद्ध होगी. किसी भी व्यक्ति के लिए श्रेयस्कर होता है कि वह अपने आपको उसी भाषा में व्यक्त करने की कोशिश करे या व्यक्त करे, जिस भाषा पर उसकी सबसे ज्यादा पकड़ है. श्रोता उस भाषा को समझें यह भी आवश्यकता है. इसलिए ऐसी भाषा को चुना जाए, जिससे वक्ता अपने को सही व्यक्त कर सके व श्रोता अच्छी तरह समझ सकें.
जब किसी को अपने पड़ोसी से कोई काम होगा तो वह उनसे संवाद करने के तरीके ढूंढेगा. एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होगी जो दोनों बोल समझ लें. वैसे ही जब किसी नए जगह पर व्यापार फैलाना हो या सामान बेचना हो तो वहाँ के लोगों से संवाद के तरीके ढूंढने होंगे. इसी तरह जब किसी दूसरे प्रदेश में पैसा कमाने (या कहें नौकरी करने जाना हो तो वहाँ की भाषा का ज्ञान पाना पड़ेगा. यह सब जिंदगी के यथार्थ और मजबूरियाँ हैं. कोई भी व्यक्ति एकदम अकेला या एकाकी नहीं जी सकता.
बचपन में हमारे मुहल्ले में एक ऐसा परिवार रहता था जिसमें पत्नी तामिल बोल पढ़ लिख लेती थी, पर पति केवल समझ पाता था. पति तेलुगु बोल पढ़ लिख लेता था, पर पत्नी केवल समझ पाती थी. अंजाम यह था कि रूबरू संवाद तो आसानी से हो जाता था लेकिन दूसरी जगह से संवाद प्रेषण में तकलीफ होती थी. घर में बच्चे थे पर एक दूसरे की चिट्ठी बच्चों से पढ़ाने में शर्म या कहें झिझक होती थी. इसलिए वे ऐसी  चिट्ठियाँ पास के किसी भरोसे मंद बच्चे से पढ़वाया करते थे. बच्चा यदि उन बातों के समझता हो , तो उसे भी पढ़ने में संकोच होता था. अक्सर छोटी उम्र केबच्चे यह सब समझते नहीं थे और चिट्ठी यथावत पढ़कर सुना दिया करते थे. कम से कम 10-12 साल हमने परिवार को ऐसे ही फलते फूलते देखा.  इससे फायदा यह हुआ कि उनके बच्चे तेलुगु व तामिल दोनों सीख गए.
अब सवाल आता है इस तरह आदमी कितनी भाषाएँ सीखे ? इसलिए  वह ऐसी भाषाएँ सीखना पसंद करता है जिससे ज्यादा से ज्यादा इलाके में और विषय पर संवाद कर सकता है. उत्तर भारत में हिंदी के अलावा कोई ऐसी भाषा आज की तारीख में तो नहीं है. दक्षिण भारत में लोग पड़ोसी राज्य की भाषा बोल समझ लेते हैं किंतु यह सारे दक्षिण के लिए एक भाषा का काम नहीं कर पातीं. इसलिए ज्यादातर लोग अंग्रेजी की तरफ भागते हैं, जो करीब - करीब सारे दक्षिणी शहरों में काम कर जाती है. यही नहीं कुछ हद तक उत्तर भारत में भी कामयाब है. जब किसी को उत्तर भारत में रहना पड़े तो उसके लिए हिंदी के अलावा कोई चारा ही नहीं है, लोग ऐसी हालातों में हिंदी सीखते हैं.
हो सकता है कि मेरी भी हालत ऐसी ही रही होगी. बल्कि मेरे साथ तो उल्टा है. पहले मैंने हिंदी स्कूल में पढ़ाई की और फिर घर के बुजुर्गों के दबाव में मुझे तेलुगु स्कूल में पढ़ाया गया. मुझे दोनों भाषाएं आ गईं. अंग्रेजी तो छटवीं के बाद शुरु होती थी. किंतु अभियाँत्रिकी के दौर में अंग्रेजी सीखनी ही पड़ी.
पूरी स्कूल के दौरान हिंदी का ही वर्चस्व रहा. इतना ज्यादा कि हम बच्चे जब आपस में बातें करते थे, तो घर के बड़े डाँटते थे कि मातृभाषा में क्यों बात नहीं कर सकते. जो पाठक तेलुगु और हिंदी दोनों समझते हैं उनके लिए बाताना चाहूंगा कि किस तरह से झिड़कियाँ पड़ती थी. बड़े झल्लाते थे कि क्या भाषा बना रखी है  “कागु ले कौव्वा हगाइंचिंदी” सही तेलुगु वाक्य होगा “कागु लो काकि रेट्ट वेसिंदी” या पूरी हिंदी में कहें – “कौवे ने हाँडी में हग दिया”. आज यही हाल हिंग्लिश की वजह से है. लेकिन भाषा के प्रति किसी की भी श्रद्धा नहीं होने से कोई न टोकता है न पूछता है. इस तरह हिंग्लिश एक सर्वप्रिय खुशमिजाज भाषा बनकर उभरी है. किसी से कहें कि किसी एक भाषा में वह आधे घंटे संवाद करे तो बिफर जाएगा. खैर भाषाओं के प्रति मेरे स्नेह ने मुझे और भी भाषाओं को सीखने को प्रेरित किया.
(वैसे इसके मेरी कंपनी का बहुत योगदान है कि उन्होंने मेरा तबादला जगह - जगह इस तरह किया कि मैं नई – ऩई भाषाएं सीख सका. मैं तो इंडियन ऑयल को इसका पूरा श्रेय देते हुए व हार्दिक धन्यवाद देता हूँ.)
चलिए मुद्दे पर लौटते हैं.  इसी तरह के बंधनों के कारण जो लोग कंप्यूटर विधा की पढ़ाई कर रहे हैं उन्हें लगता है कि इस विधा में जो नौकरियाँ हैं, चाहे वह देश में हो या परदेश में – उनमें अंग्रेजी के अलावा काम नहीं हो सकता. आज की तारीख में भी भारत में कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का काम अंग्रेजी में ही हो रहा है. इसलिए कंप्यूटर विधा के लोगों को अंग्रेजी सीखने अनिवार्य़ता हो गई है. भले वह अंग्रेजी में पारंगत या पंडित न हो पर विषय की जरूरत के अनुसार वह अंग्रेजी सीख लेता है. उसकी सबसे मजबूत भाषायी पकड़ अंग्रेजी में नहीं होगी.
रंगराज अयंगर
अब हालातों से मजबूर व्यक्ति करे तो क्या कर. पेट भरने के लिए कमाना पड़ेगा. हर कोई कोशिश तो करता ही है कि ज्यादा से ज्यादा कमाया जा सके. और उसी ध्येय से जिंदगी में आगे बढ़ता है. इसमें किसी की क्या दोष – हालात का मारा क्या न करता.
ऐसा होता है कि दोनों की भाषाओं के भेद के कारण एक तीसरी भाषा चुनी जाए. दक्षिण का नेता उत्तर भारत में आकर हिंदी न आने पर अंग्रेजी में बोलता है. गुजराती नेता बंगाल में जाकर हिंदी में बोलता है. बहाने पचास बनाईए कि हिंदी राजभाषा है. लेकिन वही नेता जब गुजरात में बोलता है (तब भी तो हिंदी राजभाषा है), तो वह गुजराती में बोलता है. मतलब राजभाषा से नहीं है, मतलब इससे है कि वह श्रोताओं के समक्ष किस भाषा में अपने आपको बेहतर व्यक्त कर सकता है.
अब रा,ट्र के परिप्रेक्ष्य में यह बात आ ही जाती है कि कुछ ऐसा किया जाए कि राष्ट्रजन राजभाषा के पक्षधर हो जाएं. उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान देते हुए कुछ ऐसा करना होगा कि लोगों का झुकाव राज भाषा की तरफ हो जाए. इसके भिन्न – भिन्न तरीकों पर विचारने से लगता है कि उत्तर भारत में किसी प्रकार की कोशिश की आवश्यकता नहीं है केवल हिंदी के प्रति रुझान बढ़ाने की आवश्यकता है. हिंदी को समृद्ध करते जाएं तो लोगों का रुझान अपने आप बढ़ने लगेगा.
जहाँ तक अन्य प्राँतों की बात है,उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा कि हिंदी के बिना ज्ञानार्जन संभव नहीं है. इस लक्ष्य को पाने हेतु हमें हिंदी को आज की अंग्रेजी के समतुल्य लाकर खड़ा करना होगा. और उसे पाने कते लिए हिंदी भाषियों को जी तोड़ मेहनत पूरी लगन से करना होगा. साथ ही हिंदी के कुनबे को बढ़ाते हुए उन सबका साथ पाना होगा. जो लोग हिंदी-एतर भाषी हैं, उन्हें साथ लेकर उनकी भाषाओं के ज्ञान को हिंदी में उपलब्ध कराना होगा.
इस तरह व्यक्ति की भाषा से राष्ट्र की भाषा को जोड़ना होगा और इस विधा से दोनों यानी जन सामान्य और राष्ट्र वृद्धि और समृद्धि की सोपान पर साथ साथ चल सकेंगे.
यह रचना माड़भूषि रंगराज अयंगर जी द्वारा लिखी गयी है . आप इंडियन ऑइल कार्पोरेशन में कार्यरत है . आप स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में रत है . आप की विभिन्न रचनाओं का प्रकाशन पत्र -पत्रिकाओं में होता रहता है . संपर्क सूत्र - एम.आर.अयंगर. , इंडियन ऑयल कार्पोरेशन लिमिटेड,जमनीपाली, कोरबा. मों. 08462021340

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