वापसी / भूपेन्द्र कुमार दवे की कहानी

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उस रात जब अचानक नींद टूटी तो देखा कि बैडोल खिड़की से सड़क के लैंप-पोस्ट से आती रोशनी में कमरे में फैली गरीबी हमेशा की तरह डरी-डरी सी ...

उस रात जब अचानक नींद टूटी तो देखा कि बैडोल खिड़की से सड़क के लैंप-पोस्ट से आती रोशनी में कमरे में फैली गरीबी हमेशा की तरह डरी-डरी सी सकपकाती नजर आयी। विकृतियों से भरी तस्वीर-सी आईने पर उतर आयी थी मेरी गरीबी, जिसके सामने खड़ा मैं अपने तीन दिन से भूखे चरमराते शरीर को देख रहा था। बाहर एक आवारा कुत्ते की भोंकने की आवाज सन्नाटे की परतों से टकरा रही थी। कौन जाने, कौन शैतान इतनी रात गये सड़क पर घूम रहा था ?
शैतान का ख्याल आते ही मन खीज उठा। उस कम्बख्त सेठ के सामने मैं कितना गिड़गिड़ाया था, पर पसीजना तो दूर -- उसने दो जून मिलने वाली रोटी पर भी रोक लगा दी थी। स्साला मजदूरी तो देता नहीं, ऊपर से कोसता है। कहता है कि मजदूरी के पैसे जायेंगे कहाँ, तिजौरी में रखे हैं, ले लेना अपने बुरे दिनों में। मैं मन ही मन बुदबुदाया था, अबे बता सेठ ! मेरे बुरे दिन और कितने बुरे होंगे।
मैं हताश हो सोचता रहा कि इन बिखरे आँसुओं में वो लस कहाँ जो टूटे अरमानों के तिनकों को जोड़ सके। असंतुष्ट, लक्ष्यहीन जिन्दगी का सूनापन, खोखलापन -- आत्मिक रूप से मृतक व्यक्तित्व को ही जन्म देता है। और पनप उठती है दुखी, पराजित और निराशात्मक मनःस्थिति जो दर्द के सैलाब से दूर थपकियाँ देकर सुला रही गरीबी को भी झकझोर देती है। एक विचार यह भी आया कि कैक्टस की तरह जिन्दगी हर मौसम में जीवित तो रहती है तो फिर क्यूँ नैतिक अंधेपन का दुख झेलने को मजबूर करूँ अपने आप को।
उस रात कई ख्याल आये और मोम की तरह पिघल गये, पर गरीबी का अहसास जौंक की तरह चिपका रहा। विद्रोह की भावना जाग उठी। ऐसा आभास हुआ कि विचार पापग्रस्त हो कर्म को जगा रहे हैं। अबे सेठ, तिजौरी के पैसे अगर मुझे ही लेना है तो आज ही क्यूँ न ले लूँ। याद रख कि गरीबी वह सोम रस है जिसे गुनाहों के सोड़े में मिलाकर पीने से अपचन का आभास नहीं होता। और यह भी समझ ले कि मात्र गरीबी ही मनुष्य को चोर, उच्चक्का नहीं बनाती। इसकी बहुत कुछ जिम्मेदारी उन हालातों की होती हैं जिसमें गरीबों को ढ़केल दिया जाता है तुम जैसे सम्पन्नों द्वारा। आदम को सेव खाने की मनाही थी इसलिये उसने सेव खा लिया क्योंकि वह सम्पन्न था। अगर वह गरीब होता तो सांप को ही खा गया होता।
भूपेन्द्र कुमार दवे
इन विचारों ने एक स्फूर्ति जगा दी और मैं बाहर सड़क पर आ गया। मुझे देखकर मेरी गरीबी को कोसनेवाला वह रातभर भोंकनेवाला कुत्ता भी यकायक ऊपर मुंह उठा रोने लगा। पर गरीब का निश्चय दृढ़ होता है जो नाग की तरह बाम्बी से बाहर आते ही सरपट भागने लगता है।
सुनसान सड़क पर मैं अकेला बढ़ता चला। मेरे साथ था तो बस मेरा बदहवास मकसद जो सेठ दीनदयाल की हवेली में जाकर तिजौरी पर कब्जा करना चाहता था और दूसरा वह चाकू जो कामयाबी के अंतिम बेबस क्षणों में मेरा सलाहकार बनने को आतुर था। सड़क के दायें-बायें खड़े मकान सन्नाटे की गोद में पड़े ऊँघ रहे थे। दरख्तों पर करवट बदलती हवा अपनी सिसकारियों से यदाकदा मुझे चौंका देती थी। बाकी सब अंतरिक्ष की गहराइयों को समेटे शून्य की तरह था। तभी कुछ तेज चलती हवा ने मंदिर के खुले द्वार से प्रवेश कर घंटियों को झकझोर दिया। खामोशी को भंग करती घंटियाँ झनझना उठी और मंदिर में जलते दीप की लौ भी एकबारगी काँप उठी।
मैं पलभर रुक गया। किसी की परछाई दीपक के लौ के सामने खड़ी थी -- एक चश्मदीद गवाह की तरह जो मुझे झकझोर देने को काफी थी। सच मानिये, गरीबी और गुनाहों के बीच मंदिर के देवताओं की परछाई विकृत-सी लगती है। मैं जल्दी से आगे बढ़ा पर वह आकृति मेरा पीछा करती रही। मैं रुकता तो वह आकृति भी रुक जाती। मैं तेज चलता तो उसके कदमों में भी तेजी आ जाती। डर अंधेरे में ही चमकता है और उसकी रोशनी में हरेक साया शैतान का सा नजर आने लगता है। मैं करीबन दौड़ने लगा था। पर मैं जितनी तेजी से दौड़ता वह भी उतनी ही तेजी से फासला तय करता। विवश हो मैं छलांग लगाकर झाड़ियों में छिप गया। वह आकृति भी जान-बूझकर एक लेंप-पोस्ट की रोशनी में आकर रुक गई ताकि मैं उसे ठीक से देख, समझ सकूँ। मैंने देखा तो पलभर विश्वास नहीं हुआ। पूर्ण  अलंकारों से सुसज्जित वह ईश्वर की आकृति धारण किये था। उसके चेहरे पर वही चिर परिचित मंद मुस्कान थी जो अनादि काल से मनुष्य को भ्रमित करती रही है। वही सरल मुद्रा जो हम गरीबों की परेशानियों और प्रताड़नाओं को सहज भाव से देखने की आदी हो चुकी है। आशीर्वाद देने को लालायित उसके हाथ ऊपर उठे थे पर उस पर की भाग्य की रेखा तो सदा भाग्यवानों को, धनवानों को दिखती रही है, हम गरीबों को कहां !
पल भर के लिये मेरा जालों से भरा व्यक्तित्व झाड़ियों में बिंध गया। हे ईश्वर! मुझे मत रोको। आकाश में उड़ते पक्षियों के पर काटे नहीं जाते। पैरों को जंजीरों से ऐसा मत जकड़ कि मैं अपने टुकड़े-टुकड़े जीवन की लाश के बिखरेपन को समेट भी न सकूँ। मेरी छोटी-सी इस खुशी --- वेदना से म्लान खुशी को तहस-नहस न होने दे। हे ईश्वर! तू जिस धर्म की ओर मुझे खींचना चाहता है वह गरीबों के रेडियो-एक्टिव शोरबा में उबाल कर बनाया एक पकवान है, जिसका सेवन मुझे अंधा कर देगा और तब तू मुझ अंधे को आँख की रोशनी देने का स्वाँग रचाकर अंधेरी कोठरी में कैद कर जावेगा।
ईश्वर रूपी उस आकृति को देखकर मेरे इरादों के मजदूर हड़ताल कर बैठते, पर इसके पहले मैं झाड़ियों से बाहर कूद कर पूरी शक्ति से दौड़ पड़ा। सच है, दुविधा के समय भावनाओं के बंधन से मुक्ति ही स्फूर्ति का माध्यम बन जाती है। मैंने एक दो बार पलट कर देखा। इस दौड़ में ईश्वर रूपी आकृति के अलंकार सड़क पर गिर रहे थे। सिर का मुकुट भी गिर गया था। मैंने सोचा शायद वह मुकुट उठाने रुक जावेगा और मैं आगे गली में घुस जाऊँगा। पर उसको तो अपने किसी अलंकार, यहाँ तक कि कीमती मुकुट को उठाने की परवाह न थी। उसे तो मेरा पीछा करने की ही धुन थी। मैंने सोचा, सच है ईश्वर की इच्छा को कौन भंग कर सकता है।
मरे हुए साँप की तरह पसरी सड़क आखिरकार हवेली तक पहुँच गई। मैं एक छलांग में फेंसिंग पार कर दुबक कर बैठ गया। चारों ओर एकदम सन्नाटा था। मेरा पीछा करने वाले कदमों की आवाज भी यकायक थम गई। मैंने उचक कर देखा। सड़क दूर तक सूनसान थी। चौकीदार शायद ऊँघ रहा था। मैं एकदम स्वतंत्र था। हवेली का मुख्य द्वार भी खुला था। आगे सभी दरवाजे जैसे मेरा स्वागत करने खुले पड़े थे। मैं बेहिचक बढ़ता गया, हर पल ईश्वर को धन्यवाद देता हुआ। साथ ही यह विचार आया कि कहीं मेरे पीछे आने वाली ईश्वर  की आकृति का ही यह करिष्मा तो नहीं है। ये विचार आते ही मैंने ईश्वर को लाख शुक्रिया अदा किया।
शयनकक्ष में सेठ गहरी नींद में थे। उनके सिरहाने पड़ी चाबी जैसे मुझे निमंत्रण दे रही थी। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। चाबी उठाकर मैं दबे पाँव तिजौरी की ओर बढ़ा ही था कि सेठ जी उठ बैठे। ‘कौन है?’ यह उनकी आवाज रात के तने हुए सन्नाटे पर तैरती हुई गूँज में परिणित होने लगी। कमरे में फैले मद्धिम प्रकाश में उन्होंने मुझे पहचान भी लिया। कौन ? रा र र। वे रामू कह पाते या और कोई आवाज लगाते, इसके पहले मैंने चीते की तरह पैतरा बदला और अपने दोनों हाथों की गिरफ्त में उनका गला दबोचना चाहा। किन्तु दूसरे ही क्षण उनकी छटपटाहट के साथ ही मेरी पकड़ ढ़ीली पड़ गई। मैंने देखा कि मेरे हाथों के बीच ईश्वर का चेहरा था। हाँ, उसी ईश्वर का जो मेरा पीछा किये आ रहा था, अपनी चिरपरिचित मुस्कान लिये। मैं उछलकर पीछे हटा। मैंने फुर्ती से चाकू हाथ में थाम लिया और दरवाजे की ओर लपका। एक धुंध-सी आँखों के सामने छा गई जिसकी परतों को चीरता मैं बदहवास-सा भाग खड़ा हुआ।
चारदीवारी आसानी से लाँधकर मैं सड़क पर पहुँचा। एक नजर चारों ओर घुमाई। कहीं कोई नहीं था। खामोशी का लिबास पहने प्रकृति पूर्ववत शांत, गंभीर, अपलक मुझे देख रही थी। मैं भारी कदमों से लौट रहा था अपने घर की ओर। तभी विचार आया कि ईश्वर के आभूषण रास्ते पर पड़े होंगे। क्यों न इन्हैं बटोर लूँ। मालामाल हो जाऊँगा। यहाँ कोई नहीं है जो मुझे रोक सके। दूर से ईश्वर के आभूषण की चमक दिख रही थी पर जब मैं उनके पास पहुँचता तो दिखते मात्र सूखे पत्ते जो हवा के हल्के झोंकों में उड़कर आगे बढ़ने का अभिनय कर सुस्त पड़ जाते थे। मैं अपनी किस्मत को कोसता भी तो कैसे ? मेरी किस्मत अखबार तो नहीं थी, जिसे पढ़कर मैं सड़क पर निकला था। मैं सड़क पर आँख गड़ाये, गर्दन झुकाये चलता रहा।

देखता हूँ कि सड़क पर ईश्वर का मुकुट शुष्क पत्तों के नीचे दबा पड़ा है। मैंने उसे उठा लिया और आगे बढ़ा। मंदिर का द्वार पूर्ववत खुला था। अंदर दीपक की लौ सड़क पर से अब भी साफ झलक रही थी और उसके सामने एक आकृति थी -- लौटती हुई अपने स्थान पर वापस पहुँचती हुई। मैं उसे उसका मुकुट वापस करने बढ़ता, किन्तु तभी महसूस करता हूँ कि मेरी हथेली पर कोई मुकुट नहीं ---मात्र मेरा आत्माभिमान, मेरा आत्मविश्वास, मेरा जमीर, मेरा धर्म अपनी पूर्व आभा को समेटे वापस लौट आया था, मेरी हथेली में। और मेरी गरीबी इन्हीं अलंकारों से सुसज्जित मेरे अन्तर्मन में ईश्वर को धन्यवाद देती मुझ पर गर्व करती मुस्कुरा रही थी।

यह रचना भूपेंद्र कुमार दवे जी द्वारा लिखी गयी है. आप मध्यप्रदेश विद्युत् मंडल से सम्बद्ध रहे हैं . आपकी कुछ कहानियाँ व कवितायें आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुकी है . 'बंद दरवाजे और अन्य कहानियाँ' ,'बूंद- बूंद  आँसू' आदि आपकी प्रकाशित कृतियाँ है .

COMMENTS

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  1. विपन्नता से उठा हुवा विद्रोह सम्पन्नता पर समाप्त होकर नए विद्रोह को जन्म देता है.....

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  2. bahut acchi kahani , man ko choo leti hai .

    sandeep sharma

    जवाब देंहटाएं
  3. मार्मिक रचना है . ह्रदय को छू लेती है .

    .रजत सिंह.

    जवाब देंहटाएं
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