हर हाथ में मोबाइल/विचार मंथन

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मनोज सिंह ,विचार मंथन

मनोज सिंह 
आधुनिक काल ने मानव जाति को बहुत कुछ दिया है। अनेक किस्म की भौतिक सुख-सुविधाएं। कुछेक को देखकर तो अचरज होता है, आश्चर्य में उंगली भी काटी जा सकती है। लेकिन इसने बदले में कितना कुछ हमसे वापस छीन लिया है, यह हमें सीधे-सीधे दिखाई नहीं देता। इसके उजले पक्ष की कृत्रिम चमक तो नजर आती है मगर दूसरी तरफ अंधेरा सब छिपा लेता है। तभी तो आंखों पर पड़े पर्दे को हटाने पर जो दृश्य उभरकर सामने आता है उसका बयान करना आसान नहीं। ये सच अत्यंत कड़वा ही नहीं जहरीला भी है। कहीं-कहीं तो यह दिल ही नहीं दिमाग को भी झकझोर देने के लिए काफी है। यह जाने-अनजाने ही जीव-रस को निचोड़कर जीवन के सारे उत्साह को समाप्त कर देता है। यह हमारी सारी बुद्धिमत्ता को कुंद कर हमें एक जिंदा मशीन बना देता है और हम स्वयं पर हंस और रो भी नहीं सकते।
एक उदाहरण लेते हैं। आज बच्चे, बूढ़े, बड़े, गरीब-अमीर, पढ़े-लिखे, अनपढ़ हर हाथ में मोबाइल आ गया है। यह देखकर कितना अच्छा लगता है। हमारे तथाकथित विकास के पैमाने का यह एक प्रमुख सूत्र भी है। इतना ही नहीं, यह अब आधुनिकता की पहचान नहीं रहा, बल्कि हमारी मूलभूत जरूरतों में आ गया है। इसके समर्थन में कहा जाता है कि जब चाहो, जिससे भी चाहो, जहां भी चाहो, जितना चाहो, हम बात कर सकते हैं। स्पष्टीकरण दिया जाता है कि इसके माध्यम से हमारा संपर्क अपनो से बना रहता है। मगर क्या यह वास्तव में सच है? क्या हम ऐसा करते हैं? क्या ऐसा हो रहा है? ये कुछ एक सवाल देखने में आसान जरूर लगते हैं मगर इनका जवाब देना सरल नहीं। बहुत कम प्रतिशत अपवादों को छोड़ दें तो सामान्य रूप से बेटा मां-बाप से, भाई भाई से, पति-पत्नी आपस में, कुछेक दो लाइन की जरूरी बातचीत, जैसे कि 'मैं पहुंच गया', 'तुम ठीक हो', 'सब ठीक है' आदि-आदि के अतिरिक्त कुछ अधिक बातें नहीं की जाती। कभी-कभी तो एसएमएस के दो-चार शब्दों से काम चला लिया जाता है। वो भी अधिकांश केस में मजबूरीवश। क्या मोबाइल से पूर्व हम इतनी ही बात करते थे? नहीं। उलटे जब भी मिलते थे दिल खोलकर लंबी बातें की जाती थीं। उसका सुखद अनुभव ही कुछ और होता था। कहने-सुनने के लिए ढेरों बातें होती थीं। और तो और बाद में भी यह जब याद आती विस्तार से सुनाई जाती। दूर रहने पर पोस्टकार्ड की जगह लिफाफे भी छोटे पड़ जाते और मन मारकर चंद शब्दों में दिल की बात लिखने की कोशिश की जाती थी। एक लेखक होने के नाते पाठकों के फोन आते हैं। यहां भी अमूमन दो-चार वाक्य, जैसे कि आपका लेख अच्छा लगा, आप कहां से बोल रहे हैं? आदि-आदि, के अतिरिक्त कुछ अधिक बातचीत नहीं होती। यहां दोनों के एक-दूसरे से अनजान होने का कारण बताया जा सकता है, समय की कमी का रोना रोया जा सकता है, मगर फिर जिन पाठकों के पत्र आते हैं उसमें पन्ने भरे होते हैं। कम से कम मोबाइल की बातचीत से तो अधिक ही दिल की बात लिखी होती है। असल में, मोबाइल के होने से निरंतर संपर्क में बने रहने का आभास जरूर बना रहता है, अब संपर्क हो न हो यह दीगर बात है, इसलिए मिलने पर कुछ भी नयेपन का अहसास नहीं जागता। अर्थात दोनों तरफ से नुकसान।
स्टेशन, बस स्टैंड, एयरपोर्ट पर हर दूसरे शख्स को मोबाइल कान पर लगाये हुए घूमते देखकर कुछेक के मन में यह सवाल उठ रहे होंगे कि तो फिर ये किससे बातें करते रहते हैं? सच है, हम न जाने किस किससे दिन-रात घंटों बातें करते हैं। मगर जिन्हें हमारा इंतजार होता है, जो हमसे प्यार करते हैं, उनसे शायद नहीं। मोबाइल पर लगे रहने वालों में से अधिकांश धंधे की बात में लगते रहते हैं अर्थात निनानवे का चक्कर। इस व्यवसाय के सहयोगी जादुई-तंत्र ने हमें पूरा व्यवसायी बना दिया। तभी तो हर जगह से धंधे की बात, फिर चाहे पिकनिक, सैर-सपाटे से लेकर शौचालय ही क्यूं न हो। हररोज शाम हम ऑफिस घर ले आते हैं। हां, प्रेम में डूबे नये-नये प्रेमी जोड़े की अंतहीन बातों के लिए इसने काम आसान कर दिया है। बहरहाल, और कुछ हो न हो, इस मोबाइल-प्रेम ने इंसान को अपने तक सीमित कर दिया है। इस चक्कर में अब आदमी अपने आसपास के लोगों को भी नहीं देखता। ऐसे में उसका किसी अजनबी छोड़ अपनों से संपर्क का सवाल नहीं, समय नहीं। फलस्वरूप सामाजिकता का मटियामेट हो रहा है। आज किसी भी अच्छे-बुरे में हम तुरंत अपने मोबाइल से अपने जानकार को बुलाने का प्रयत्न करते हैं जबकि पूर्व में हमारे आसपास के लोग ही हमारे अपने बन जाते थे। आज मनुष्य की इंसानियत इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर निर्भर हो गई है। हमारी विचारशीलता, कल्पनाशीलता सब कुछ मोबाइल तक सीमित हो चुकी है। इसने हमारी सृजनता को समाप्त कर दिया है, क्योंकि हम अब इसी में लिखते हैं और इसी में समझते हैं। यह हमारे विचारों को भी संचालित करता है। बात यहीं नहीं खत्म हो जाती है। अब बच्चों को खेल के मैदान में जाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती। वो तो मोबाइल पर ही खेल लेता है। मगर फिर ऐसे में शारीरिक विकास कैसे होगा? अब दोस्त, यार, साथी-संगति सब कुछ मोबाइल बन चुका है। सोशल मीडिया नेटवर्क के द्वारा हम सैकड़ों काल्पनिक साथी तो बना लेते हैं लेकिन उनसे चैट के माध्यम से बात करने में ही मजा आता है। यहां भी मोबाइल का इस्तेमाल कम ही होता है। बहुत हुआ तो एसएमएस का सहारा ले लिया जाता है। एक ही शहर में रहते हुए भी महीनों सालों नहीं मिलते। जरूरत महसूस नहीं होती। फेस बुक आदि के द्वारा तो हर उस चीज का, जिसकी आमतौर पर दोस्तो के बीच कल्पना की जा सकती है, लेन-देन हो जाता है। यहां तक कि कॉफी और चॉकलेट भी इन्हीं के माध्यम से भेज दिये जाते हैं। आधुनिक मानव जन्मदिन की सुबह अपने काल्पनिक दोस्तों की हवा-हवाई बधाइयों को खुशी-खुशी स्वीकारता है, फिर पूरे दिन उसे पढ़कर गुजार देता है। इस तरह से उसका जीवन इस मायावी दुनिया की एक काल्पनिक चीज बनकर रह गया है। जहां उसकी मौत होते ही उसे एक क्लिक मात्र से डिलीट कर दिया जाता है।
सवाल उठता है कि क्या प्रकृति में विकास नाम की कोई चीज है? नहीं। वहां सिर्फ परिवर्तन है वो भी अत्यंत धीमी गति से। तो फिर मानव के द्वारा इतनी भागमभाग क्यों? उसका मन स्थिर और शांत क्यों नहीं होता? वो दो पल ठहकर रुककर क्यों नहीं सोचता? पूर्व में ट्रेन-बस सफर के दौरान बच्चे-युवा अमूमन खिड़की के बाहर का नजारा देखते थे। विंडो सीट के लिए विशेष आग्रह किया जाता था। इसके लिए दो बच्चों में प्रतिस्पर्धा होती थी। रूठना, मचलना, झगड़ा तक हो जाता था। नदी-पेड़, हरियाली, पहाड़ देखने की होड़ मचती थी। और कुछ नहीं तो बिजली टेलीफोन के खम्भों को गिनने में सफर गुजर जाता था और इस चक्कर में बच्चों के अंक गणित सुधर जाने की संभावना बनती। भूगोल का व्यवहारिक ज्ञान विस्तार पाता। इन सफर के दौरान डिब्बों के यात्री एक वृहद् परिवार का रूप धारण कर लेते थे। और सभी मिल-जुलकर यात्रा को आनंदमय और यादगार बना देते थे। यही नहीं, हवाई जहाज से सफर करने वाले रईस भी खिड़की की सीट सिर्फ इसलिए लिया करते थे कि बादलों के बीच में सफर का आनंद लिया जा सके। मगर अब खिड़की के बाहर हमारी नजर नहीं जाती। हम पंछियों, जानवरों, कच्चे-पक्के मकान, खेत में काम करते आदमी-औरतों को देखकर खुश नहीं होते। हमारा ध्यान सहयात्रियों की तरफ जाता भी है तो हम आशंका से एक-दूसरे को देखते हैं। हम हर किसी इंसान से बचने का प्रयास करते हैं। जिंदा आदमी से हटकर अब हमारी निगाहें मोबाइल सेट पर ही केंद्रित होती है। हम आसपास बैठे लोगों की बजाय लैपटॉप पर चैट करना अधिक पसंद करते हैं जो हमें यथार्थ से दूर ले जा रहा है, मनुष्य के जीवित होने के अहसास को खत्म कर रहा है। मगर हम इस परिणाम से अनजान अपनी काल्पनिक दुनिया में फंसे पड़े हैं। तभी तो हम अब सफर के दौरान विंडो सीट सोने के लिए लेते हैं, चूंकि सामान्य जीवन में हमारे पास दो घड़ी चैन से आंख बंद करने की भी फुर्सत कहां!

यह लेख मनोज सिंह द्वारा लिखा गया है.आप ,कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार एवं स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध है .आपकी 'चंद्रिकोत्त्सव ,बंधन ,कशमकश और 'व्यक्तित्व का प्रभावआदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है .

COMMENTS

Leave a Reply: 4
  1. हर चीज़ के अपने अपने नफ़े नुक़्सान होते हैं और समय बदलता भी रहता है

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  2. मोबाइल ने हमसे हमारी सच्ची खुशी छीन ली है.

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  3. कहने को हम उन्नति कर रहे है लेकिन असल में हम कुदरत से दूर होते हुए सब कुछ उल्टा पुल्टा किये जा रहे है...........लेख बहुत अच्छा लगा - मुबारक सवीकार करे.

    जोली अंकल

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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