पाठक की भूमिका: क्या पाठक ही किसी कृति को महान बनाता है? साहित्य की दुनिया में एक पुराना और गहरा सवाल बार-बार उठता रहा है कि किसी रचना को महान बनाने
पाठक की भूमिका: क्या पाठक ही किसी कृति को महान बनाता है?
साहित्य की दुनिया में एक पुराना और गहरा सवाल बार-बार उठता रहा है कि किसी रचना को महान बनाने का श्रेय किसे जाता है—लेखक को, उसके समय को, या फिर पाठक को? यह प्रश्न इसलिए जटिल है क्योंकि साहित्य कोई स्थिर वस्तु नहीं है; वह जीवंत संवाद है, जो लेखक के शब्दों से शुरू होता है, लेकिन पाठक की चेतना में ही अपना पूरा रूप लेता है। क्या पाठक ही वह जादूगर है जो साधारण कागज की स्याही को अमर कृति में बदल देता है? इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए हम देखते हैं कि साहित्य का मूल्य उसके पाठकों की नजरों में ही निर्धारित होता है।
पाठक की व्याख्या और रचना का नया जीवन
लेखक अपनी रचना में अपनी सच्चाई, अपना अनुभव और अपनी कल्पना उड़ेलता है। वह शब्दों को गढ़ता है, भावों को आकार देता है, लेकिन जैसे ही रचना पूरी होकर दुनिया के सामने आती है, वह लेखक के नियंत्रण से बाहर हो जाती है। अब वह पाठक के हाथ में है। पाठक उसे अपने जीवन के आईने में देखता है, अपने अनुभवों से जोड़ता है, अपनी संवेदना से रंगता है। एक ही रचना अलग-अलग पाठकों के लिए अलग-अलग अर्थ रखती है। कभी वह विद्रोह बन जाती है, कभी सांत्वना, कभी क्रांति का आवाहन। यही कारण है कि समय के साथ एक रचना का महत्व बदलता रहता है। जो किताब अपने समय में उपेक्षित रही, वह दशकों बाद अचानक लाखों दिलों की धड़कन बन जाती है। इसका कारण लेखक नहीं, बल्कि बदलते पाठक और उनका बदलता समाज होता है।उदाहरण के लिए, फ्रांज काफ्का की रचनाएँ उनके जीवनकाल में लगभग अज्ञात रही। उनकी कहानियाँ और उपन्यास प्रकाशित तो हुए, पर व्यापक पाठक वर्ग तक नहीं पहुँचे। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जब दुनिया अस्तित्ववाद, अलगाव और नौकरशाही के दबाव से जूझ रही थी, तब काफ्का के पात्र अचानक हर उस व्यक्ति की आवाज बन गए जो अपने अस्तित्व को व्यर्थ और भयावह महसूस कर रहा था। “द ट्रायल” और “द मेटामॉर्फोसिस” को महान बनाने का काम काफ्का ने नहीं, बल्कि उन पाठकों ने किया जिन्होंने अपने समय की पीड़ा को इन पृष्ठों में देखा। पाठकों ने ही काफ्का को “काफ्काई” बनाया।प्रेमचंद की रचनाएँ: समय के साथ बदलता महत्व
इसी तरह, भारत में प्रेमचंद की रचनाएँ अपने समय में ग्रामीण भारत की कड़वी सच्चाई को उजागर करती थीं। लेकिन आज, जब हम शहरों में रहते हुए भी सामाजिक असमानता और शोषण से रूबरू होते हैं, तब “गोदान” या “कफन” हमें नई गहराई से छूती हैं। नए पाठक नए संदर्भों में इन्हें पढ़ते हैं—लैंगिक दृष्टि से, दलित दृष्टि से, पर्यावरणीय दृष्टि से। हर बार रचना नई हो जाती है। यह चमत्कार लेखक नहीं, पाठक करता है।यह भी सच है कि कुछ रचनाएँ बिना व्यापक पाठक वर्ग के भी महान मानी जाती हैं, जैसे संस्कृत के महाकाव्य या कुछ प्राचीन ग्रंथ। लेकिन उनकी महानता भी समय-समय पर पुनर्व्याख्या करने वाले विद्वानों और पाठकों के कारण ही जीवित रहती है। यदि कोई रचना सदियों तक पढ़ी न जाए, समझी न जाए, तो वह धूल भरी अलमारियों में खो जाती है। उसकी महानता सोई रहती है। पाठक ही उसे जगाता है।
कलात्मक गुणवत्ता और पाठक की नजर
कुछ लोग कह सकते हैं कि रचना में निहित कलात्मक गुणवत्ता ही उसे महान बनाती है। लेकिन गुणवत्ता भी तो पाठक की नजर में ही प्रमाणित होती है। जो एक युग में उत्कृष्ट माना जाता है, वह दूसरे युग में पुराना पड़ सकता है। साहित्य का इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहाँ पहले तिरस्कृत रचनाएँ बाद में क्लासिक बन गईं। इसका मतलब यह नहीं कि लेखक का योगदान कम है। लेखक बीज बोता है, लेकिन पाठक ही उसे पेड़ बनाता है, फल देता है, छाया देता है।
अंत में, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि साहित्यिक कृति का जीवन पाठक के बिना अधूरा है। लेखक रचना को जन्म देता है, लेकिन पाठक उसे जीने देता है, बढ़ने देता है, अमर होने देता है। महानता कोई स्थिर गुण नहीं, बल्कि एक निरंतर संवाद है—लेखक और पाठक के बीच, समय और समाज के बीच। और इस संवाद का केंद्र बिंदु पाठक ही है। वह व्याख्या करता है, वह चुनता है, वह याद रखता है। इसलिए, हाँ, किसी कृति को महान बनाने में पाठक की भूमिका निर्णायक होती है। वह न केवल पढ़ता है, बल्कि रचना को अपने भीतर जीता है, और इसी जीने में रचना महान बनती है।


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