दगड्या साथी | हिन्दी लघु कथा

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दगड्या साथी उमा हताश हो कर बाथरूम के फर्श पर बैठ गई। उसका दिमाग सुन्न हो रहा था। उसके सामने का दृश्य आज फिर एक अत्यंत कठिन परिस्थिति और उसकी असहनीयत

दगड्या साथी


मा हताश हो कर बाथरूम के फर्श पर बैठ गई। उसका दिमाग सुन्न हो रहा था। उसके सामने का दृश्य आज फिर एक अत्यंत कठिन परिस्थिति  और उसकी असहनीयता को  उभार के दिखा रहा था।  सामने  अल्जाइमर रोग से पूर्णतः ग्रस्त उसकी वृद्ध सास सब कुछ से अनभिज्ञ  फर्श पर किये हुए अपने ही मल में लथपथ हांफ रही थी। अपनी  खाली, सुनसान आँखों से उन्होंने उमा की तरफ देखा और वहीं फर्श पर पसर गई।

पिछले सात सालों से उसकी सास की स्थिति में बहुत तीव्रता से गिरावट आई थी, जो अब ऐसे कगार पर थी जहाँ इंसान की याददाश्त उस कदर खो जाती है कि जीवन की यादें तो दूर , रोजमर्रा की साधारण दिनचर्या वाले कार्य जैसे भोजन करना ,वस्त्र पहनना और मल-मूत्र त्यागने तक की सूझबूझ भी पूर्णतया गायब हो जाती है। अब तो उसकी सास दमयंती देवी बस एक शरीर मात्र थी, जिसे ना तो अतीत की चेतना थी और ना ही वर्तमान का बोध।

दगड्या साथी
उमा ने एक गहरी सांस ली, अपने आप को एकाग्र किया और हमेशा की तरह एक बार फिर इस विचित्र परिस्थिति को सुलझाने में लग गई । पिछले कुछ सालों ने उसे भी बहुत मजबूत और धैर्यवान  बना दिया था। उस अजीबोगरीब गुत्थी को सुलझा कर, उसने अपनी सास को नहला-धुला कर और गरम कपड़े पहनाकर टीवी के सामने सोफे पर बैठाया। अपने लिए चाय बनाने ही वाली थी की रोज की तरह ठीक दस बजे दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो  सामने एक और वृद्धा खड़ी थी। सासूजी की   दगड्या। उमा को देख वो हमेशा की तरह अपने सरल गढ़वाली अंदाज में हँसी और उसकी शीतल पहाड़ी हँसी में उमा भी हँस पड़ी।

जमना उसकी सास की वर्षो से कामवाली थी। शायद तबसे ही जब   उसकी सास दमयंती  देवी व्याह कर   परिवार में आयी थी। उसका साहचर्य उनके साथ परिवार के सब सदस्यों से कहीं ज्यादा था। अठारह साल की नई नवेली दुल्हन  से तीस  वर्ष की विधवा, तीन पुत्रो की संघर्षपूर्ण परवरिश , उनकी नौकरियां , शादियां, परिवार की बढ़ोत्तरी, उमा के दोनों देवरों की असमय मृत्यु और धीरे-धीरे सासूजी के एक प्रतिष्ठित जीवन में से  याददाश्त के विलीन हो जाने तक के  सम्पूर्ण सफर में जमना दमयंती  देवी के साथ रही थी। दमयंती  देवी स्नेह से उसे अपनी दगड्या कहती थी, अर्थात गढ़वाली भाषा में जीवनभर का संगी साथी। व्याह के समय दमयंती देवी के पति उत्तराखंड बनने से पहले अविभाजित उत्तर प्रदेश प्रशासन में अफसर थे। प्रदेश में उनका नाम बहुत काबिल और प्रभावशाली व्यक्तियों में गिना जाता था। दमयंती देवी की व्यापक सोच और आकर्षक व्यक्तित्व को उस उच्च समुदाय में और भी निखार मिला। वे दोनों शहर मे अपनी  आकर्षक और प्रभावशाली पहचान और एक  मशहूर दंपति के रूप मे जाने जाते थे।

एक दिन  लहलहाती सरसों पर गाज ऐसे गिरी कि सामाजिक स्तर और प्रभाव बस शब्दकोश के शब्द मात्र रह गए। दमयंती  देवी तीनो पुत्रों और जमना को लेकर  सरकार  द्वारा  अलॉट किये गए देहरादून कल्याण आवास के मकान में  शिफ्ट हो गयी।  तब से चाहे बरसात में  बाढ़ की स्तिथि हो या तूफान के बाद का नुकसान, राजनैतिक बंद हो या चुनावी तनाव, ठीक दस बजे रायवाला से विक्रम वाहन में बैठ कर जमना का पूरी बत्तीसी दिखाते हुए आगमन होता था और ये गृहस्ती   दमयंती देवी के मजबूत कंधों और जमना की  कामधारी हथेलियों  पर ऐसी सधी की कब तीनो पुत्रों की पढ़ाई पूरी हुई, नौकरियां लगी और वधुओं का प्रवेश हुआ, पता ही नहीं चला। 

वक्त ने करवट ली। दोनों देवरों की असमय मृत्यु के बाद  देवरानियों और उनके परिवारों का आना भी कम हो गया। धीरे धीरे सासूजी की याददाश्त हल्की होते-होते भटकने लगी और फिर  विलुप्त हो गयी। जमना भी सासूजी के साथ ही क्षीण हो चली थी। घर पर अब काफी वर्षों से काम के लिए दो-दो महरी आती थी। जमना को काम बताने वाला तो अब अपनी ही दुनिया में होते हुए भी गुम था। पर वो दिन और आज का दिन , सुबह के दस बजे, वो क्षीण वृद्धा, खुद को खींचती हुई रायपुर से पांच रुपए का विक्रम वाहन पकड़ कर अपनी बची खुची बत्तीसी लिए  प्रकट हो जाती थी। अपने सुख दुख की मालकिन सखी के कदमों में बैठ जाती थी। चुपचाप उनकी हथेलियों को सहलाती, उनके बालो में तेल लगा कर कंघी करती, उन्हें अपने हाथों से दिन में दाल भात खिलाती और उन्हें निहारती रहती। उसकी छियासी साल की मैडम अपनी बीती ज़िन्दगी से  पूर्णतः बेखबर, टुकुर टुकुर एक चिड़िया की तरह उसे देखती रहती. 

आज फिर जमना अपनी मैडम सखी के कदमों पर बैठी उस  शून्य में  गुम   मासूम चेहरे को एकटक निहारने में लगी थी। अपनी क्षीण उँगलियों से उसने उनकी आँखों के किनारों को साफ किया, उनके उलझे सफेद बालों पर बहुत सफाई से कंघी करी और एक अपरिभाषित स्नेह से उनके पाव दबाने लगी। उमा ने उसे चाय और नाश्ता दिया और खुद चाय का कप लेकर इन दो जीर्ण-शीर्ण  वृक्षों को निहारने लगी जो एक दूसरे के ऊपर गिरते पड़ते उम्र के धरातल से बहुत ऊपर पहुँच चुके थे लेकिन एक दूसरे की उपस्तिथि में अब भी हरियाली का आभास कर रहे थे। उमा ने जाने से पहले हर माह की तरह जमना को पांच सौ रुपए  थमाए और शाम की चाय के बाद विदा किया।

चार महीने बाद सासूजी चल बसी। जमना उसकी अर्थी जाने तक उसके सिरहाने बैठी रही। आखरी बार अपनी दगड्या मालकिन की आँखों के किनारे साफ किये , उनके लम्बे उलझे बालो को संवारा और झिलमिलाती नम आँखों के साथ उन्हें विदा किया।

एक महीने बाद जमना भी एक दिन सुबह नहीं उठी। उसकी तेरहवीं में बैठे हुए उमा दूर कहीं एक दृश्य देख रही थी, जिसमे दो वृद्धा दगड्या सखियाँ आसमान में एक सफेद बादल के ऊपर पसरी हुई आनंदित होकर बतिया रही थी, जहाँ…. ना जाने कितने जन्मों की यादें थी बतियाने को.


                                                    
- दिनेश कुमार बिष्ट 
देहरादून ,उत्तराखंड 
Mob 9766062595

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