भक्तनि हित तुम कहा न कियौ पद की व्याख्या अर्थ सूरदास सूर का कथन है कि हे भगवान्! आपने अपने भक्तों के लिए क्या-क्या नहीं किया। जब परीक्षित अपनी माँ के
भक्तनि हित तुम कहा न कियौ पद की व्याख्या अर्थ | सूरदास
भक्तनि हित तुम कहा न कियौ।
गर्भ परीक्षित रक्षा कीन्हों, अम्बरीष व्रत राखि लियौ ।।
जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पुरई, सखा विप्र-दारिद्र हर यौ ।
अंबर हरत द्रौपदी राखी, ब्रह्म-इन्द्र को मान नयौ ।।
पांडव कौ दूतत्व कियौ पुनि, उग्रसेन कौ राज दयौ ।
राखी पैज भक्त भीषम की, पारथ कौ सारथी भयौ ।।
दुखित जानि दोउ सुत कुबेर के, नारद शाप निवृत्त कियौ ।
करि बल बिगत उबारि दुष्ट तैं, ग्राह ग्रसत बैकुण्ठ दियौ ।।
गौतम की पतिनी तुम तारी, देव, दवानल कौं अँचयौ ।
सूरदास प्रभु भक्त-बछलहरि, बलि द्वारे दरबान भयौ ।।'
सन्दर्भ- भगवान् अपने भक्तों के ऊपर सदैव कृपा करने वाले बड़े उपकारी हैं। इस पद में सूर ने इसी भगवत्कृपा का निरूपण किया है।
व्याख्या - सूर का कथन है कि हे भगवान्! आपने अपने भक्तों के लिए क्या-क्या नहीं किया। जब परीक्षित अपनी माँ के गर्भ में थे तब गर्भ में उनकी रक्षा किया। राजा अम्बरीष के व्रत की (एकादशी व्रत) रक्षाकर उन्हें बचा लिया। भक्त प्रह्लाद की प्रतिज्ञा पूरी की और अपने मित्र सुदामा की दरिद्रता को समाप्त किया। चीर-हरण होते द्रौपदी की रक्षा की। ब्रह्मा तथा इन्द्र के अभिमान को नष्ट किया। पाण्डवों के लिए दूत-कर्म को सम्पन्न किया। उग्रसेन को उनका राज्य दिया। भक्त भीष्म पितामह के प्रतिज्ञा की रक्षा किया। अर्जुन के सारथी बने। कुबेर के दोनों पुत्रों को दुःखी समझकर नारद के शाप से मुक्ति दिलाया। बलहीन हाथी की ग्राह से रक्षा की और उसे बैकुण्ठ प्रदान किया। भगवान् ने ही गौतम की पत्नी (अहिल्या) का उद्धार किया। हे देव, आपने दावानल का पान कर लिया। सूरदास जी कहते हैं कि भक्त-वत्सल श्री हरि राजा बलि के द्वार पर द्वारपाल हो गये।
विशेष - उपरोक्त पद में निम्नलिखित विशेषताएं हैं -
- भक्त की प्रतिष्ठा रखने के लिए भगवान् अपनी प्रतिष्ठा नहीं रखते। भक्त की रक्षा भगवान् सदैव करते हैं। प्रस्तुत पद में महात्मा सूरदास ने इसी तथ्य का उद्घाटन किया है।
- इस पद में अनेक अन्तर्कथाओं का संगुम्फन कवि ने किया है।
- यथा- गर्भ में परीक्षित की रक्षा- परीक्षित पाण्डुवंशीय सम्राट थे जो अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र थे। जिस समय परीक्षित का जन्म हुआ उस समय श्री कृष्ण हस्तिनापुर में विद्यमान थे। ये ब्रह्मास्त्र से पीड़ित होने के कारण चेतनाहीन शव के रूप में पैदा हुए थे। उन्हें जिलाने के लिए कुन्ती और सुभद्रा ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना को सुनकर ही श्रीकृष्ण प्रसूतिका गृह में प्रविष्ट हुए। प्रसूतिका गृह में उत्तरा के विलाप को सुनकर श्री कृष्ण ने मृत बालक को जीवित कर दिया।
- ब्रह्मा का मान भंग - ब्रह्मा श्रीकृष्ण के ब्रह्मत्व की परीक्षा लेना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अज्ञानवश गोचारण के अवसर पर गाय और बछड़ों का हरण कर लिया। श्री कृष्ण ने ब्रह्मा के मोह और गर्व को मिटाने के लिए नये गाय और बछड़े बना दिये। तब ब्रह्मा ने अपनी दिव्यदृष्टि से सारी बात को जान लिया और पश्चात्ताप करते हुए श्रीकृष्ण के पास जाकर उनकी स्तुति की।
- इन्द्र का मान भंग - जिस समय श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर धारण किया था और इन्द्र गोवर्धन के ऊपर अपार जल वृष्टि करते हुए हार गये। तब उन्होंने श्रीकृष्ण के शरण में जाकर क्षमा माँगा । इस भाव को सूर ने अन्यत्र भी व्यक्त किया है-
- 'लुठत सक्र कौ सीस चरनन्तर, जुग-गुन-गत समये।' (सूरसागर) उग्रसेन- उग्रसेन मथुरा के एक यदुवंशी राजा थे, जिन्हें उनके ज्येष्ठ पुत्र कंस ने अपने श्वसुर जरासंध की सहायता से कारागार में डाल दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर उग्रसेन को पुनः मथुरा का राजा बनाया था।
- दावानल- दावानल वह अग्नि है जो वन में अपने आप प्रकट हो जाती है। इसी दावानल का प्रसंग श्रीकृष्ण-लीला में वर्णित हुआ है। ब्रजवासियों के रक्षार्थ श्रीकृष्ण को दो बार दावानल का पान करना पड़ा। प्रथम- कालियदमन के बाद और दूसरा- गोचारण के समय ।
- अलंकार- दृष्टान्त और अतिशयोक्ति ।
- इस पद में भक्ति रस पाया जाता है।

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