दीवार मे एक खिड़की रहती है उपन्यास की समीक्षा विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी हिंदी साहित्य की उन कालजयी रचनाओं में से एक है,
दीवार मे एक खिड़की रहती है उपन्यास की समीक्षा
विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी हिंदी साहित्य की उन कालजयी रचनाओं में से एक है, जो अपनी सादगी, काव्यात्मकता और गहन मानवीय संवेदनाओं के कारण पाठकों के दिलों में एक खास जगह बना लेती है। 1997 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित यह उपन्यास 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुआ और तब से यह हिंदी साहित्य प्रेमियों के लिए एक ऐसी कृति बन गया, जो न केवल पढ़ी जाती है, बल्कि बार-बार महसूस की जाती है। शुक्ल, जो स्वयं एक कवि हैं, इस उपन्यास में गद्य को कविता की तरह बुनते हैं, जहां हर वाक्य, हर चित्र, हर संवाद एक ऐसी दुनिया रचता है, जो साधारण होते हुए भी असाधारण है।
उपन्यास की कथावस्तु
यह उपन्यास रघुवर प्रसाद और उनकी पत्नी सोनसी के जीवन की कहानी है—एक निम्न-मध्यवर्गीय दंपति, जो एक छोटे से कस्बे में किराये के मकान में रहता है। लेकिन यह कहानी केवल उनकी नहीं, बल्कि उस सादगी की है, जो जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में छिपी होती है और जिसे शुक्ल अपनी लेखनी से एक जादुई चित्र में बदल देते हैं।उपन्यास की शुरुआत रघुवर प्रसाद के किराये के कमरे से होती है, जहां दीवारें नंगी हैं, लेकिन एक खिड़की की कल्पना उनके जीवन को रोशनी देती है। यह खिड़की केवल एक भौतिक संरचना नहीं है, बल्कि एक प्रतीक है—सपनों का, आशा का, और उस अनदेखे संसार का, जो रोजमर्रा की जिंदगी में भी कहीं छिपा रहता है। खिड़की शुरू में बच्चों की ईंटों की ढेर से बनती है, फिर धीरे-धीरे एक ऐसी वास्तविकता बन जाती है, जो रघुवर और सोनसी के जीवन को बाहर की दुनिया से जोड़ती है। यह खिड़की उनके प्रेम, उनकी कल्पनाओं और उनकी सादगी का प्रतीक बन जाती है। शुक्ल जी इस प्रतीक को इतनी सहजता से पिरोते हैं कि यह न तो दार्शनिक बोझ बनता है और न ही कृत्रिम लगता है। यह बस उनके जीवन का हिस्सा बन जाता है, जैसे चाय की प्याली या साइकिल की सवारी।
रघुवर प्रसाद एक महाविद्यालय में व्याख्याता हैं, और उनकी पत्नी सोनसी एक गृहिणी। उनका जीवन सीमित साधनों में गुजरता है, लेकिन इस सीमितता में एक ऐसी समृद्धि है, जो आधुनिक उपभोक्तावादी समाज में दुर्लभ है। रघुवर की साइकिल, जिसे वे कभी-कभी हांथी की तरह देखते हैं, उनकी धीमी लेकिन स्थिर जीवन-यात्रा का प्रतीक है। सोनसी की हंसी, जो तितली की तरह उड़ती है, उनके घर को जीवंत बनाती है। दोनों का रिश्ता इतना शुद्ध और सहज है कि यह पाठक को अपने आसपास के रिश्तों पर फिर से विचार करने को मजबूर करता है। वे एक-दूसरे को चाय पिलाते हैं, छोटी-छोटी बातों पर हंसते हैं, और सपनों में खो जाते हैं। उनका प्रेम न तो नाटकीय है और न ही सनसनीखेज; यह बस एक ऐसी धारा है, जो चुपके से बहती रहती है और अपने आसपास की हर चीज को सींच देती है।शुक्ल जी की लेखनी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे साधारण को असाधारण बना देते हैं।उपन्यास में कोई बड़ा कथानक नहीं है, कोई नाटकीय मोड़ नहीं, कोई सामाजिक क्रांति की पुकार नहीं। इसके बजाय, यह रोजमर्रा की जिंदगी के छोटे-छोटे टुकड़ों का मोज़ेक है—रघुवर का कॉलेज जाना, सोनसी का घर संभालना, पड़ोसियों से बातचीत, बाजार से सब्जी लाना, या फिर शाम को खिड़की से आकाश को निहारना। लेकिन इन साधारण पलों में एक जादुई यथार्थवाद (magical realism) है, जो शुक्ल की कविताई प्रकृति से उपजता है। जैसे, रंगोली हवा में उड़ने लगती है, तोता पेड़ में घुल जाता है, या फिर कमरे में दो चांद एक साथ चमकते हैं। ये दृश्य न तो वास्तविकता से कटे हुए हैं और न ही पूरी तरह काल्पनिक; ये उस सीमा पर टहलते हैं, जहां हकीकत और सपना एक-दूसरे में घुल जाते हैं। यह जादू पाठक को चौंकाता तो है, लेकिन उसे पराया नहीं लगता। यह ऐसा है जैसे बचपन में देखे गए सपनों को फिर से जीना, जहां सब कुछ संभव था।
उपन्यास की भाषा
उपन्यास की भाषा इसकी आत्मा है। शुक्ल जी की हिंदी इतनी साफ और सरल है कि यह प्रेमचंद की याद दिलाती है, लेकिन उसमें एक ऐसी लय और काव्यात्मकता है, जो इसे विशिष्ट बनाती है। उनके वाक्य छोटे-छोटे हैं, लेकिन उनमें गहरी संवेदना और अर्थ छिपे हैं। जैसे, "आकाश खिड़की से झांक रहा था" या "साइकिल पर हांथी सवार हो गया"—ये वाक्य पढ़ते हुए मुस्कुराहट आती है, लेकिन साथ ही एक गहन विचार भी जागता है। उनकी भाषा में एक गीतात्मक गुण है, जो शब्दों को चित्रों में बदल देता है। प्रकृति का चित्रण इस उपन्यास में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नदी, पेड़, पक्षी, बारिश—सब कुछ जीवंत हो उठता है, जैसे वे भी कहानी के पात्र हों। रघुवर और सोनसी का प्रकृति के साथ रिश्ता इतना गहरा है कि वह उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है। बारिश की बूंदें उनके घर में आती हैं, पक्षी उनकी खिड़की पर गीत गाते हैं, और आकाश हर शाम उनके साथ संवाद करता है।
उपन्यास का सामाजिक परिवेश भी इसकी ताकत है। यह एक छोटे कस्बे का चित्रण है, जहां निम्न-मध्यवर्ग का जीवन अपनी पूरी सादगी और संघर्ष के साथ मौजूद है। रघुवर और सोनसी की आर्थिक स्थिति सीमित है, लेकिन उनकी दुनिया में कोई शिकायत नहीं है। वे अपने हिस्से की जिंदगी को पूरी शिद्दत से जीते हैं। पड़ोसी, बच्चे, जानवर—सब उनके जीवन का हिस्सा हैं। पड़ोस के बच्चे उनकी खिड़की के लिए ईंटें लाते हैं, तो कोई पड़ोसन चाय के लिए बुलाती है। यह एक ऐसा समुदाय है, जहां लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं, बिना किसी औपचारिकता के। यह सामुदायिकता आज के शहरी जीवन में खो सी गई है, और शायद यही कारण है कि यह उपन्यास इतना आत्मीय लगता है।
जीवन की सुंदरता उसकी सादगी में छिपी है
रघुवर और सोनसी का रिश्ता इस उपन्यास का केंद्र है। उनका प्रेम न तो आधुनिक प्रेम कहानियों की तरह अतिशयोक्तिपूर्ण है और न ही परंपरागत ढांचे में बंधा हुआ। यह एक ऐसा प्रेम है, जो छोटी-छोटी चीजों में बसता है—सोनसी का रघुवर के लिए चाय बनाना, रघुवर का सोनसी की हंसी को सुनना, या फिर दोनों का एक साथ खिड़की से बाहर देखना। उनका रिश्ता बराबरी का है, जहां कोई शक्ति-संतुलन नहीं है, केवल एक-दूसरे के लिए सम्मान और स्नेह है। यह प्रेम सामाजिक और आर्थिक बंधनों से परे है; यह वह प्रेम है, जो जीवन की सादगी में ही अपनी पूर्णता पाता है।दीवार में एक खिड़की रहती थी एक ऐसा उपन्यास है, जो पाठक को सिखाता है कि जीवन की सुंदरता उसकी सादगी में छिपी है। यह हमें बताता है कि खुशी को बड़े-बड़े लक्ष्यों में खोजने की जरूरत नहीं; वह हमारे आसपास की छोटी-छोटी चीजों में बिखरी पड़ी है।
हिंदी गद्य को एक नई ऊंचाई
विनोद कुमार शुक्ल ने इस उपन्यास में हिंदी गद्य को एक नई ऊंचाई दी है, जहां कविता और गद्य का मिलन एक ऐसी दुनिया रचता है, जो सपनों और हकीकत का अनूठा संगम है। यह उपन्यास हर उस पाठक के लिए है, जो जीवन की सादगी को महसूस करना चाहता है, और जो अपनी दीवारों में छिपी खिड़कियों को खोजने की हिम्मत रखता है। इसे पढ़ना केवल एक कहानी पढ़ना नहीं, बल्कि एक ऐसी यात्रा पर निकलना है, जहां हर कदम पर जीवन की छोटी-छोटी खुशियां इंतजार कर रही हैं।


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